31 मई 2008

'स्कीम जर्नलिज्म' के शिकंजे में पत्रकारिता

संजय कुमार प्रसाद हाल के वर्षों में अखबारों के बीच तेज हुई प्रतिस्पर्द्धा ने 'स्कीम जर्नलिज्म' को बढावा दिया है. वैसे तो नये आर्थिक परिदृश्य में प्रतिस्पर्द्धा कोई नयी बात नहीं है, लेकिन जिस तरह से इस प्रतिस्पर्द्धा ने उपहारों की नयी संस्कृति को बढावा दिया है, वह पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं है. साबुन-सर्फ की शक्ल लेता अखबार भी कंटेंट से ज्यादा स्कीम के चलते सुर्खियों में रहता है. गंभीर बात यह है कि आकर्षक स्कीम ही प्रतिस्पर्द्धा की लडाई के मुख्य हथियार बनते जा रहे हैं और कंटेंट, एडिटोरियल वैल्यू और ऑबजेक्टिव जर्नलिज्म हाशिये पर चले गये हैं.
विज्ञापन बाजार में सिकंदर बनने की चाहत ने अखबारों के बीच ' सर्कुलेशन वार' को तेज किया है. विशेषकर हिंदी मीडिया के फैलते बाजार ने हिंदी प्रदेशों को अखबारी लडाई का ' बैटल ग्राउंड' बना दिया है. मजेदार बात यह है कि यह लडाई ' एग्रेसिव मार्केटिंग' और 'अट्रैक्टिव स्कीम' के सहारे लडी जा रही है. यह स्थिति समस्त हिंदी पट्टी में है.
आज स्थिति यह है कि एक अखबार स्कीम निकालता है, तो शेष सभी अखबार इस दौड में शामिल होते हैं और रातो-रात पाठकों को करोडपति बनाने का ख्वाब दिखाने लगते हैं. बेचारा बना पाठक मानसून में हो रही उपहारों की बरसात से अचंभित रहता है और समझ नहीं पाता कि वह अखबार पढने के लिए ले रहा है या उपहारों के लिए. इनाम की गारंटी ने मौसमी पाठकों की संख्या एकाएक बढा दी है. इनका खालिस रिश्ता उपहारों से होता है. अखबार वाले भी अपने सर्कुलेशन में हुए उछाल से गदगद हैं, लेकिन यह नहीं समझ पा रहें कि स्कीम खत्म होते ही ये मौसमी पाठक बरसाती मेढक साबित हो सकते हैं. ऐसे में आज यह सवाल है कि क्या ' स्कीम जर्नलिज्म' के सहारे यह लडाई लडी जा सकती हैङ्क्ष क्या कंटेंट का किला ध्वस्त कर नंबर वन की रेस में विजयी हुआ जा सकता है पत्रकारिता की आत्मा को मार कर मीडिया कब तक मृत शरीर की लडाई लडेगी यह एक विचारणीय विषय है.
यही नहीं, इस बात पर भी गंभीर मीमांसा करनी होगी कि उपहारों के नाम पर करोडों लुटानेवाले अखबार अपने कंटेंट के प्रति कितने संवेदनशील हैंङ्क्ष क्या पार्ट टाइमरों और स्ट्रिंगरों के जरिये यह लडाई लडी जा सकती हैङ्क्ष एक अखबार एग्रेसिव मार्केटिंग टीम बनाने की जितनी जोजहद करता है, क्या संपादकीय टीम के प्रति भी उतना ही संजीदा होता हैङ्क्ष एक बेहतर क्रियेटिव टीम बनाने की कितनी गंभीर कोशिश होती हैङ्क्ष करोडों न सही, लाखों रुपये भी एक पेशेवर टीम बनाने के लिए खर्च किया जाये और कंटेंट जर्नलिज्म को इस लडाई का कोर बिजनेस बनाया जाये, तो वह करोडों के उपहारों से ज्यादा लाभकारी साबित हो सकता है. उपहारों के जरिये कुछ दिनों के लिये सर्कुलेशन बढाया जा सकता है, लेकिन पाठकों के दिलों पर राज केवल और केवल बेहतर पत्रकारिता के जरिये ही संभव है.
(प्रभात खबर के मीडिया बहस से साभार )

29 मई 2008

मीडिया सच दिखाये, झूठ या अर्धसत्य नहीं :

मनीष शांडिल्य
मीडिया के साथ हमारे रिश्ते अनिवार्य हैं और अब तो प्रतिपल यह रिश्ता जुडा है हमसे इस सूचना विस्फोट के युग में एक एसएमएस ताजा तरीन खबरें उपलब्ध हो जाते है. मोबाइल टीवी तो अगला बडा कदम होगा इस क्षेत्र में मीडिया के साथ हम अपने रिश्तों को इन दो उदाहरणों से अच्छी तरह से समझ सकते हैं. इन दो उदाहरणों से हम यह समझ सकते हैं कि मीडिया किस तरह हमारे जीवन में रच-बस चुका है. पहला तो यह कि 'या ऐसा नहीं होता कि जिस दिन अखबार की छुट्टी हो, उस सुबह हम एक बार जरूर पूछ बैठते हैं कि आज अब तक अखबार 'यों नहीं आयाङ्क्ष दूसरा यह कि कुछ ज्यादा देर तक केबल लाइन ऑफ रहते ही या तो आप पडोसी से पूछ-ताछ कर लेते होंगे या फिर पडोसी आपसे केबल की खबर ले लेते होंगे. पर वर्तमान में यह रिश्ता सिव इन रिलेशनसिप के साथ एक हद तक लब एण्ड हेट रिलेशन में तब्दील हो चुका है. आज एक जागरूक दर्शक या पाठक समाचार देख पठ कर तीखी टिप्पणी किये बिना नहीं रहता. पर यह भी सच है कि टिप्पणी करने के लिए समाचार देखना-पढना जरूरी है.
व्यक्ति से आगे बढते हुए हम समाज की बात करें तो, देश की बात करें तो यह कहा जाता है कि पत्रकारिता देश और समाज का आईना होती है. एक ऐसा आईना जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि उसे हम सोने और चांदी में जड कर भी रखें तो वो झूठ नहीं बोलेगा. पर वर्तमान में यह आईना पूरी तसवीर प्रतिबिंबित नहीं करता. आज जब पत्रकारिता में ख्याति, पैसा और हैसियत सब है अर्थात जब इस आईने को सूचना विस्फोट के युग में सोने और चांदी में जड दिया गया है तब यह आईना झूठ नहीं तो कम-से कम अर्धसत्य दिखा रहा है. मीडिया ने समाचार को 'सचमार' में तब्दील कर दिया हैं. आज मीडिया कई बार ऐसे ढोंग करता है कि लोग उसके बहकावे में आ जाते है. ऐसा लगता है मीडिया बार-बार झूठ दिखाकर उसे सच में तब्दील करने की कोशिश कर रहा है. चाहे आरक्षण विरोधी आंदोलन का कवरेज हो, राम सेतु का मामला हो या फिर यूपी विधानसभा चुनाव का मतदान पूर्व सर्वेक्षण हो इन सब उदाहरणों में हम देख सकते हैं कि मीडिया किस का हित साधने का प्रयास कर रहा है, वह किसके साथ खडा है. आज सिनेमा, क्राइम, क्रिकेट और कामेडी के चार सी ही मीडिया (खासकर टीवी जगत) के चार खंभे हैं और कॉमन मैन का पांचवा 'सी' यहां कोई मायने रखता.
आंकडे व सर्वेक्षण भी यहीं कहते हें. सीएमएस मीडिया लैब ने २००७ में छह राष्ट्रीय समाचार चैनलों के कुल समाचार समय का प्रतिशत निकला. आंकडे चौकाने वाले थे. राष्ट्रीय समाचार चैनलों से सबसे ज्यादा समय खेल(क्रिकेट) पर खर्च किया. कुल समाचार समय में खेल पर १७.३७ प्रतिशत खर्च हुआ. उसमें बाद मनोरंजन पर १६.१५ प्रतिशत अपराध पर ११.८३ प्रतिशत राजनीति पर १०.०९ प्रतिशत समय समाचार चैनलों ने खर्च किया. पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि जैसे मुों में किसी पर भी कुल समय का एक प्रतिशत तक भी खर्च नहीं किया गया. गंभीर खबरों पर चटपटे समाचारों के भारी पडने पर एक पुरानी इतावली फिल्म बरबस याद आती है. जिसमें दिखाया गया था कि ईश्वर ने संत को कैमरा दिया और उसे शैतान ले भागा. ज्यादातर चैनलों व अखबारों की प्राथमिकता देखकर अब यह बिना किसी संकोच से कहा जा सकता है कि आज समाचार एक उत्पाद हैं. वर्तमान मीडिया समूह मूल्य, मानदंड और आदर्शों को टॉग कर अपने उपभोक्ता वर्ग को ध्यान में रख कर अपनी संपादकीय नीति तय कर रहे है. वर्तमान युग उदारीकरण का युग है, जिसमें पूंजी वर्चस्व के मोहन रूप के कारण जड और प्रतिगामी मूल्यों को वरीयता दी जा रही है पर अगर समाचार को अब उत्पाद बना दिया गया है तो यह शायद भविष्य में एक हथियार का रूप भी ले सकता है. एक ऐसा हथियार जिसका प्रयोग पाठक दर्शक जनहित में कर सकेंगे. दर्शकों पाठकों के सचेत ग्राहक बनते ही वो उत्पाद की गुणवत्ता के सवाल पर कंज्यूमर कोर्ट तक पहुंचेंगे और तब हर हाल में सिर्फ लाभ कमाने वाले मीडिया मालिक बगलें झांकने लगेंगे. वर्तमान स्थिति का सबसे बुरा प्रभाव ग्रामीण रिपोर्टिंग पर पडा है. जिस तरह भारतीय फिल्मों से गांव गायब हुआ, उसी तरह आज मीडिया से (खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ) गांव गायब है और इसमें आज भी दो मत नही है कि भारत आज भी गांवों का देश है. ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि मीडिया बहुसंख्यकों की अवाज है. बहुत हद तक भारत में जाति ही वर्ग है और वर्तमान में मीडिया में संपन्न वर्ग का वर्चस्व है. इस कारण समाचारों का भी खास वर्ग चरित्र है. उसमें गरीब, किसान, भूमिहीन बस सनसनी फैलाने भर के लिए रह गये है. लोकतंत्र में मीडिया जबरदस्त प्रहरी की भूमिका निभाता है. वह जनरूचि व लोककल्याणी मुद्दों से जुडी सूचनाओं को प्रकट करती है. मीडिया को वापस इसी भूमिका में आना होगा. तब वह हर आदमी का दोस्त, रहनुमा और आत्मीय बन पायेगा. जरूरत एक न्यूज चैनल और एक एनटरटेनमेंट चेैनल के बीच फर्क करने की है. अखबार में छपने वाली तसवीरों और चटपटे पत्रिकाओं में छपने वाली तसवीरों में अंतर तो होना चाहिए. आज जरूरत इस बात की है कि मीडिया को भी सही-गलत बताने वाला कोई हो, उसके काम में हस्तक्षेप करने वाला कोई हो. परंतु वर्तमान में अभि व्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता की दुहाई देकर मीडिया संस्थान आज अपने ऊपर किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को नकारते ही है. चाहे वो सरकारी हस्तक्षेप की बात हो या मीडिया परिषद बनाने का सुझाव. आज जरूरत मीडिया में भी आरक्षण की है क्योंकि आज यहां ऊंची जातियों का दबदबा है. इन सब उपायों से मीडिया के साख को बचाने की जरूरत है ताकि मीडिया रूपी आईना फिर से सच दिखाए. झूठ या अर्धसत्य नही. (प्रभात खबर के मीडिया बहस से साभार)

28 मई 2008

डुगडुगी बजा कर बंदर का तमाशा दिखाना नहीं है पत्रकारिता

राजेंद्र यादव
वरिष्ठ साहित्यकार

सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है और हम एक आभासी दुनिया में पहुंचा दिये गये हैं... अनायास ही इर्विन वैलेस का उपन्यास 'ऑल माइटी' याद आता है, जहां अपराध और राजनीति धडल्ले से एक-दूसरे की जगह ले रहे हैं. उपन्यास ऐसे मालिक संपादक की कहानी है, जो अपराधी दुनिया के संपर्कों के सहारे किसी भी बडे अपराध की कहानी सबसे पहले छाप कर सनसनी फैला देता है. उसके पत्र का सर्कुलेशन अंधाधुंध आसमान छूने लगता है, मगर पत्रकारिता की यह सत्ता भूख यहीं नहीं रूकती. अपराधों की रिपोर्टिंग उसे उस जगह ले आती है, जहां वह स्वयं अपराध कराता और फिर स्वयं सबसे प्रामाणिक सूचनाओं के आधार पर समाचार तैयार कर देता है. वह इन्वेस्टिगेटिव पत्रकारिता का बादशाह है.
हालिया दिनों के दंगे भडकाने से लेकर लगभग हत्याओं तक बीसियों उदाहरण हैं, जब किसी चैनल ने स्वयं अपराध की योजना बनायी है और उसके रोमांचक दृश्य दिखाये हैं. मानव जीवन के प्रति क्रूरता की अद्भुत प्रयोगशालाएं बना दिया गया है इन चैनलों को...
सीमाओं का उल्लंघन वहां होने लगता है, जब मीडिया अपराध की तफ्तीश ही नहीं करता, स्वयं मुकदमा चला कर सजाएं भी सुनाने लगता है. शायद यह सामाजिक जिम्मेदारियों या न्याय दिलाने के लिए किया जानेवाला अतिरिक्त एक्टिविज्म है. चूंकि हमारा मीडिया अभी अपनी पहचान बनाने की संक्रांति-काल से गुजर रहा है, इसलिए ऐसे सवालों पर बहसें निरंतर जारी है. जैसे किसी की निजी जिंदगी के साथ कितना खिलवाड किया जा सकता है. हरेक को टीआरपी चाहिए ताकि विज्ञापन बटोरने में वह नंबर वन बन सके...
अजीब तर्क है कि जनता यही चाहती है- यह तर्क हम फिल्मों में पिछले अनेक दशकों से सुन रहे हैं. यह सामाजिक जिम्मेदारी से हाथ झाडने का दर्शन है. कब दर्शकों ने शिष्टमंडल बना कर सिनेमाघरों या टीवी केंद्रों के सामने प्रदर्शन किये कि उन्हें ऐसे ही प्रोग्राम चाहिए...मगर फिल्मों और चैनलों में फर्क है... वहां वैकल्पिक फिल्में हैं, यहां चैनलों में अलग नामों के अलावा बहुत विकल्प नहीं है- १९-२० के साथ सभी एक जैसे हैं. जो हैं वे हिस्ट्री, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफी या बीबीसी जैसे विदेशी चैनल हैं.
टीआरपी की यह मारकाट अंगरेजी चैनलों में शायद इसलिए भी नहीं है कि वहां दर्शक करोडों में नहीं होते, इसलिए वहां अपनी विश्वसनीयता बनाने के लिए गंभीर और प्रामाणिक प्रोग्राम दिये जा सकते हैं.
'जनता जो चाहती है. हम वही दिखाते हैं.' चैनल हेड कहते हैं कि हमारा काम जनता की रूचि को भुनाना है, निर्माण करना नहीं. क्रियेट करना न हमारा लक्ष्य है, न हमें इसकी जरूरत है. उपभोक्ताओं को आप अपनी बिक्री के लिए तैयार करें, और बाकी प्रोग्रामों के लिए 'जनता यही मांगती है का तर्क देंङ्क्ष यह डुगडुगी बजा कर बंदर तमाशा दिखाने के बाद ताकत की गोलियां बेचने का हथकंडा नहीं है.
(साभार :- 'हंस-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विशेषांक' में प्रकाशित आलेख का संपादित अंश)

