18 सितंबर 2009

मीडिया का प्रबंधन

ली कुआन इयू

सिंगापुर के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री ली कुआन इयू अपने इकतीस वर्षीय कार्यकाल के दौरान सिंगापुर देश की संपूर्ण आधुनिक रचना (माडर्न कांस्ट्रक्‍ट) के लिए जाने जाते हैं। औपनिवेशिक शासन से मुक्‍ति के बाद सिंगापुर की स्थिति निहायत पिछडे़, अस्त-व्यस्त देश तथा गहराई से कई पर्तों में विभाजित समाज की थी जिसे ली ने अपने कार्यकाल के दौरान उन्‍नत देशों के समकक्ष खड़ा किया. वर्तमान में सिंगापुर दुनिया का चौथा प्रति व्यक्‍ति उच्‍चतम आय वाला देश है. यह अपने हाउसिंग तथा बैंक उद्योग के साथ साथ विश्‍व व्यापार केंद्र के प्रमुख टापू के रूप में जाना जाता है. ६०० वर्ग किमी में सीमित सिंगापुर की आबादी तीन मिलियन अर्थात तीस लाख के क़रीब है. भूतपूर्व प्रधानमंत्री ली की पुस्तक ''फ़्राम थर्ड वर्ल्ड टू फ़र्स्ट- द सिंगापुर स्टोरी; माई मेमोयर्स'' सिंगापुर निर्माण की आंतरिक दास्तां का बयान है कि सिंगापुर के ''विकास के रास्ते'' में आने वाली चुनैतियों से ली ने कैसे लोहा लिया? ख़ास बात यह है कि वह भी ऐसे समय में जब 'विकास के तरीक़ों और प्रतिमानों' के सवाल पर दुनिया दो ध्रुवों में स्पष्टतः विभाजित थी और दोनों की अपनी 'प्रयोग भूमि' थीं. ली ने अपनी पुस्तक में विस्तार से बताया है कि उन्होंने कैसे कम्युनिष्ट तथा मज़दूर संघों के ''ख़तरों'' को परास्त किया और पूंजीवादी संरचना पर आधारित एक ऐसे राज्य को विकसित किया जो, उन्हीं की शब्दावली में, 'फ़ेयर नाट वेलफ़ेयर स्टेट