27 मई 2008

नैतिक पत्रकारिता ही पेशेवर और पेशेवर पत्रकारिता ही नैतिक

बर्नार्ड मारग्रेट
पत्रकारिता का मूलतः दो काम है. पहला लोकतंत्र के खंभे के रूप में काम करना और दूसरा लोगों को एक साथ लाने, समुदायों को एक करने में अहम भूमिका का निर्वाह करना. पत्रकारों का मूल काम तो फैक्ट प्रोवाइड करवाना है. क्या, कौन, कहां, कब, क्यों, कैसे, कितना... के फॉर्मेट में लेकिन यही काफी नहीं है. उस फैक्ट के पीछे के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों से भी लोगों को रू-ब-रू करवाना जरूरी है.
मीडिया की एक दूसरी अहम भूमिका दो भिन्न समुदाय, संस्कृति, धर्म और जीवनशैली वाले लोगों को भी एक-दूसरे से परिचित कराते हुए करीब लाने की सार्थक कोशिश करना है. यानी इन्फॉर्मेशन को इंटर-फॉर्मेशन और अंडरस्टैंडिंग को म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग में बदलना है. सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करना भी मीडिया का काम है.
मिशन से भटकने के कारण ही मीडिया व मीडियाकर्मियों की साख पर सवाल उठने शुरू हुए हैं. पश्चिमी यूरोप में विगत वर्ष एक सर्वेक्षण हुआ कि किस पेशे को लोग सम्मान की नजर से देखते हैं. इसमें मीडियाकर्मियों को मात्र १६-१७ प्रतिशत के बीच अंक मिले.
आज स्थिति क्या हैङ्क्ष मीडिया का दिन-ब-दिन विस्तार हो रहा है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तेजी से फैल रहा है, इंटरनेट पत्रकारिता का दायरा बढा लेकिन फिर भी हम जहां थे, वहीं पर खडे हैं. खबर तो आ रही हैं लेकिन क्याङ्क्ष यह देनेवालों को भी नहीं पता. समाचार अपील नहीं कर पा रहे. आज भी लोग वोट डालने नहीं जाते. लोकतंत्र की मजबूती के लिए आखिर क्या कर रही है मीडियाङ्क्ष
यह सच है कि मीडिया पर ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव पडा है. वैसे उद्योगपति, जिनका मीडिया से कोई लेना-देना नहीं था, वे आज मीडिया के कारोबारी हो गये हैं. अमेरिका ऑनलाइन आज नेटस्केप, टाइम, वार्नर ब्रदर्स व सीएनन को नियंत्रित करता है तो फोटोग्राफी के क्षेत्र में बिल गेट्स की एजेंसी 'कॉर्बिस' है. रूपर्ट मर्डोक आज कई ब्रिटिश व अमेरिकी अखबारों के शहंशाह बने हुए हैं. द टाइम्स, द सन, द न्यूयॉर्क पोस्ट, बी स्काई बी जैसे सैटेलाइट नेटवर्क एवं २० सेंचुरी फॉक्स नामक बडी फिल्म निर्माण कंपनी को संचालित कर रहे हैं. यूरोप में भी यह ट्रेंड बढ रहा है. फ्रांस के दो बडे मीडिया ग्रुप सेर्गे डेसॉल्ट और जीन लक लैगार्देर द्वारा नियंत्रित हो रहे हैं. ये दोनों हथियार निर्माण क्षेत्र के व्यापारी रहे हैं. इनके आने से मीडिया उद्योग का लक्ष्य-उद्देश्य तेजी से अधिक पैसा बनाना और अपना रेटिंग बनाये रखना है. इसके लिए सनसनी, पोर्नोग्राफी, हिंसा को ही मुख्य राह बनाना पडे, तो भी इनके लिए कोई मायने नहीं रखता.
सनसनी लिखना या दिखाना, तो किसी पत्रकार के लिए सबसे आसान होता है. गंभीर विषयों/मुद्दों पर लिखना या काम करना कठिन होता है, क्योंकि उसके लिए पहले होमवर्क, रिसर्च-वर्क करना पडता है. गंभीर विषयों को रोचक ढंग से लिखना तो सबसे कठिन काम होता है. हमें मूल वाक्य याद रखना होगा कि, सिर्फ पेशेवर पत्रकारिता ही नैतिक हो सकती है और नैतिक पत्रकारिता ही पेशेवर हो सकती है.
तो ऐसे में हमें क्या करना चाहिएङ्क्ष सबसे पहले तो यह याद रखना होगा कि हम कॉमोडिटी नहीं बेचते.
प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि बिजनेस को नुकसान पहुंचाये बिना कैसे बेहतरी से काम कर सकते हैं. अच्छी पत्रकारिता के लिए एक पत्रकार के दिल में लोग, समुदाय के लिए प्यार होना बेहद जरूरी है. खुद में बदलाव लाना होगा. यदि रास्ता नहीं निकाल पाते, विजन को विकसित नहीं कर पा रहे, तो फिर बैड गवर्नेंस पर बोलने का हमें अधिकार नहीं.
(फ्रांसीसी पत्रकार बर्नार्ड मारग्रेट इंटरनेशनल कम्युनिकेशंस फोरम के अध्यक्ष हैं. यह आलेख मीडिया, गवर्नेंस व सोसायटी विषयक एक व्याख्यान का संपादित अंश है.) अनुवाद : निराला

26 मई 2008

बिल्ली के गले में घंटी कैसे बांधे:-

मी्डिया बहस में नारायण दत्त जी के विचार, नरायण दत्त वरिष्ठ पत्रकार हैं
पत्रकार कितनी ही बार अपनी नैतिकता से गिर जाते हैं. यह बात १९२० वाले दशक में भी महसूस की जाने लगी थी. यह वह जमाना था, जिसे आज हम हिंदी की मिशनरी पत्रकारिता का स्वर्ण युग कहते हैं. जब गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबूराव विष्णु पराडकर, माखनलाल चतुर्वेदी, अंबिकाप्रसाद वाजपेयी, इंद्र वाचस्पति जैसे दिग्गज संपादक हिंदी पत्रकारिता की अगुवाई कर रहे थे.
हिंदी पत्रकारों को पेशेवराना तौर पर संगठित करने का प्रयत्न भी तभी आरंभ हुआ था. संपादक समिति के नाम से एक संगठन खडा करने की कोशिश की जा रही थी और पराडकरजी के मार्गदर्शन में बनारसीदास चतुर्वेदी इसके लिए आंदोलन कर रहे थे. उस समय पत्रकार शब्द चलन में नहीं आया था और जिन्हें आज हम पत्रकार कहते हैं, वे सब तक संपादक कहलाते थे.संपादक समिति क्या काम करे, कौन सी जिम्मेवारियां निभाये, इस संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री पराडकर ने १९२५ में हिंदी साहित्य सम्मेलन में वृंदावन अधिवेशन के अवसर पर आयोजित संपादक सम्मेलन अर्थात पत्रकार सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहा था- '' मैं चाहता हूं कि इंडियन मेडिकल कौंसिल के समान यह समिति संपादन-कला को उत्तेजन देने का प्रबंध करे. संपादकों के साधारण धर्मों का निर्धारण कर उनका पालन सबसे करावे, विरुद्धाचरण को दंड भी दे. वकील, डॉक्टर तथा सब पेशों के लोगों के आचरण का एक आदर्श होता है. क्या संपादक ही उच्छृंखल होकर संसार का अनिष्ट करते रहेंगेङ्क्ष हमें स्वयं ही मिल कर अपना आदर्श ठहराना होगा.''
श्री पराडकर ने जिसे संपादकों का साधारण धर्म कहा उसे हम आज के मुहावरे में पत्रकारों की आचार संहिता कहते हैं. इस प्रकार हम देखते हैं कि आज से ८० साल पहले ही यह बात अनुभव की जाने लगी थी कि पत्रकार विरादरी को मिल कर अपनी एक आचार-संहिता बनानी चाहिए, उसका उल्लंघन करने वाले को दंडित करना चाहिए और इस काम के लिए इंडियन मेडिकल कौंसिल जैसा एक स्वायत पेशेवराना संगठन होना चाहिए. मेडिकल कौंसिल की तरह बार कौंसिल का भी उदाहरण लिया जा सकता है. मेडिकल कौंसिल और बार कौंसिल अपने पेशे के सदस्यों को पेशेवराना आचार दोषों से मुक्त रखने और दोषी पाये जाने वाले सदस्यों को दंडित करने में कहां तक कृत्तकार्य हुए हैं, इस बारे में, मेरे खयाल से, बहस की गुंजाइश है. इन पेशों के सदस्यों के पेशेवराना आचरण पर उंगली न उठायी जा सके ऐसी स्थिति आज भी नहीं है.
इसलिए यह स्पष्ट है कि एक नया तंत्र खडा करना जरूरी है और यह तंत्र समूचे मीडिया का अपना स्थापित किया हुआ तंत्र होना चाहिए. उसकी बात मानना सबके लिए लाजमी होना चाहिए और जो न माने उसके लिए दंड की कारगर व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसे तंत्र की स्थापना करना और समूचे मीडिया से उसकी बात मनवाना आसान काम नहीं. इस जटिलता से पार पाने के लिए लीक से हट कर सोचना और नयी राह बनाने की हिम्मत दिखाना जरूरी है. इसलिए मेरी विनम्र राय में सवाल सिर्फ यह नहीं है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, उतना ही विकट सवाल यह भी है कि बिल्ली के गले में घंटी कैसे बंधेङ्क्ष मैथिलीशरण गुप्त के सीधे-सादे शब्दों में आप सबको मेरा निमंत्रण है,' आओ, विचारें आज मिल कर समस्यायें सभी.' सभी में मीडियाकर्मी ही नहीं, पाठक-दर्शक-श्रोता सब बराबरी के अधिकार और उत्तरदायित्व के साथ समाविष्ट हैं.
साभार : माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित 'आंचलिक पत्रकार' पत्रिका से.

25 मई 2008

मीडिया बहस की चौथी कडी़ में

अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार मीडिया:-
रेयाज-उल-हक
देश में पिछले दो दशकों के बीच प्रसार माध्यमों का जितना प्रसार हुआ है, वह वास्तव में चौंधिया देनेवाला है. यह प्रसार देश में विदेशी पूंजी के लिए रास्ते खोलने और देश की अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकृत होने के साथ साथ जुडा हुआ है. विदेशी उत्पादकों को बाजार चाहिए और उपभोक्ता सामग्री का बाजार-जीवनयापन के लिए जरूरी सामग्री से इतर उत्पादों का बाजार-तब बनता है, जब उसके बारे में लोगों को बताया जाये, उसके प्रति भरोसा जगाया जाये और उसकी लालसा पैदा की जाये. यह काम मास मीडिया करता है. ऐसा करने के लिए मीडिया को एक जनपक्षी चरित्र भी रखना पडता है, ताकि लोग उस पर भरोसा करें. लेकिन, काम वह अंततः बाजार के एक दस्ते का ही करता है. विज्ञापन के साथ-साथ प्रचार सामग्री आती है और छपती है. कुछ समय पहले अंगरेजी के एक बडे दैनिक ने तो बाजाप्ता यह घोषणा तक कर दी कि वह पैसे लेकर लोगों की खबरें छापेगा. तह में जाने, क्रॉस चेक करने और घटनाओं-प्रक्रियाओं के अंतर्संबंधों की अब कोई परवाह नहीं की जाती. खबरें प्लांट की जाती हैं. मीडिया को अनुकूलित करने पर सत्ता तंत्र का एक बडा हिस्सा काम करता है. देश का पूरा शासन तंत्र जिस नवउदारवाद के आगे दंडवत है, इस तंत्र के एक हिस्से के बतौर मीडिया भी इसमें शामिल है. अगर, कहीं कोई अपने सुर अलग रखना चाहे, तो सत्ता के पास उसके 'बेसुरेपन' को सुधारने के अनेक उपाय हैं. पत्रकार खरीद लिये जा सकते हैं. जो नहीं बिकते उन पर अनेक तरीकों से दबाव बनाया जाता है. हाल में पत्रकारों की गिरफ्तारियों के मामले बढे हैं. इफ्तिखार गिलानी, प्रशांत राही, लचित बोरदोलाई, गोविंदन कुट्टी, सरोज महांती और हाल में गिरफ्तार मिल्ली गजट के पत्रकार नदीम अहमद कुछ बडे नाम हैं. इनके अलावा अनेक और होंगे जो खबरों का हिस्सा नहीं बन पाये होंगे.
अखबारों पर विज्ञापनों के जरिये दबाव बनाया जाता है. कई जगह विज्ञापन अब एक अधिक केंद्रीकृत तंत्र द्वारा जारी किये जाने लगे हैं. ऐसे में अखबारों पर दबाव और बढा है. जो अखबार तिस पर भी अनुकूलित नहीं होते, उन पर मुकदमे दायर किये जाते हैं.
जैसा कि आम तौर पर होता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल खडा किया जाता है. लेकिन, सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उतना नहीं है. किसी भी समाज व्यवस्था और शासन व्यवस्था में कभी भी बिना शर्त और निरपेक्ष स्वतंत्रता नहीं रहती. वह शर्तों के अधीन ही होती है. शर्तें और स्वतंत्रता की सीमा शासक और सत्ता तंत्र तय करता है. सवाल यह है कि एक अंतर्विरोधी चरित्र के साथ मीडिया कैसे जीवित रह सकता है. वह जन पक्षधर दिखना चाहता है, लेकिन अपनी अंतर्वस्तु में वह ठीक इसके विपरीत है. सवाल इस अंतर्विरोध का है. अगर, आप जन पक्षधर दिखना चाहते हैं तो आपको वैसा होना होगा. आपकी विश्वसनीयता भी तभी बनी रह सकती है. इसका कोई विकल्प नहीं है.

खबर बनाम खबर : खबरों का वर्ग संघर्ष


मीडिया बहस की चौथी कडी़ में
रेयाज-उल-हक
खबरें एक दूसरे के मुकाबिल रख दी गयी हैं. और जैसा कि हमेशा होता है, उनमें से कुछ खबरें दूसरी खबरों पर शासन करती हैं. भूख से मौतों की खबरें पोलियोरोधी टीकाकरण अभियान की शुरुआत करते डीएम की खबर द्वारा शासित होती है. विस्थापन और व्यापक बेरोजगारी की खबरें भारी तकनीक आधारित (और उसी अनुपात में कम रोजगार पैदा करनेवाले) उद्योगों की स्थापना की खबरों के पीछे गुम कर दी जाती हैं. बागबानी और विकलांगों को साइकिल बांटने की खबरें जनता के व्यापकतम संघर्षों की खबरों की कीमत पर जगह पाती हैं.
अपनी सुविधा के लिए इसे खबरों का वर्ग संघर्ष कहा जा सकता है.
प्रायः अब किसी भी घटना के बारे में असली जानकारी मास मीडिया से नहीं मिलती. जो वहां पढाया-दिखाया जाता है, उससे घटना की बहुत सतही (और बहुत बार गलत भी) जानकारी मिलती है. जो लोग वास्तविकता का पता लगाना चाहते हैं, वे दूसरे तरीके इस्तेमाल करते हैं. फैक्ट फाइंडिंग टीमें और निजी ई-मेल इसका एक जरिया हैं. अभी ब्लॉगिंग भी एक विकल्प के रूप में सामने आया है. विदेशों में यह अधिक सशक्त रूप में स्थापित हुआ है.
इतनी अधिक खबरें रोज छपती हैं, लेकिन उनमें वास्तविक खबरें बहुत कम होती हैं. अधिकतर वे होती हैं जो विज्ञापन की संभावनाओं को ध्यान में रख कर बनायी गयी होती हैं. कहां से विज्ञापन मिल सकता है, यह ध्यान रखा जाता है. जिस खबर से विज्ञापन का घाटा होता है, वह नहीं छपती या कम से कम उस रूप में नहीं छपती.
इधर अखबारों को सुंदर बनाने का आग्रह चला है. इसका मतलब है ज्यादा और बडी तसवीरें हों, मैटर कम हो और पेज हल्का लगे. अब एक सुंदर अखबार में विस्थापितों, अकाल के मारे हुओं, भुखमरी के शिकार लोगों की विद्रूपता दिखाती तसवीरें तो बेजायका ही लगेंगी. अस्थि पंजर दिखाते शरीरों की सुबह-सुबह मौजूदगी चाय का स्वाद बिगाड सकती है. वे अखबार की सुंदरता भंग करेंगी. खबरें छोटी रहेंगी तो उनमें विश्लेषण की गुंजाइश नहीं रहेगी. केवल तथ्यों और आंकडों पर जोर रहेगा. इस तरह घटनाओं को उनकी प्रक्रियागत निरंतरता और संदर्भों से काट दिया जाता है. हर घटना सिर्फ एक घटना बन जाती है. कहने की जरूरत नहीं कि यह कितना खतरनाक है. यह वैसा ही है कि विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं के कारणों पर चर्चा न करके सिर्फ उनकी एक-एक आत्महत्या की खबर अलग-थलग रूप में छापते रहा जाये, मानो वे सारे के सारे मनोरोगी हो गये हों और अपनी जान देने पर तुल गये हों.
अखबारों में विचारहीनता का दुराग्रह बढा है. विचारों के लिए स्पेस कम हुआ है. यह अब सिर्फ संपादकीय पन्ने तक सिमट गया है (हां, कुछ में ऑप एड पेज भी आते हैं) और संपादकीय पन्ने पर भी कार्टूनों, अध्यात्म, चुटकुलों के लिए जगहें आरक्षित कर दी गयी हैं. इसके अलावा ये पन्ने खिसकते हुए काफी पीछे चले गये हैं.
यह अच्छी बात है कि अखबार देखने में सुंदर लगें, लेकिन अखबारों का मुख्य काम सुंदर लगना है या खबर देनाङ्क्ष अगर वे खबर ही नहीं देंगे तो फिर वे किस काम केङ्क्ष यही बात अन्य माध्यमों पर भी लागू होती है.
फूहडपन, सतहीपन और गैर जिम्मेवारी की आपाधापी है. इसमें जो लोग गंभीरता से और जनता के पक्ष में काम करना चाहते हैं, उनके लिए भी दिक्कतें हैं. उन्हें स्पेस नहीं मिलता. कहने के लिए तो सबके लिए मौका बराबर है, लेकिन प्रसार माध्यमों में बडी पूंजी का निरंतर बढता प्रभाव और मीडिया घरानों का बढता एकाधिकार इन दावों को निरर्थक बना रहा है. मल्टी एडिशन अखबार हालात को और बदतर बना रहे हैं. ये सब मिल कर छोटे और कम पूंजीवाले या फिर वैकल्पिक माध्यमों के हिस्से की भी सारी जगहें और मौके हथिया रहे हैं. आनेवाले दिनों में हालात और खराब ही होंगे.

24 मई 2008

शक्ल ठीक मतलब नहीं कि अक्ल बुरी:-

मीडिया बहस की तीसरी कड़ी में शजिया इल्मी के ये विचार प्रकाशित किये जा रहे हैं

जामिया मीलिया के मशहूर मास कम्युनिकेशन सेंटर से डिग्री लेने के बाद जब मैं इस मीडिया में आयी थी, तो पहला इंप्रेशन यही था कि इस मीडिया में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो लडकियों से करीब होने के लिए या उन्हें अपने करीब खींचने के लिए तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल करते हैं. कई लोग तो प्यार जताने से लेकर धौंस देने तक से बाज नहीं आते. उनकी मानसिकता और नजरें हमेशा गंदी होती हैं. ऐसे लोग किसी भी चैनल या अखबार में हो सकते हैं. या कहें, समाज के किसी भी हिस्से में हो सकते हैं.
अब, एक लंबे संघर्ष के बाद एंकर हू. ज्यादातर जगहों पर काम करने के कुछ ही दिनों बाद मेरी सोच मेरी तरक्की की आडे आयी और मेरी खुारी कई बार परेशानी का सबब बनी. एक महिला होने के नाते मुझे अपनी काबिलियत साबित करने के लिए ज्यादा मशक्कत करनी पडी.
मैं नाम नहीं ले सकती, लेकिन मुझे शुरुआती सालों में ही न्यूज इंडस्ट्री में बहुत से लोग ऐसे मिलें, जिनके इरादे ठीक नहीं थे. मैं आज अगर नाम ले लूं तो टीवी पर बडी-बडी बातें करनेवाले लोग भी ओछे और छोटे नजर आयेंगे.
कई बार मैं उन लडकियों को भी कसूरवार मानती हूं जो सफलता की सीढी चढने के लिए कुछ भी करने को तैयार होती हैं. एक बात तो तय है कि अगर कोई लडकी समझौते नहीं करना चाहती तो उसे कोई झुका नहीं सकता. उसकी तरक्की के रास्ते में रोडे जरूर अटका सकता है.
यह काफी हद तक सही है कि एक लडकी होने के नाते आपकी शक्ल ज्यादा मायने रखती है, बनिस्पत आपकी अक्ल के.
'ये ठीक-ठाक है टीवी पर अच्छी दिखेगी...' ट्रेनिज को रखने से पहले इंटरव्यू राउंड में यह ख्याल कई बार सीनियर्स के मन में आता होगा. कई बार मॉडल टाइप की लडकियां सिर्फ अपने लुक्स के आधार पर रख ली जाती होंगी. यह टीवी का सच है. कई बार लडकियां न्यूज रूम की शोभा बढाने के लिए एक शो पीस की तरह सजा दी जाती हैं.
सभी चैनलों में ऐसे कई सीनियर्स होते हैं जो संपादकीय कामों के लिए अपने पुरुष सहयोगियों से बात करेंगे, लेकिन काम-काज के बीच हल्की बातचीत या कहें चकल्लस के लिए, मन बहलाने के लिए इन कमसिन प्यारी लडकियों की तलाश करेंगे. कई लडकियों ने इसे भांप लिया है और इसका भरपूर इस्तेमाल भी करती हैं. करें भी क्यों ना. उनके अपने लटके-झटके, उनका इतराना और उनका तौर-तरीका, उनको आगे बढाने में इतने कारगर साबित होते हैं, जो जर्नलिज्म की अव्वल से अव्वल डिग्री भी नहीं हो सकती. कुछ लडकियों को लगता है कि पढने-लिखने, राजनीति या सामाजिक मुों की समझ बढाने से से कहीं आसान तरीका है, बॉस के इगो को सहलाना. लेकिन मेल इगो को खुश करना सब लडकियों की मंशा नहीं होती. बहुत सी लडकियां, जिनका सोचने का नजरिया स्वतंत्र है, मेल इगो को सहलाना तो दूर उनका चुनौती देना चाहती हैं. एक और बात, शक्ल ठीक-ठाक है, इसका मतलब यह नहीं कि अक्ल की कमी है या फिर खूबसूरत नहीं होने का मतलब नहीं कि अक्ल और समझ ज्यादा है. मैं समझती हूं कई चैनलों में न जाने कितनी ऐसी लडकियां होंगी जो उन चैनल के पुरुषों से कम प्रतिभाशाली नहीं होंगी लेकिन कई बार उन्हें मौका भी नहीं मिलता अपने को साबित करने का. पिं्रट में दर्जनों ऐसी महिला पत्रकार हैं जिनकी खबरों पर हंगामा मचता है. तो बात मौका देने की भी है. मेरी सहानुभूति उन लडकों से है जो सिर्फ इस वजह से बहुत आगे नहीं बढ पाये क्योंकि वे लडकी नहीं है.
(आलेख 'हंस' पत्रिका से साभार)

23 मई 2008

औरतें करती हैं मर्दों का शोषण

मीडिया बहस की दूसरी कडी़ में वर्तिका नंदा के बिचार, महिला पत्रकारों को लेकर क्या हैं हम प्रकाशित कर रहे हैं:-
मेरा मानना है कि जिंदगी रोडवेज की बस नहीं है, जिसमें सवार होते ही औरत अपनी सीट का हक जमाने लगे. जिंदगी संसद में ३३ प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा भी नहीं है. जहां उसे अपने तयशुदा विशिष्ट जगह की तलाश हो. जिंदगी और वह भी खासतौर पर मीडिया से जुडी जिंदगी तो शायद बराबरी का मामला है. हां, कभी-कभी औरत होने के कुछ विशेष अधिकार जरूर मांगे जा सकते हैं, लेकिन उन्हीं को रोटी का मूल अधिकार कतई नहीं बनाया जा सकता. जिस तरह खाना अकेले अचार या चटनी से रोज नहीं खाया जा सकता, उसी तरह से जिंदगी भी अकेले मांगों का बैनर लटकाये नहीं चलायी जा सकती. यहां दो शर्तें अहम हैं- एक, अंदर की औरत के साथ समझौता न हो और दूसरे, औरत होने के स्वभाव की मौलिक नरमाहट और उजास, पत्रकारिता में आने पर भी न सूखे.
टेलीविजन की दुनिया में दो खास किस्म की औरतों से वास्ता पडता है. एक, जो सिर्फ अपने अधिकारों के लिए जीतीं हैं, जो तरक्की के लिए यह भूल जाती हैं कि वे औरत हैं और औरत का जामा पहने, औरत होने के तमाम हथकंडे इस्तेमाल कर किसी मुकाम पर पहुंचना चाहती हैं. दूसरी वे जो इस अनूठी प्रजाति को करीब से देख कर भी खुद को समेटे रखती हैं. इनके लिए सफलता से ज्यादा इनका औरत होना और 'औरतपन' को बचाये रखना जरूरी होता है. इनके लिए सफलता की राह धूल भरी पगडंडियों से होकर गुजरती है.
दूसरी जमात में ऐसी बहुत-सी महिलाएं जेहन में आती हैं, जिन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया. अपनी शर्तें खुद तय कीं और अपनी लक्ष्मण रेखा भी खुद बनायीं और ऐसा करते हुए अपने अंदर की औरत को जिंदा भी रखा. इनके लिए रास्ता लंबा रहा लेकिन नतीजे सुखद रहे.
मैं मीडिया में महिला शोषण की बातें अ'सर सुनती रही हूं. हां मीडिया में कई बार महिलाओं का शोषण होता है लेकिन मौजूदा कहानी देखें तो औरत के हाथों मर्दों का शोषण कई गुना बढा है. कोई भी उन लडकों की बात नहीं करता जो पत्रकारिता संस्थानों से लेकर टीवी में एंकर की नौकरी तक में आम तौर पर इसलिए नकार दिये गये 'योंकि वे या तो आकर्षक नहीं होते या फिर उनके आकर्षण से किसी प्रबंधक या इनपुट एडिटर को सीधे फायदा नहीं होना होता. पहली श्रेणी में अ'सर वही महिलाएं जीतती दिखती हैं जो सिगरेट और जाम हाथ से इसलिए छोडना नहीं चाहतीं कि इनके बिना कहीं वे आउटडेटेड दिखने लगें, जिनके लिए किसी 'हद' की कोई 'हद' नहीं होती और न ही जिन्हें इस बात से कोई फर्क पडता है कि यह सब मीडिया को एक बिखरा कलेवर दे रहा है जो चमकदार तो है लेकिन बदबूदार भी.
लेकिन दो वाक्यों के बीच का आखिरी सच यही है कि बरसों बाद जब न्यूज मीडिया का इतिहास सुनहले पन्ने पर लिखा जायेगा तो उसमें वही नाम शामिल होंगे, जो बिना उलझे अपने रास्ते पर निशान छोड आगे बढते गये. मीडिया की भी यही जीत होगी और औरत की भी. .:-प्रभात खबर की बहस में लिया गया हंस से साभार का अंश

21 मई 2008

एक गैर क्रांतिकारी क्रांति पर बहस:-

पिछले दिनों प्रतिष्ठित पत्र प्रभात खबर में मीडिया को लेकर बह्स चली. सूचनाक्रांति की मौजूदा दिशा दशा क्या है.इस पर कई मीडिया विषेशग्यों ने अपनी राय दी. ऎसी स्थिति में जब की सूचना क्रांति को एक बडी क्रान्ति के रूप में देखा जा रहा है.सूचना क्रांति के उपरांत विश्व में ऎतिहासिक परिवर्तन की बात की जा रही है. भारतीय मीडिया कहाँ खडा है? सूचना के प्रवाह ने लोगों की मनोंदशा को ऎसा कर दिया है कि झूठ और सच का फर्क ही मिट गया है. अर्थात मानव जाति के वैग्यानिक ग्यान में विकास करने के बजाय इसमें एक अंतरविस्फ़ोट किया है जिससे बहुराष्टीय सत्ता तन्त्र को ताकत मिली है. मीडिया की इस बहस को लगातार हम जारी रखेंगे..

पहली कडी में:-
मीडियाकर्मियों को ही तय करना होगा मीडिया का भविष्य:-
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जीएन रे पिछले दिनों एक समारोह में भाग लेने फैजाबाद पहुंचे थे. कृष्ण प्रताप सिंह ने विभिन्न मुद्दे पर उनके विचार जानने की कोशिश की. यहां प्रस्तुत है संपादित अंशः

पत्रकारिता व्यवसाय नहीं
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं, एक मिशन है. संकट के दौर में है और ऐसे मोड पर खडी है, जहां से नई ऊंचाइयों की ओर भी जा सकती है और उस आत्मघाती रास्ते की ओर भी, जो उसके उद्देश्य को भी नष्ट कर दे.

बदलाव का औजार
मीडिया समाज को बदलने का शक्तिशाली औजार है. मगर कुछ ताकतें चाहती हैं कि वह समाज के बजाय उनके हित साधने में लगे. वे ताकतें मीडिया की भूमिका ही बदल देना चाहती हैं. हमारे देश में कई विकसित पश्चिमी देशों के मुकाबले प्रेस का बहुत तेजी से विस्तार हो रहा है. ऐसे में पत्रकारों पर यह सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी है कि विकास के सोपान तय करते हुए वे विरासत में मिले उन मूल्यों का संरक्षण करें, जिन्होंने हमारे देश को दुनिया में अनुपम स्थान दिलाया हुआ है. वे अपने दायित्व से हट जायेंगे, तो संकट और भी गहरा हो जायेगा. विकासशील विश्र्व में ' मीडिया साम्राज्यवाद' और सोच-विचारों, विचारधाराओं व संस्कृतियों के उपनिवेश और फैलेंगे.

आत्मनिरीक्षण की जरूरत
पत्रकारों में जनता के विचारों को नये सांचे में ढाल देने की शक्ति होती है. उन्हें मीडिया पर कब्जा कर उसका फोकस बाजार की ओर मोड देने की साम्राज्यवादी कोशिशों के विरुद्ध अपनी इस शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए.

समाचार व विचार अलग-अलग
अफसोस की बात है कि आज मीडिया की सोच में आजादी के पहले जितनी स्वच्छता नहीं है और उसकी एकाउंटेबिलिटी लगातार कम हो रही है. समाचार और विचार दो अलग-अलग चीजें हैं और उनके घालमेल से खबरों को प्रदूषित नहीं किया जाना चाहिए. दूसरी ओर टेलीविजन चैनल मनोरंजन के नाम पर भारत की संस्कृति को बिगाडने पर तुले हुए हैं. आज कई बार टीवी पर ऐसे कार्यक्रम आते हैं, जिसे घर के सारे सदस्य एक साथ बैठ कर देख नहीं सकते. म्यूजिक, डांस और टैलेंट हंट के नाम पर बच्चों को समय से पहले ही व्यस्क बनाने का खेल चलता है.

पत्रकारिता का भविष्य
पत्रकारिता का भविष्य बहुत हद तक इस पर निर्भर करेगा कि वह जिस मोड पर है, वहां से किस रास्ते जाने को तैयार है. भविष्य कोई ऐसी चीज नहीं, जो प्रतिक्षा करने से हाथ आ जाये. इसका निर्माण करना पडता है. पत्रकार पत्रकारिता का सुनहरा भविष्य चाहते हैं, तो उन्हें इनके लिए वर्तमान में स्वस्थ बीज बोने होंगे. सामाजिक दायित्वों के साथ विश्र्वसनीयता में वृद्धि के प्रयास, आंतरिक ओम्बुड्समैन की स्थापना, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में खबरों व सूचनाओं के बेहतर प्रवाह के लिए काम, देश के बहुभाषी-बहुक्षेत्रीय स्वरूप को देखते हुए छोटे व मंझोले समाचार पत्रों को प्रोत्साहन देना होगा.

संपादक की आजादी
गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में एक संपूर्ण अखबार की संकल्पना और उसका संचालन कोई आसान काम नहीं. इसलिए समाचार पत्र मालिकों के योगदान को भी स्वीकार किया जाना चाहिए. यह भी देखा जाना चाहिए कि उनके उपक्रम को अनावश्यक नुकसान न उठाना पडे, फिर भी वाणिज्यिक हितों को संपादकीय विचारों पर तरजीह नहीं दी जा सकती. संपादक की आजादी को सबसे ऊपर मानना ही होगा. जैसा कि दूसरे प्रेस आयोग ने भी कहा था कि एक पत्रकार की स्वतंत्रता किसी प्रेस की स्वतंत्रता का मूल है और यह बहुत हद तक संपादक पर निर्भर करता है.

मीडिया परिषद बने
चार दशक पहले भारतीय प्रेस परिषद का विधिवत गठन हुआ, तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अस्तित्व नहीं था और रेडियो सरकारी नियंत्रण में था. इसलिए टेलीविजन चैनल इस कार्यक्षेत्र में नहीं पडते. उन पर उसका अंकुश नहीं चलता. मेरे विचार से अब दोनों माध्यमों को एक साथ लाया जाना चाहिए और भारतीय मीडिया परिषद गठित की जानी चाहिए. मगर सरकार इससे सहमत नहीं है और न ही इसके लिए कानून में संशोधन के पक्ष में है. मैं किसी भी माध्यम पर सीधे नियंत्रण के पक्ष में नहीं हूं. प्री-सेंसरशिप भी नहीं होना चाहिए. परिषद को समाचार पत्रों को दंडित करनेवाला निकाय भी नहीं बनना चाहिए.

स्टिंग ऑपरेशन
मैं जनहित में स्टिंग ऑपरेशन जारी रखने के पक्ष में हूं. अलबत्ता इनका उद्देश्य जनहित के सिवाय कुछ और नहीं होना चाहिए. आम लोगों को भी मीडिया के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए.

20 मई 2008

नाटककार विजय तेंदुलकर का निधन:-

विजय तेंदुलकर जैसे लोग कभी मरते नहीं. समय की हलचल उन्हें जिन्दा रखती है. जब तक इस समाज में विजय के नाट्कॊं के पात्र व परिस्थिति जिन्दा हैं तब तक विजय तेन्दुलकर जिन्दा रहेंगे. विजय तेन्दुलकर को श्रद्धांजली:-<

मशहूर नाटककार और सिनेमा, टेलीविज़न की दुनिया के पटकथा लेखक विजय तेंदुलकर का सोमवार को निधन हो गया.अस्सी साल के तेंदुलकर पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. महाराष्ट्र के पुणे शहर के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम साँस ली.
'शांताता! कोर्ट चालू आहे', 'घासीराम कोतवाल' और 'सखाराम बाइंडर' उनके लिखे बहुचर्चित नाटक हैं.सत्तर के दशक में उनके कुछ नाटकों को विरोध भी झेलना पड़ा लेकिन वास्तविकता से जुड़े इन नाटकों का मंचन आज भी होना उनकी स्वीकार्यता का प्रमाण है.
पद्मभूषण से सम्मानित तेंदुलकर को श्याम बेनेगल की फ़िल्म 'मंथन' की पटकथा के लिए वर्ष 1977 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.उनकी लिखी पटकथा वाली कई कलात्मक फ़िल्मों ने समीक्षकों पर गहरी छाप छोड़ी.
इन फ़िल्मों में 'अर्द्धसत्य', 'निशांत', 'आक्रोश' शामिल हैं. बचपन से ही रंगमंच से जुड़े रहे तेंदुलकर को मराठी और हिंदी में अपने लेखन के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार जैसे सम्मान भी मिले. हिंसा के अलावा सेक्स, मौत और सामाजिक प्रक्रियाओं पर उन्होंने लिखा. उन्होंने भ्रष्टाचार, महिलाओं और ग़रीबी पर भी जमकर लिखा.

छह साल की उम्र में कहानी
महाराष्ट्र के कोल्हापुर में 6 जनवरी, 1928 को पैदा हुए विजय ढोंडोपंत तेंदुलकर ने महज़ छह साल की उम्र में अपनी पहली कहानी लिखी थी. उनके पिता नौकरी के साथ ही प्रकाशन का भी छोटा-मोटा व्यवसाय करते थे इसलिए पढ़ने-लिखने का माहौल उन्हें घर में ही मिल गया.पश्चिमी नाटकों को देखते हुए बड़े हुए विजय ने मात्र 11 साल की उम्र में पहला नाटक लिखा, उसमें काम किया और उसे निर्देशित भी किया.

उन्हें मानव स्वभाव की गहरी समझ थी. .
शुरुआती दिनों में विजय ने अख़बारों में काम किया था. बाद में भी वे अख़बारों के लिए लिखते रहे.कहा जाता है कि उनके बहुचर्चित नाटक 'घासीराम कोतवाल' का छह हज़ार से ज़्यादा बार मंचन हो चुका है.इतनी बड़ी संख्या में किसी और भारतीय नाटक का अभी तक मंचन नहीं हो सका है.उनके लिखे कई नाटकों का अंग्रेज़ी समेत दूसरी भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुआ है.पांच दशक से ज़्यादा समय तक सक्रिय रहे तेंदुलकर ने रंमगंच और फ़िल्मों के लिए लिखने के अलावा कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे.उनकी बेटी प्रिया तेंदुलकर टीवी धारावाहिक 'रजनी' में अपनी भूमिका के बाद टेलीविज़न की पहली स्टार कही जाने लगीं थीं.प्रिया का वर्ष 2002 में 42 वर्ष की आयु में निधन हो गया था.-बी.बी.सी.

13 मई 2008

बिनायक सेन की रिहाई की एक और अपील:-

बिनायक सेन को गिरफ़्तार हुए आज एक वर्ष हो रहे हैं! इन एक वर्षों में विनायक की रिहाई के लिये दुनिया भर से कितनी अपीलें की गयी, कितने प्रदर्शन हुए, पर छत्तीसगढ की आदिवासी जनता से लेकर दुनिया के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों की आवाज सरकार के कानों तक नहीं पहुँची? या फिर इन लोगों की आवाजों के कोई मायने नहीं है! चाहे वो नोम्चोमस्की हों या अरूंधती राय इस बीच छत्तीसगढ के हालात बद से बद्तर हुए हैं! दमन और बढा है! यहाँ तक कि विनायक की गिरफ़्तारी, जो कि एक शिलसिले की शुरूआत थी आज भी जारी है :-
दुनिया भर से 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पत्र लिख कर पिछले लगभग एक साल से छत्तीसगढ़ की जेलों में क़ैद मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन की रिहाई की अपील की है.उनका कहना है कि डॉक्टर बिनायक सेन को इस महीने 29 मई को अमरीका जा कर जॉनाथन मैन सम्मान लेने की इजाज़त दी जाए. उल्लेखनीय है कि बिनायक को यह सम्मान स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए दिया गया है.मई 2007 में अपनी गिरफ़्तारी के बाद से अब तक बिनायक सेन जेल में हैं.छत्तीसगढ़ पुलिस के मुताबिक विनायक सेन पर कथित रूप से नक्सलियों के साथ साठ-गांठ करने और उनके सहायक के रूप में काम करने का आरोप है. हालांकि बिनायक सेन पुलिस के इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हुए इन्हें निराधार बताते रहे हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ता लगातार उनकी रिहाई की मांग करते रहे हैं. नोबल पुरस्कार विजेताओं ने अपने पत्र में लिखा है, "हम गंभीर दुख व्यक्त करते हुए कहना चाहते हैं कि शांतिपूर्ण ढंग से महज़ अपने मुलभूत मानवीय अधिकारों का इस्तेमाल करने की वजह से ही उन्हें जेल में रखा गया है."

प्रदर्शन की योजना
उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि विनायक सेन की गिरफ़्तारी जिन आंतरिक सुरक्षा क़ानूनों का हवाला देकर की गई है वह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं. राज्य पुलिस ने उनकी गिरफ़्तारी छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून के तहत की थी. विनायक सेन की रिहाई के लिए चल रही मुहिम के तहत 14 मई को गिरफ़्तारी के विरोध में दुनिया भर में प्रदर्शन की योजना है.ग़ौरतलब है कि 14 मई को विनायक सेन की गिरफ़्तारी को एक वर्ष पूरे हो जाएँगे.
साभार बी.बी.सी.

धर्म परिवर्तनः एक राजनैतिक हथियार


राम पुनियानी
इन दिनों ईसाई मिश्नरियों द्वारा कराए जा रहे तथाकथित धर्मपरिवर्तनों की चर्चा देशभर के मीडिया में हो रही है. ऐसा कहा जा रहा है कि आदिवासियों द्वारा एक ''विदेशी धर्म'' को अपनाए जाने से हिंदू राष्ट्र को खतरा है. इस आधारहीन आशंका की सामाजिक स्वीकार्यता में भारी वृध्दि हुई है. महाराष्ट्र के अलीबाग में मार्च महीने में ननों पर हमला और गत 27 अप्रैल को मुबई में बडे पैमाने पर हुआ शुध्दि यज्ञ भी धर्मपरिवर्तन की राजनीति का हिस्सा है. शुध्दि यज्ञ में बड़ी संख्या में ईसाई आदिवासियों को हिंदू बनाया गया. ननो पर हमले और शुध्दि यज्ञ के पीछे एक ही व्यक्ति था. ननों पर हमले के लिए रामानंदाचार्य पीठ के सद्गुरू नरेन्द्र महाराज के शिष्य जिम्मेदार थे और शुध्दि यज्ञ का नेतृत्व स्वयं नरेन्द्र महाराज ने किया. इस अवसर पर बोलते हुए नरेन्द्र महाराज ने कहा कि ईसाई मिश्नरियों की गतिविधियों के कारण हिंदू अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनने की ओर बढ़ रहे हैं. उन्होंने केन्द्र सरकार की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की कि उसने धर्मपरिवर्तन पर रोक लगाने वाला कानून अब तक नहीं बनाया है और महाराष्ट्र सरकार के अंधविश्वास- विरोधी कानून की निंदा की. उनके अनुसार ये दोनों ही कदम हिंदू विरोधी हैं. जहां ईसाई मिश्नरियों को धर्म परिवर्तन के लिए कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, वहीं संघ परिवार की संस्थाओं द्वारा कराए जा रहे धर्म परिवर्तन को घर वापसी का नाम दे दिया गया है.
नरेन्द्र महाराज का यह दावा कि हिंदू इस देश में अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं, हास्यास्पद और तथ्यहीन है. सच यह है कि भारत की कुल जनसंख्या में हिंदुओं का प्रतिशत लगभग स्थिर बना हुआ है. कई राज्यों में जो धर्मपरिवर्तन-विरोधी विधेयक पास किए गए हैं, वे हमारे संविधान की अनेक धाराओं के खिलाफ हैं. हमारा संविधान तार्किक सोच को प्रोत्साहन देने की बात करता है और इस सिलसिले में महाराष्ट्र सरकार द्वारा पारित अंधविश्वास-विरोधी विधेयक एक प्रशंसनीय कदम है.
इस विधेयक का विरोध करने वाले शायद यह चाहते हैं कि समाज में अंधविश्वास बने रहें और उनका सामाजिक और राजनैतिक वर्चस्व कायम रहे. गुरूजी ने यह बात स्पष्ट शब्दों में कही. इन्हीं गुरूजी के समर्थक हिंसा करने से नहीं चूकते. अलीबाग में ननों पर हमला उस दौरान किया गया जब एड्स पर एक लेक्चर सुनने के लिए लोग इकट्ठा थे.
आदिवासी इलाकों में ईसाईयों पर हमले की घटनाओं में वृध्दि का कारण समझना मुश्किल नहीं है. पिछले साल क्रिसमस के आसपास उड़ीसा के कंधारमल और फूलबनी जिलों में व्यापक हिंसा हुई थी. गुजरात के डांग, मध्यप्रदेश के झाबुआ और उड़ीसा के अनेक जिलों सहित आदिवासी इलाकों में हिंसा का एक अंतहीन सिलसिला चल रहा है. ये वे इलाके हैं जहां आदिवासियों के ''हिंदूकरण'' का अभियान भी चलाया जा रहे हैं. यहां यह स्पष्ट कर देना उपयोगी होगा कि आदिवासी मूलत: प्रकृति-पूजक हैं. वे न तो ईसाई हैं और न ही हिंदू.
कुछ आदिवासी समय-समय पर ईसाई धर्म को अपनाते रहे हैं परंतु यह कोई नई बात नहीं है. आदिवासियों का ईसाई धर्म से परिचय सदियो पुराना है. पिछले कुछ दशकों में भारत की ईसाई आबादी में हल्की गिरावट दर्ज की गई है. सन् 1971 में ईसाईयों का आबादी में प्रतिशत 2.60 था जो 1981 में घटकर 2.44 प्रतिशत और 1991 में 2.34 प्रतिशत रह गया. सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में ईसाई, आबादी का 2.30 प्रतिशत हैं. यह भी सच है कि कुछ ईशाई मिश्नरियां धर्मपरिवर्तन कराने में विश्वास करती हैं और उन्होंने आदिवासियों का धर्मपरिवर्तन कराया भी है. आदिवासी इलाकों में आर.एस.एस. की घुसपैठ लगभग दो दशक पहले शुरू हुई जब वनवासी कल्याण आश्रम ने इन इलाकों में अपनी गतिविधियां चलाना शुरू कीं. इन इलाकों में ईसाईयों और ईसाई धर्म के खिलाफ जहरीला प्रचार किया गया जिससे हिंसा भड़की. चूंकि ये घटनाएं दूरदराज के इलाकों में होती हैं इसलिए अपराधी अक्सर बच निकलते हैं. सांप्रदायिक हो चुका शासकीय तंत्र भी इस मामलें में कुछ खास नहीं करता. आदिवासी इलाके में आर.एस.एस. से सीधे या अपरोक्ष रूप से जुडे धर्मगुरू अपने आश्रम स्थापित कर रहे है और अपनी गतिविधियां बढ़ा रहे हैं. डांग क्षेत्र में असीमानंद, उडीसा में लखानंद, झाबुआ में आसाराम बापू और महाराष्ट्र में नरेन्द्र महाराज इनमें प्रमुख हैं.
ईसाई मिशनरियों को आतंकित करने के अलावा आदिवासियों को सांस्कृतिक रूप से हिंदू बनाने की कोशिशें भी जारी हैं. इसके लिए हिंदू संगम और शबरी कुंभ आयोजित किए जाते हैं. दिलीप सिंह जूदेव मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में लंबे समय से आदिवासियों को हिंदू बनाने के अभियान में लगे हुए हैं. इस अभियान को घरवापसी और शुध्दिकरण कहा जाता है. स्पष्ट है कि आदिवासियों को हिंदू मानकर चला जा रहा है. यह इस तथ्य के बावजूद की आदिवासी प्रकृति-पूजक हैं और हिंदू धर्म, इस्लाम या ईसाई धर्म से उनका कोई वास्ता नहीं है.
आदिवासी इस देश के सबसे वंचित समूहों में से एक हैं और उनका लंबे समय से राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए शोषण किया जाता रहा है. सन् 1920 के दशक की शुरूआत में ''तन्जीम'' (मुस्लिम सांप्रदायिक) अभियान के प्रतिउत्तर में ''शुध्दि'' (हिंदू सांप्रदायिक) अभियान चलाया गया था. अब शुध्दि अभियान एक बार फिर लौट आया है. इस अभियान को घरवापसी का नाम देने के पीछे की मंशा स्पष्ट है. जहां ईसाई मिश्नरियों को धर्मपरिवर्तन के लिए कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, वहीं संघ परिवार की संस्थाओं द्वारा कराए जा रहे धर्मपरिवर्तन को घरवापसी का नाम दे दिया गया है. प्रचार यह किया जाता है कि आदिवासी वे हिन्दू हैं जो मुस्लिम राजाओं द्वारा जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाने के डर से जंगलों में भाग गए थे. कई सदियों तक जंगलों में रहने के कारण उनका हिंदू सामाजिक मुख्यधारा से संपर्क कट गया.
इस मिथक को फैलाए जाने के दो फायदे हैं. पहला तो यह कि इससे इस गलतफहमी को बढ़ावा मिलता है कि इस्लाम को तलवार की नोंक पर फैलाया गया था. दूसरे, इससे आदिवासियों का यह दावा गलत सिध्द होता है कि वे इस देश के मूल निवासी हैं. इस प्रकार भारत के हिंदू राष्ट्र होने की परिकल्पना को मजबूती मिलती है क्योंकि उसके मूल रहवासी भी हिंदू हैं.
सांप्रदायिक ताकतें यह अच्छी तरह से जानती हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए चुनावों में सफलता जरूरी है. इसके लिए आदिवासियों का हिंदूकरण करना फायदेमंद है. आदिवासी देश की आबादी का लगभग 8 प्रतिशत हैं और अगर दक्षिणपंथी राजनैतिक दलों को उनका समर्थन मिल जाता है तो इन दलों के जनाधार में भारी वृध्दि होगी. दूसरा फायदा यह है कि आदिवासियों का हिंदूकरण करने के बाद उनका उपयोग हिंदू राष्ट्र के अन्य शत्रुओं, जैसे मुसलमानों के खिलाफ भी किया जा सकता है. गुजरात में हमने देखा था कि किस तरह आदिवासियों का उपयोग हिंदू राष्ट्र के सैनिकों की तरह किया गया था.
चाहे वह रामकृष्ण मिशन हो या ईसाई मिशनरियां- शांतिपूर्वक आदिवासी क्षेत्रों में इनके काम करने से किसी को कोई परेशानी नहीं है. परंतु धर्म के नाम पर अंधविश्वास और दूसरे धर्मो के प्रति घृणा फैलाना निश्चित रूप से राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए बड़ा खतरा है. sabhar ravivar.com

08 मई 2008

हम सब माओवादी हैं!

पहले वे यहूदियों के लिये आये
और मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था

फिर वे कम्युनिस्टों को लेने आये
और मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै कम्युनिस्ट नहीं था

फिर वे ट्रेड युनियनों के लिये आये
और मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै ट्रेड युनियन मे नहीं था

फ़िर वे मेरे लिये आये
और कोई नहीं था
जो मेरे लिये बोलता


हिट्लर द्वारा प्रताणित एक जर्मन कवि पास्टर निमोलर की कविता. देश में जो स्थितियाँ बन रही हैं इनको देखकर ऎसा लगता है कि या तो हर पत्रकार सरकार कि जुबान बोलेगा या फ़िर प्रशान्त राही बनेगा,हर समाजिक कार्यकर्ता या फ़िर एन.जी ओ. से पैसे खायेगा या फ़िर बिनायक सेन बनेगा, फ़िल्म मेकर अजय टी. जी. को छत्तीसगढ की जेल में जाना होगा क्योंकि कैमरे में कैद छ्त्तीसगढ, रिसालों में छ्पे रमन सिंह के इस्तिहार से मेल नहीं खाता. हाल में छ्त्तीस गढ गया था जहाँ पर बिनायक सेन की रिहाई को लेकर गाँव-गाँव से ढेर सारे आदिवासी आये थे. पुलिस और खुफ़िया तंत्रों के बीच ये गाँव के लोग चिल्ला रहे थे कि यदि बिनायक सेन माओवादी हैं तो हम सब माओवादी हैं. ये वे लोग थे जिनका विनायक सेन मुफ़्त में गाँव जा जा कर चिकित्सा किया करते थे. इनका यह भी कहना था कि यदि बिनायक जैसे नेक इंसान माओवादी है तो मै दुआ करती हूँ कि देश का हर इंसान माओवादी बने। यहाँ हम दि सन्डे पोस्ट से साभार चारू तिवारी की यह रिपोर्ट प्रकाशित कर रहे है. खासतौर से उत्तरा खन्ड की स्थितियों पर कई पहलुओं को उजागर करती है.

उत्तराखण्ड की तराई में माओवादियों के नाम पर बेकसूर लोगों का उत्पीड़न जारी है। पिछले दिनों वरिष्ठ पत्र्कार प्रशांत राही की गिरफ्तारी ने पुलिसिया कहानी पर सवाल खड़े कर दिए हैं। जहां पुलिस ने उन्हें माओवादी संगठन का कमाण्डर घोषित कर दिया, वहीं मानवाधिकार और पत्र्कार संगठन इसे गलत बता रहे हैं। इससे पहले भी पुलिस पिछले पांच सालों में इस तरह की गिरफ्तारियां कर चुकी है। लेकिन अभी तक वह किसी को भी माओवादी साबित नहीं कर पाई है।
उत्तराखण्ड की तराई में माओवाद के नाम पर पुलिसिया दमन कोई नई बात नहीं है। कानून-व्यवस्था बनाने में जब भी सरकार नाकाम रहती है वह लोगों का ध्यान हटाने के लिए इस तरह के ऑपरेशन्स को अंजाम दे देती है। पिछले दिनों वरिष्ठ पत्र्कार प्रशान्त राही की गिरफ्तारी को पुलिस ने जिस तरह पेश किया है उससे यह बहस तेज हो गई है कि तराई में फैल रहे माओवाद के नाम पर पुलिस किसी को भी गिरफ्तार कर उसे कानून- व्यवस्था के लिए खतरा बता देती है। पिछले साल नीलकांत,जीवन चन्द्र, अनिल चौड़ाकोटी और प्रताप सिंह पर रासुका लगाकर न केवल उन्हें माओवादी घोषित करने की कोशिश हुई, बल्कि रुद्रपुर के युवा पत्र्कार रूपेश कुमार को भी पुलिस पकड़ ले गई। इनका माओवाद से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। ताजा घटनाक्रम के बाद जन सरोकारों से जुड़े आंदोलनकारी और मानवाधिकार संगठन तराई में पुलिसिया दमन के खिलाफ लामबंद हो गए हैं।
गौरतलब है कि पिछले दिनों पुलिस ने प्रशांत राही को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का जोनल सेक्रेटरी होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया। पुलिस की कहानी के अनुसार वह तराई में लोगों को सशस्त्र आंदोलन के लिए तैयार कर रहे थे। उनसे जिस लैपटॉप, पैन ड्राइव,सीडी और माओवादी साहित्य की बरामदगी दिखाई गई है उसमें हरिद्वार जेल को उड़ाने जैसी साजिशों की आशंका बताई गई है। पुलिस की यह कहानी किसी के गले नहीं उतर रही है। यह इसलिए भी कि सूत्रों के अनुसार राही को पुलिस ने देहरादून-ऋषिकेश रोड से 17 दिसंबर को उठाया था और 21 दिसंबर को नानकमत्ता के पास हसनपुर खत्ता के जंगलों से गिरफ्तार दिखाया गया।

असल में तराई में जमीन और उद्योगों से पनप रहे जन असंतोष को रोकने में नाकाम रही सरकार ऐसे बहाने ढूंढ़कर उसे यहां भारी खतरे के रूप में पेश करती रही है। जहां तक प्रशांत राही का सवाल है वह पिछले सत्र्ह साल से स्थानीय जनता के संघषोर्ं में साथ रहे हैं। उन्होंने हिमाचल टाइम्स से अपना पत्र्कारिता जीवन शुरू किया। वह अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन में संवाददाता भी रहे। इस दौरान वह जनता के सवालों को प्रमुखता से उठाते रहे। इस तरह के कई अन्य लोग भी हैं जो लंबे समय से तराई के भूमिहीनों और सरकार की नाकामियों से उपजी समस्याओं के खिलाफ अपने स्वर मुखर कर रहे हैं। पत्र्कारिता जगत से जुड़े बहुत सारे लोग समय पर इन बातों को उठाते रहे हैं। लेकिन इन्हें सरकारी दमन से माओवादी कहकर प्रताड़ित करना किसी के समझ में नहीं आ रहा है। माओवाद के नाम पर बार-बार गढ़ी जा रही पुलिसिया कहानी के खिलाफ अब विभिन्न मानवाधिकार संगठन, पत्र्कार संगठन, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया लामबंद होने लगे हैं। यह गोलबंदी इसलिए भी है कि पिछले एक साल में जहां भी सरकार जनप्रतिरोध को रोकने में नाकाम रही है वहां उसने जनसरोकारों से जुड़े लोगों को निशाना बनाया। छत्तीसगढ़ में पीयूसीएल के अध्यक्ष तथा सामाजिक कार्यकर्ता डॉ विनायक सेन और केरल एवं आंधर प्रदेश में भी उन पत्र्कारों पर पुलिसिया दमन हुआ जो जनता की आवाज के साथ खड़े रहे।

उत्तराखण्ड की तराई में माओवाद के बढ़ते प्रभाव और उसे रोकने के लिए सरकार क्या सोचती या करती है वह उसकी नीति का हिस्सा हो सकता है। सरकार पिछले दस सालों से विशेषकर जब से नेपाल में व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई और माओवादियों का जनयुद्ध शुरू हुआ, इस क्षेत्र् को संवेदनशील मानती रही है। वह नए फोर्स और नई रणनीतियां बनाती रही। लेकिन अभी तक वह माओवादी संगठनों की कथित गतिविधयों को न तो उजागर कर पाई और न ही उन पर कोई प्रभावी कदम उठा पाई है। यह अलग बात है कि माओवादी उन्मूलन के नाम पर वह जीवन चन्द्र, अनिल चौड़ाकोटी और नीलकांत जैसे लोगों को ही गिरफ्तार कर पाई। इन्हें राज्य सरकार ने खूंखार माओवादी घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

नवंबर 2005 को इन लोगों को पुलिस ने अलग-अलग जगह से गिरफ्तार कर बैक डेट में इनकी गिरफ्तारी दिखाई। इन्हें पुलिस रिमांड पर लेकर यातनाएं दी और 28 नवंबर को इन पर रासुका लगा दी गई। प्रशासन ने न्यायालय में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि 41 वर्षीय नीलकांत के पास माओवादी डायरी मिली जबकि हकीकत यह थी कि वह निरक्षर मजदूर था। यही वाकया 26 वर्षीय अनिल चौड़ाकोटी के साथ हुआ। उसे अल्मोड़ा जनपद के शहर फाटक के पास एक मचान जलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया।

अल्मोड़ा निवासी जीवन चन्द्र के साथ भी सही हुआ। वह पूर्व छात्र् नेता और मजदूर- किसान संघर्ष समिति का सदस्य था, जो अपने संगठन की बैठकों में भाग लेने तराई में जाता था। इसी दौरान रुद्रपुर में उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पहले 2004 में भी इस तरह की गिरफ्तारियां हुइरं। लेकिन पुलिस इनमें से किसी को भी माओवादी साबित नहीं कर पाई। द्वाराहाट के छत्तगुला गांव निवासी बीकॉम के छात्र् ईश्वर को माओवादी बताकर हल्द्वानी में त्रिलोकनगर से उसके कमरे से पकड़ा गया। उसकी गिरफ्तारी नानकमत्ता डेम से दिखाई गई। चंपावत निवासी 16 वर्षीय हरीश राम के अलावा कल्याण राम, हयात राम, ललित जैसे अनेक गरीब गांववासी हैं जिन्हें पुलिस उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। इतना ही नहीं पुलिस ने अल्मोड़ा जिले से जलना गांव निवासी हरेन्द्र को भी माओवादी के नाम पर उठा लिया। बाद में पता चला कि वह भाजपा कार्यकर्ता है।

प्रसंगवश तराई में माओवाद या असंतोष की पड़ताल के लिए यहां के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को समझना जरूरी है। तराई के मूल निवासी बोक्सा और थारू जनजाति के लोग थे। पहाड़ के भूमिहीनों का यहां से गहरा रिश्ता रहा। साठ के दशक में भूमिहीनों की समस्या तेजी के साथ उठने लगी। इसमें वामपंथी संगठन सकिय हुए। उस समय भारत-चीन युद्ध के बीच सरकार अपनी असफलता से कुण्ठित थी। जमीन पर अधिकार के लिए तराई में आंदोलन तेज हो गया। सरकार ने पहाड़ और तराई में इस तरह की बात करने वाले लोगों को चीन परस्त बताकर गिरफ्तार करना शुरू किया। इसमें गढ़वाल में जहां विद्या सागर नौटियाल जैसे लोग भूमिगत हुए, वहीं प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती को गिरफ्तार किया गया।

तराई का मौजूदा परिदृश्य साठ से अस्सी तक के दशक के जनांदोलनों से अलग नहीं है। 1969 में समाजवादी विचारधशरा के संगठनों ने यहां के जमीन और आम लोगों के अधिकारों की बात को ताकत के साथ उठाया। 1972 में सीलिंग एक्ट आने से यहां के भूमिहीनों पर कब्जा जमाए पूंजीपतियों में बौखलाहट शुरू हुई। अस्सी का पूरा दशक यहां के भूमिहीनों की लड़ाई में गुजर गया। 1989 में कोटखर्रा, पंतनगर, महतोषमोड़ के अलावा पूरी तराई आंदोलित हो उठी।

तराई में राज्य बनने के बाद इसे जिस तरह औद्योगिक मॉडल के रूप में विकसित करने की बात कही गई वह यहां के लोगों को चिढ़ाने वाली रही है। रुद्रपुर, खटीमा, काशीपुर और पंतनगर में उद्योगों के नाम पर पूंजीपतियों के हवाले हुई जमीन के कारण लोगों के लिए नई मुसीबत खड़ी हुई है। सिब्सडी के लिए मात्र् पैकिंग उद्योग के रूप में इंडस्ट्री विकसित हुई। इससे स्थानीय लोग रोजगार से भी वंचित रह गए। रुद्रपुर, हल्द्वानी जैसे शहरों में आ रहे बड़े-बड़े बिल्डर जहां नए शहरों का निर्माण करने में लगे हैं, वहीं भूमिहीन यहां एक रोटी के लिए तरस गए हैं। तराई ही नहीं पहाड़ में सारी जमीनें पर्यटन विकास के नाम पर पूंजीपतियों के हाथों बेची जा चुकी हैं। मजखाली, लमगड़ा, रामगढ़, भीमताल के अलावा भू-माफिया गांव तक पहुंच गए। जब भी लोग अपने हकों के लिए आवाज उठाते हैं उन्हें राज्य की कानून-व्यवस्था के लिए खतरा बता दिया जाता है।

पिछले दिनों राज्य के मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने केन्द्र सरकार से कानून- व्यवस्था दूरुस्त करने के लिए 208 करोड़ रुपए की मांग की है। इसमें कहा गया है कि माओवादी यहां के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। इससे पहले कांग्रेस के शासनकाल में 90 करोड़ रुपया इसी बात पर खर्च किया गया। यहां गठित की गई स्पेशल टास्क फोर्स को 30 प्रतिशत अधिक वेतन दिया गया। इन भारी आर्थिक पैकेजों की बात इसलिए कही जाती है ताकि इस बहाने वह भारी बजट हड़प सकें। पिछले साल सरकार की योजनामद में राज्य की योजना राशि चार हजार करोड़ थी। सरकार विकास का चेहरा नहीं बदल पाई। अब उत्तराखण्ड भी धीरे-धीरे सरकार की नाकामी से उन क्षेत्रों की तरह असंतोष की ओर बढ़ रहा है जहां नक्सली या माओवादी सकिय हैं। छत्तीसगढ़ में जनता को नक्सलियों के सामने करने के लिए सरकार को सलवा जुडूम जैसी योजनाएं चलानी पड़ीं जो जनविरोध से ही शुरू होती हैं।
उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित सोनभद्र, मिर्जापुर और भदोही में सरकार 15 सौ करोड़ रुपये खर्च कर उन पर काबू पाने की कोशिश कर रही है। अच्छा हो सरकार अब अंधेरे में हाथ-पांव मारने के बजाए तराई की समस्या को समझे।

07 मई 2008

क्या मार्क्सवाद धर्म है?

बीसवी शदी में दुनिया में जितने भी महान दार्शनिक हुए सभी को मर्क्स्वाद ने प्रभावित किया:एजाज अहमद.मार्क्स की १९० वीं जन्मदिवस पर गोरख पान्डे का यह लेख.
मार्क्सवाद को धर्म बताने की कोशिश एक राजनीतिक हथकंडा है। यह काम बहुत पहले से होता रहा है। मार्क्सवाद के बारे में इस बचकानी समझ पर कवि गोरख पाण्डेय ने गंभीरता से विचार किया है। प्रस्तुत है उनके शोध प्रबंध का एक अंश-
मार्क्सवाद धर्म की व्याख्या कर वैज्ञानिक ज्ञान के पक्ष में धर्म के समाप्त होने की घोषणा करता है। कुछ लोग अंधमत के इस तरह के शिकार हैं या शिकार बनना चाहते हैं कि मार्क्सवाद को भी धर्म कहने लगे हैं। उनकी दृष्टि में जो कुछ भी है धर्म है। यह दिन की तरह खुली बात है कि नास्तिकता और आस्तिकता में भेद है, ईश्वरवाद और निरीश्वरवाद में भेद है, स्वर्ग के काल्पनिक सत्य और जगत के कठोर याथार्थ में भेद है। धर्म आस्तिकता, ईश्वरवाद और स्वर्ग के काल्पनिक सत्य का नाम है। यदि ध्यान दें तो पाएंगे कि मार्क्सवाद चेतना और भौतिक पदार्थ के पारस्परिक संबंध के प्रसंग भौतिक पदार्थ को, जो अचेतन है, शास्वत, गतिशील सत्ता मानकर किसी भी किस्म की धार्मिक या भाववादी ब्याख्या का पूर्ण निषेध करता है। चेतन ईश्वर या आत्मा को जगत के मूल में न मानना अधर्म है, धर्म नहीं।
क्या धर्म उसे कहते हैं जिस सिद्धांत में मानवीय स्वतंत्रता, समानता,भातृत्व की चर्चा की गई है ? मार्क्स के अनुसार ये चीजें भी भौतिक उत्पादन के आधार पर निर्मित है, किसी मानवीय आत्मा या साधु पुरुष की कृपा का फल नहीं है। इनका भी इतिहास में अनिवार्य रूप से अर्थ बदलता रहता है, संघर्षों के जरिए नई धारणाओं का विकास होता रहता है। और अनिवार्य भौतिक तथा ऐतिहासिक द्वंध की धारणा के अनुसार जीवन प्रकृति के कठोर नियमों से संचालित है, उसमें किसी भी किस्म का परिवर्तन वर्ग संघर्ष, उत्पादन संघर्ष और वैज्ञानिक ज्ञान के जरिए प्राप्त किया जा सकता है।
मार्क्सवाद को दो तरह के लोग ‘धर्म’ कहते हैं। एक तरफ वे लोग हैं, जो धर्म को व्यापक मानते हैं कि अधर्म, नास्तिकता वगैरह को भी उसी निगाह से, उसी दायरे में देखते हैं, दूसरी तरफ हर संगत और निश्चयपूर्वक बोलने वाली ज्ञान प्रणाली को धार्मिक अंध-श्रद्धा के रूप में देखते हैं। बर्कले ने भौतिकवाद को धर्म का दुस्मन माना था और उसके विरूद्ध जेहाद का नारा दिया था। ईसाई धर्म का परावर्ती इतिहास वैज्ञानिक ज्ञान के दमन का इतिहास है। विज्ञान दिनोंदिन उन्नति करता जा रहा है, प्रकृति और मानव समाज के रहस्य एक-एक कर खुलते जा रहे हैं और इस स्थिति में भ्रम फैलाने की निश्चचित योजना के अनुसार संदेहवाद और धर्मवाद की ओर से टुच्ची कोशिशें की जा रही हैं। वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति संदेह अंतत:धर्म के पक्ष में जाता है।
मार्क्स ने फायरबाख की आलोचना इसलिए की थी कि वह असंगत भौतिकवादी है; धर्म, भाववाद को छूट देता है और नास्तिकता को एक नए धर्म में बदल देता है।
एंगेल्स ने “लुडविग फारबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत” में लिखा है-फायरबाख का यह कथन, कि “केवल धार्मिक परिवर्तनों से ही मानवीय यूगों की विशिष्टता का निर्माण होता है”, निश्चित रूप से गलत है।
इसी निबंध में उन्होने लिखा है-“....मुख्य चीज उसके लिए यह नहीं है कि ये शुद्ध रुप से मानवीय संबंध मौजूद हैं, बल्कि मुख्य चीज यह है कि एक नए, सच्चे धर्म के रूप में उन्हे स्थापित कर दिया जाय। वे अपनी पूरी गरिमा तभी प्राप्त कर सकेंगे जबकि उनके ऊपर धार्मिक छाप लगा दी जाय। रिलीजन (धर्म) शब्द की उत्पत्ति रेलीगेयर से हुई है। इस शब्द का मौलिक मतलब था-एक बंधन। इसलिए दो व्यक्तियों के बीच का हर बंधन (रिश्ता) एक धर्म है। शब्द विज्ञान संबंधी इस तरह की तिकड़में ही भाववादी दर्शन का सहारा रह गई हैं। उनके लिए इस चीज का महत्व नहीं है कि वास्तविक प्रयोग के आधार पर हुए उसके ऐतिहासिक विकास के अनुसार शब्द का अर्थ क्या है, उसके लिए जिस चीज का महत्व है वह यह है कि उक्त शब्द की उत्पत्ति के अनुसार उसका क्या अर्थ होना चाहिए। और इसलिए यौन-प्रेम तथा स्त्री-पुरुष के संभोग पर देवत्वारोपण करके उन्हे एक धर्म का रूप दे दिया गया है, जिससे कि धर्म शब्द का जो उसकी भाववादी स्मृतियों को इतना ज्यादा प्रिय है, शब्दकोश से लोप न हो जाय। पेरिस के लुई ब्लांकवादी सुधारक भी पिछली शताब्दी के चौथे दशक में ठीक इसी प्रकार की बातें किया करते थे। उनका भी यही विचार था कि जो आदमी धर्म नहीं मानता वह केवल राक्षस हो सकता है। वे हमसे कहा करते थे-अच्छा तो नास्तिकता ही तुम्हारा धर्म है। फायरबाख यदि प्रकृति की मूलतः भौतिकवादी धारणा के आधार पर एक सच्चे धर्म की स्थापना करना चाहता है तो यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे कि आधुनिक रसायन शास्त्र को ही कोई सच्ची कीमियागिरी मान ले.....।”
इस प्रकार मार्क्स तथा एंगेल्स ने एक संगत, संपूर्ण विश्वदृष्टिकोण की स्थापना की थी जिसका प्रथम सूत्र यह है कि जगत गतिशील शाश्वत पदार्थ का विकास है, जीवन तथा चेतना उसी विकास के क्रम में परवर्ती अवस्थाएं हैं।

06 मई 2008

बुश साहब, आपकी नीतियों पर चलने के बाद खाने को बचा कहां?


पेट काट कर जी रहे हैं भारतीय
मदन जैड़ा की आंकडों के साथ जुटाई गयी यह रिपोर्ट हम प्रकाशित कर रहे है साथ में ढेर सारे फोटो बुश साहब और उनके नुमाइंदों के लिये जो मानते हैं कि भारत के लोग पेटू हैं.....
अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्लू. बुश भले ही भारतीयों को पेटू कहें और तर्क देते रहे हैं कि आय में इजाफे के कारण भारतीय ज्यादा खा रहे हैं लेकिन यह हकीकत नहीं है। वास्तव में भारतीय कम खा रहे हैं। कारण यह है कि गरीब तबके को तो भरपेट भोजन नसीब नहीं है और मध्य वर्ग का खर्च चिकित्सा, ईंधन और शिक्षा पर बढ़ रहा है। संभवत: इसके चलते ही देश में खानपान संबंधी व्यय में कमी हुई है। राष्ट्रीय नमूना सवेüक्षण संगठन (एनएसएसओ) के अनुसार वर्ष 2005-06 के दौरान देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत और प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय में खाने-पीने पर किए जाने वाले खर्च में कमी आई है। दरअसल, 90 के दशक में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद वैश्वीकरण की जो आंधी चली है, उसमें लोगों की आय का ज्यादातर हिस्सा खाने के बजाय अन्य मदों में खर्च होने लगा है।

कमी का यह दौर आगे भी जारी रहा
एनएसएसओ के 1993, 2004 तथा 2006 के सवेüक्षणों पर नजर डालें तो देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत में कमी आई है। 1993-94 में गांवों में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह अनाज की खपत 13.4 किलोग्राम थी और शहर में 12.1 किलोग्राम। लेकिन 2004-05 में यह घटकर क्रमश: 12.1 किलोग्राम तथा 9.9 किलोग्राम रह गई। कमी का यह दौर आगे भी जारी रहा। ताजा सवेüक्षण 2006 में किया गया है जिसके आंकड़े हाल में आए हैं। तब पाया गया कि गांव में अनाज की प्रति व्यक्ति मासिक खपत पुन: घटकर 11.9 तथा शहर में 9.8 किलोग्राम रह गई। यानी पिछले 12-13 सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की मासिक खपत में गांवों में 1.5 किलोग्राम और शहरों में 2.3 किलोग्राम की कमी आई है।

आंकड़े इस बात की पुष्टि नहीं करते
यदि भारतीय अनाज कम इस्तेमाल कर रहे हैं तो क्या इसका मतलब यह है कि वह बिस्कुट या अन्य फास्टफूड खाने लगे हैं ? एनएसएसओ के आंकड़े इस बात की पुष्टि नहीं करते। कारण यह है कि नागरिकों के कुल उपभोक्ता व्यय में खान-पान के मद में होने वाले खर्च में भी कमी दर्ज की गई है। इस बात को इन आंकड़ों से समझा जा सकता है। 1972-73 में ग्रामीण नागरिक अपने कुल उपभोक्ता व्यय का 73 फीसदी और शहरी 64 फीसदी खान-पान पर खर्च करता था। लेकिन 1993-94 में यह प्रतिशत घटकर क्रमश: 63 और 54 पर आ गया और अब यह और कम होकर 55 और 42 फीसदी ही रह गया है। ऐसे में यह कहना सरकार अनुचित है कि भारतीय ज्यादा खा रहे हैं।

प्रतिदिन 2047 किलो कैलोरी ही उपलब्ध
यदि कैलोरी के नजरिये से देखें तो 1993-94 में प्रति ग्रामीण रोजाना 2153 किलो कैलोरी भोजन से ग्रहण करता था। लेकिन अब इसमें 106 कैलोरी (4.9 फीसदी) की कमी आई है और उसे प्रतिदिन 2047 किलो कैलोरी ही उपलब्ध है। इसी प्रकार शहरों में इसमें 51 किलो कैलोरी (2.5 फीसदी) की कमी आई है। शहरी 2071 की बजाय 2020 किलो कैलोरी ही ग्रहण कर रहे हैं।

आंकड़े कहते हैं कि बुश साहब गलत फरमा रहे हैं
- 19 फीसदी ग्रामीण आबादी यानी 14 करोड़ लोगों का मासिक उपभोक्ता व्यय 365 रुपये या इससे कम है। इसका मतलब है प्रति व्यक्ति रोजाना 12 रुपये में गुजारा करते हैं।
-22 फीसदी शहरी यानी 17 करोड़ लोग 580 रुपये मासिक यानी 19 रुपये प्रति व्यक्ति रोजाना में गुजारा करता है।
-ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति मासिक उपभोक्ता व्यय 625 और शहरों में 1171 रुपये ही है।
-कम आय के कारण गांवों में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह भोजन पर 251-400 रुपये ही खर्च कर पाता है जबकि शहरों में यह कुछ ज्यादा 451-500 रुपये है।
-ग्रामीण क्षेत्रों में रोजाना प्रोटीन सेवन 60.2 ग्राम से घटकर 57 ग्राम रह गया है जबकि शहरी आबादी में यह प्रतिशत 57 ग्राम पर स्थिर रहा।
-वैज्ञानिक शोध कहते हैं कि प्रति व्यक्ति रोजाना 2700 किलो कैलोरी की जरूरत होती है। लेकिन 66 फीसदी ग्रामीण और 70 फीसदी शहरी लोगों को प्रतिदिन 2700 किलो कैलोरी नहीं मिल पाती है।
किस मद में बढ़ रहा है उपभोक्ता व्यय ?
-इंüधन और प्रकाश पर उपभोक्ता व्यय 6 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत हो गया है।
-कपड़े बिस्तर और जूतों पर व्यय 5 फीसदी।
-चिकित्सा पर गांवों 7 फीसदी और शहरों में 5 फीसदी।
-शिक्षा पर गांवों में 3 फीसदी और शहरों में 5 फीसदी।
-परिवहन पर गांवों में 4 तथा शहरों में 7 फीसदी व्यय।


05 मई 2008

डॉ बिनायक सेन और नक्सलवाद के रिश्ते का सच

- अनिल चमड़िया हिन्दी के पत्रकार है पत्र्करिता में मूल्यों की अडाई देश में चल रहे सामाजिक परिवर्तनों की लडाई और सत्ता के द्वारा मीडिया में चल रहे प्रोपोगेन्डा को इन्होंने समय समय पर अपनी लेखनी के माध्यम से उजागर किया है। वर्तमान में नक्सल्वादी आन्दोलन को किस तरह से राज्य और केन्द्र सरकार पेश कर रही है और उसके क्या पेंच हैं।तथा छ्त्तीसगढ की स्थिति पर अनिल चमडिया का ये विश्लेषण:-
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कई अवसरों पर नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बताया है। खतरे के ग्राफ को स्थापित करने के लिये नक्सलवादी गतिविधियों के ११८ जिलों में फैलने की जानकारी दी जाती है।लेकिन इसी बात को गृहमंत्री कई मौकों पर एक दूसरे प्रभाव के साथ पेश करते हैं।उनके अनुसार नक्सलवादी समस्या को बढ़ा चढ़ा कर नहीं उछाला जाना चाहिये। नक्सलवाद देश के साढ़े छ: लाख गाँवों के महज ३ प्रतिशत हिस्से तक ही सीमित है।इस तरह नक्सलवाद ११८ जिलों के आँकड़ों के आइने में बहुत बड़ी समस्या दिखने लगती है तो वहीं कुल गाँवों के संख्या के आलोक में कोई खास नहीं लगती।इस उदाहरण को केवल यही सीमित कर नहीं देखें।यह तो हुई पहली बात।इसे शासन शैली की खासियत के रूप में देखें।दूसरे इसे दुनिया भर में आँकड़ों के साथ सत्ता और उसके तंत्र द्वारा खेले जाने वाले खेलों के बतौर एक नमूना देखें।तीसरा इसे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के बीच इस मसले पर भिन्न नज़रिये के रूप में कतई नहीं देखें।

इसी तरह देश के विभिन्न प्रदेशों में विभन्न पार्टियों की सरकरों के दृष्टिकोण में मतभेद इस आधार पर नहीं देखे जा सकते कि वहाँ अलग- अलग राजनीतिक पार्टियों की सरकारें हैं।छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार है, इसलिये काँग्रेस की केन्द्र सरकार उस प्रदेश सरकार को नक्सलवादी विरोधी अभियान के नाम पर मदद पहुँचाने के लिये बाध्य है।यह छत्तीसगढ़ में बैठा ऎसा जागरुक व्यक्ति ही सोच सकता है जो पड़ोसी राज्य आँध्र-प्रदेश की तरफ नहीं झाँकना चाहता।छत्तीसगढ़ के गॄहमंत्री रामविचार नेताम ने ७ अप्रैल २००७ को यह बयान दिया कि छत्तीसगढ़ में स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर की नियुक्ति केन्द्र के निर्देश पर की गई है और उन्हें पुलिस वालों की तरह सुविधाएँ दी जा रही हैं।

दरअसल देश में केन्द्र और राज्य सरकारों का ही नहीं बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियों का मन नक्सलवादी गतिविधियों के प्रति एक जैसा ही बन चुका है।नक्सलवादी गतिविधियों को केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में रख कर विचार करने पर ज़ोर दिया जाता है।केवल उसके हिंसा के पक्ष को ही विमर्श के केन्द्र में रखा जाता है।नतीजतन नक्सलवादियों के खिलाफ़ अभियान के नाम पर कॊई भी तरीका स्वीकार करने में हिचक नहीं दिखाई देता है।दुनिया भर के सामने छत्तीसगढ़ को एक ऎसे उदाहरण के रूप में पेश होते देखा जा सकता है, जहाँ लोकतांत्रिक होने के सारे मानदंड ध्वस्त किये जा रहे हैं।वहाँ सरकारी और विरोधी दल मिलकर बिहार की निजी सेनाओं के तरह सलवा जुडुम चलाते हैं।निर्वाचित विधानसभा की गोपनीय बैठक होती है, लेकिन वास्तव में देखें तो नक्सलवादियों के खिलाफ़ कोई अभियान लोकतांत्रिक अधिकारों और मानवाधिकारों के लिये लड़ने वाले लोगों के खिलाफ़ तक जाता है।यानि पहले चरण में तमाम कानून एवं व्यवस्था की धज्जियाँ उडा़ते हुये नक्सलियों को मारने की स्वीकृति हासिल की जाती है और दूसरे चरण में वे निशाना बनते हैं जो लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते हैं।छत्तीसगढ़ में तो तीसरा चरण भी स्थापित किया गया जहाँ साहित्य पढ़ने, सोचने विचारने और स्वतंत्र रूप से अपनी आजीविका के लिये अपने पेशों को अंजाम देने वालों पर भी अंकुश लगा दिया है।हर पेशे का आदमी सहमा सहमा दिखता है।वह अपने हर ग्राहक को भय की दृष्टि से देखता है।छत्तीसगढ़ के लिये इससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या होगी कि पूरी दुनिया में जिस डॉ बिनायक सेन को जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनकी सेवा के लिये सम्मानित किया जा रहा है, उन्हें १४ मई २००७ से जेल के इतने पहरे में रखा गया है कि उनका वजन १५ किलोग्राम से भी अधिक घट गया है। डॉ सेन को ग्लोबल हेल्थ कॉउन्सिल ने २९ मई २००८ को अमेरिका वासिंगटन शहर में जोनाथन मान पुरस्कार देने का फैसला किया।इससे पहले उनके जेल में बंदी के दौरान ही भारतीय सामाजिक विज्ञान अकादमी की ओर से २००७ आर.आर. कैथान स्वर्ण पदक देने का फैसला किया गया।पूरा देश डॉ सेन की स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं की प्रति जागरुकता को जानता है।वे वेल्लौर के नामी गिरामी क्रिश्‍चन मेडिकल कॉलेज़ से डॉक्टर बनने के बाद किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के दरवाजे पर नहीं गये बल्कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके दल्लीराजहरा में शंकर गुहा नियोगी के पास आये और मज़दूरों द्वारा संचालित देश के पहले हस्पताल को स्थापित करने में मदद की। लेकिन इस तरह के कामों के महत्व को कोई पुलिस वाला महज यह कह कर उपहास उड़ाने की जरुरत कर लेता है कि नियोगी तो नक्सल्वादी थे।

दरअसल इस बात को समझने की जरुरत है कि नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में स्थापित करके सत्ता तमाम तरह की निरंकुशताएँ स्थापित करने की छूट चाहती है।लोकतंत्र के लिये जो जगह बनी है उस पर इंच दर इंच सत्ता तंत्र कब्ज़ा करना चाहता है,इसीलिये छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश में लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा में लगे लोगों और संगठनों को बख़्सने का कोई भी मौका सत्ता तंत्र नहीं छोड़ रहा है।संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक सत्ता पक्ष और विपक्ष में बँटी दिकती है,लेकिन यहाँ इस तरह के बँटवारे की रेखा लुप्त हो जाती है।ऎसे रुख के कारण न्यायालय भी अपनी भूमिका में दिखाई देना बंद कर देता है।आपातकाल में न्यायालयों से लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा की माँग मुश्किल हो गई थी।न्यायालयों ने समर्पण सा कर दिया था।इस वक्त छत्तीसगढ़ के संदर्भ में क्या देखा जा रहा है? डॉ सेन के मामले तो यह साफ दिखता है कि डॉ सेन के बहाने सरकार का मकसद मानवाधिकार विचारों को ही चेतावनी देना भर है।सरकारें यदि यह मान लें कि न्यायिक प्रक्रिया ऎसी है कि किसी को वर्षॊं तक जेल में रखा जा सकता है तो यहाँ लोकतंत्र पर सरकारी साजिश के अनुपात का अंदाज़ किया जा सकता है।लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि यदि न्यायालय सरकारी तंत्र के इन निरंकुश इरादों को समझ कर उसे ध्वस्त नहीं करे तो उसकी भूमिका की सक्रियता पर सवाल तो जरुर खड़े होते है।

हाल के वर्षों में ऎसे दर्जनों मामले सामने आये हैं जिसमें न्यायालय ने संघर्षशील लोगों को बरी किया लेकिन सरकार द्वारा उन्हें महीनों और वर्षों तक बंदी बना कर रखने में कामयाबी हासिल करने के बाद।जब इस तरह आर्थिक,राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को व्यक्त करने के अवसर कम होते जायेंगे तो क्या स्थिति बन सकती है!हर विरोध को नक्सलवादी कह कर उसे नकारने की छूट मिलती हो तो हर सत्तातंत्र यही करेगा और वह कर रहा है ।देश के सामने एक बड़ी चुनौती है कि वह राजनीतिक पार्टियों के चरित्र को वास्तविक अर्थों में कैसे लोकतांत्रिक बनाये।इस समय यह समझने की जरुरत है कि विकास और सुरक्षा की राजनीति के निहितार्थ क्या हैं?अमरीका को इराक में जनसंहार के हथियार दिख रहे थे ।अपने देश में भाजपा को विकास और सुरक्षा के लिये आतंकवाद दिखता है।वह गुजरात में नरेन्द्र मोदी की जीत को विकास और सुरक्षा की जीत के रूप में व्याख्यायित करता है।इसी तरह मनमोहन सिंह को विकास और सुरक्षा के लिये नक्सल्वादी चाहिये।इसीलिये वे नक्सलवाद को जिलों के संख्या के आधार पर सबसे बडॆ़ खतरे के रूप में दिखाते है और दूसरी तरफ़ गृहमंत्री ३ प्रतिशत गाँव में नक्सलवाद की समस्या दिखा कर भूमंडलीय विकास नीति में लगी जमात को आश्वस्त भी कर देते हैं।विकास और सुरक्षा वास्तव में अपनी मनचाही विकास की सुरक्षा है।

दलित राजनीति के भटकाव में भी निहित साम्प्रदायिकता का उभार:-

दलित राजनीति की शुरूआत दलित आंदोलनों से हुई। जो आज मायावती की राजनीति तक पहुंच चुकी है वर्तमान समय में दलित चेतना का जो भी उभार हुआ है उसमे संगोष्ठीयों के विमर्श से लेकर ग्रास्रूट के जुझारूपन तक का योगदान है पर आज दलित राजनीति बडे भट्काव की स्थिति से गुजर रही है एक तो दलित कई गुटों में बट कर लछविहीन रास्ते पर चल पडे हैं दूसरे अम्बेडकर के रास्ते को कई तरह से तोड तोड के पेश किया जा रहा है। मायावती से लेकर आर पी आई और अन्य दलित गुटों की अम्बेडकर के नाम पर चलने वाली राजनीति को आज प्रत्यच्छतः देखा जा सकता है। जिस कारण अम्बेडकर का कई बार मूल्यांकन होने के बावजूद बार बार मूल्यांकन करने की जरूरत है क्योंकि अम्बेड्कर की नजरों में दलित राजनीति से केवल इतनी ही उम्मीद नही थी कि वह दलितों को संगठित करेगी और अन्याय से संघर्ष के लिये उन्हें प्रेरित करेगी बल्कि अम्बेड्कर का सपना देश में एक नई राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक व्यवस्था को प्रतिस्थापित करने का था। जो शोषण और असमानता के विरूद्ध हो जहाँ समानता स्व्तंत्रता और भाईचारा हो जो बहुजन हिताय हो पर आज की जो परिस्थितियाँ है उससे प्रतीत होता है कि दलित राजनीति आदर्श व मूल्यविहीन हो गयी है और वर्तमान व्यवस्था में अपनी जगह बनाने के लिये किसी से भी जोड तोड कर रही है चाहे वह भाजपा जैसी हिन्दुत्ववादी पार्टी ही क्यों न हो वर्तमान में दलित संगठनों व दलित पार्टीयों ने जातिविहीन समाज बनाने के बजाय जातिगत उभार पैदा किये हैं। भले ही इनके पीछे कुछ अलग परिस्थितियाँ जिम्मेदार हों। कांशी राम की बसपा और आज की बसपा के चरित्र को देखना होगा और उसमे आये बदलाव के कारणो की भी पड्ताल करनी होगी। महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन और आज उसकी स्थिति को भी समझने की जरूरत है ।

अम्बेड्कर के बाद जब कांशीराम दलित राजनीति के नायक के रूप में सामने आये तो उन्होंने पेरियार,बुद्ध, शाहू महराज, अम्बेड्कर, साबित्रीबाई फुले, बिजली पासी, झलकारी बाई जैसे की विभूतियों को दलित नायकों के रूप में प्रस्तुत किया।और वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा नहीं चलेगा का नारा दिया।यह कह कर उन्होंने सवर्ण पार्टी कांग्रेव्स जो सत्ता में थी उसको ललकारा और ८५% पर १५% के शासन को खत्म करने की बात उठाई।दलित चेतना के इस उभार ने कांग्रेस को गिराने और एक नये विकल्प की तलास की ओर अग्र्सित किया पर बसपा या कंशीराम यह विकल्प नहीं दे सके जिसका फायदा उठाया साम्प्रदायिक पार्टीयों ने भाजपा जैसी पार्टी का उभार तभी संभव हो सका और यही दौर था जब महाराष्ट्र में कई ऎसे साम्प्रदायिक दलों का उभार भी हुआ।जो जनता बहुजन के पछ में जानी थी वह हिन्दूवादी ताकतों के हाँथ में चली गयी।और अन्ततः वे सत्तासीन भी हुए। पर जब बहुजन पार्टी एक स्थिति में आयी तो उसने किसी भी तरह सत्ता पाने का रास्ता खोजा और बहुजन हिताय को भूलकर वह इन्ही के साथ मिल गयी। उत्तर प्रदेश में बसपा जितनी बार भी सत्ता में आयी उसे इन्ही साम्प्रदायिक पार्टीयों का दामन थामना पडा।और इस बार की भी स्थिति कुछ भिन्न नही है एक बडे सवर्ण वर्ग के साथ मिलकर ही आज भी पार्टी सत्ता में आयी है और कुर्मी सभा ब्रहमण सभा जैसी सभायें करके जातिगत उभारों को बढावा दे रही है अभी हाल में मायावती ने ब्रहमणों के आरछ्ण की बात भी कह दी है इसके पीछे क्या कारण है ?क्या मायावती को आरछ्ण के आधार नही पता है या वे किसी तरह से सत्ता में रहना चाहती हैं।इससे स्पष्ट है कि बसपा जैसी पार्टीयों से सामाजिक असमानता तो दूर की बात है जातिगत उभार ही लाया जा सकता है।और यह भी स्पष्ट है कि वर्ग विहीन और जातिविहीन समाज के लियेदलितों को एक नया रास्ता तलासना होगा।जो वर्तमान में चल रहे अलोकतांत्रिक लोकतंत्र का रास्ता नहीं होगा। इस अंक में प्रमुखतः दलित विचारकॊं की टिप्पणियाँ है और नेपाल के बदलते परिद्रिष्य पर रिपोर्ट और आलेख हम प्रकाशित कर रहे है।पत्रिका में भेजे गये कुछ आलेखों को हम सम्मलित नहीं कर सके हैं हम इन्हें अन्य किसी अंक में सम्मलित करेंगे। इस अंक के संपादन के लिये हमने विभिन्न वेब साइटों से भी समाग्री का सहयोग लिया है जिसके लिये हम इनके आभारी हैं।

01 मई 2008


दुनियाँ शेषनाग के फन पर नहीं, मजदूरों के कन्धे पर टिकी है.कल जो लडाईयाँ बहुत दूर दूर थी आज बहुत पास-पास की लडाइयाँ है. मजदूरों के दिनों दिन खत्म किये जा रहे अधिकारों और बढ्ते दमन के खिलाफ हम आज मजदूर दिवस पर फिर से दुनियाँ के मजदूरों एक हो का आवह्न करते है. इस कडी में कुछ कवितायें यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं.

हमारे मित्र विजय झा द्वारा सुनायी गयी कविता का अंश:-

माँ है रेशम के कारखाने में
बाप खट रहा है सूती मिल के कारखाने में
कोख से जब से जन्मा है
बच्चा खोली के काले बिल में है
ये जब यहाँ से निकलकर बाहर जायेगा
खूनीं पूँजीपतियों के काम आयेगा
........................
ये जो नन्हा है भोला भाला है
खूनी पूँजीपतियों का निवाला है
पूछती हैं इसकी आँखें
कोई इसे बचाने वाला है


१० फरवरी १९९८ में जर्मनी के बावेरिया प्रान्त में आग्सबुर्ग कस्बे में बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का जन्म हुआ. बेर्टोल्ट ब्रेष्ट सर्वहारा कला साहित्य के अप्रतिम सिद्धान्त्कार थे. समाजवादी यथर्थवाद के अग्रदूतों में बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का नाम पहली पंक्ति में है. उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिये न केवल मानवद्रोही मानव्द्वेशी शक्तियों पर हमला बोला बल्कि उनकी शक्ति की स्रोतों की भी शिनाख्त की. उन्होंने पूजीवाद की मानव द्रोही कलाद्रोही अन्तर्वस्तु को तार तर करते हुए जिजीविसा और युयुत्सा के गीत गाये. सीधी साधी लेकिन तीखी भाषा में ब्रेष्ट ने अपनी मुहावरे दार कविता और अद्भुत भाषा शैली के जरिये जनता को आन्दोलित किया.ब्रेष्ट एक कवि ही नहीं बल्कि एक महान नाट्क्कार भी थे. मजदूर दिवस पर उनकी कुछ कविताओं के अंश.....

तुम्हारे पंजे देखकर
ड्रते हैं बुरे आदमी
तुम्हारा सौषठव देखकर
खुश होते हैं अच्छे आदमी
यही मै चाहूँगा सुनना
अपनी कविता के बारे में।
:-ब्रेष्ट

भूल चुका है आदमी मांस की सिनाख्त
व्यर्थ ही भुला दिया है जनता का पसीना
जयपत्रों के कुंज हो चुके हैं साफ।
गोला बारूद की कार्खानों की चिमनियों से
उठता है धुआं॥
:-ब्रेष्ट


युद्ध जो आ रहा है
पहला युद्ध नहीं है।
इससे पहले भी युद्ध हुए थे।
पिछ्ला युद्ध जब खत्म हुआ
तब कुछ विजेता बने कुछ विजित.
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी मरा वह भूखों ही॥
:-ब्रेष्ट



जनरल, तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है
वह मटिया मेट कर डालता है जंगल को
और रौद डालता है सैकडो आदमियों को
लेकिन उसमें एक नुक्श है-
उसे एक ड्राइवर चाहिये।

जनरल, तुम्हारा बमबर्षक मजबूत है
वह तूफान से तेज उड्ता है और ढोता है
हांथी से भी अधिक।
लेकिन उसमे एक नुक्श है-
उसे एक मिस्त्री चाहिये।

जनरल, आदमी कितना उपयोगी है
वह उड सकता है और मार सकता है।
लेकिन उसमे एक नुक्श है-
वह सोच सकता है॥
:-ब्रेष्ट



जब कूच हो रहा होता है
बहुतेरे लोग नहीं जानते
कि दुश्मन उनकी ही खोपडी पर
कूच कर रहा है।
वह आवाज जो उन्हें हुक्म देती है
उन्हीं के दुश्मन की आवाज होती है
और वह आदमी जो दुश्मन के बारे में बकता है
खुद दुश्मन होता है।
:-ब्रेष्ट


अगली पीढी के लिये:-
सचमुच मै अंधेरे युग में जी रहा हूँ
सीधी साधी बात का मतलब बेवकूफी है
और सपाट माथा दर्शाता है उदासीनता
वह, जो हस रहा है
सिर्फ इसलिये की भयानक खबरें
अभी उस तक नहीं पहुंची हैं

कैसा जमाना है
कि पेड के बारे में बात चीत भी लगभग जुर्म है
क्योंकि इसमे बहुत सारे कुक्रित्यों के बारे में हमारी चुप्पी भी शामिल है।
वह जो चुप्चाप सड्क पार कर रहा है
क्या वह अपने खतरे में पडे हुए दोस्तों की पहुंच से बाहर नहीं है?
यह सच है: मै अभी भी अपनी रोजी कमा रहा हूँ
लेकिन विश्वास करो यह महज संयोग है
इसमे ऎसा कुछ नहीं है कि मेरी पेट भराई का ऒचित्य सिद्ध हो सके
यह इत्त्फाक है कि मुझे बक्श दिया गया है
(किस्मत खोटी होगी तो मेरा खात्मा हो जायेगा)
वे मुझसे कहते हैं: खा पी और मौज कर क्योंकि तेरे पास है
लेकिन मै कैसे खा पी सकता हूँ
जबकि जो मै खा रहा हूँ, वह भूखे से छीना हुआ है
और मेरा पानी का गिलास एक प्यासे मरते आदमी की जरूरत है।
और फिर भी मै खाता और पीता हूँ।
मै बुद्धिमान भी होना पसंद करता
पुरानी पोथियां बतलाती हैं कि क्या है बुद्धिमानी:
दुनिया के टंटों से खुद को दूर रखना
और छोटी सी जिंदगी निड्र जीना
अहिंसा का पालन
और बुराई के बदले भलाई
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बजाय उन्हें भूल जाना
यही बुद्धिमानी है
यह सब मेरे बस का नही
सचमुच मै अंधेरे युग में जी रहा हूँ॥
:-ब्रेष्ट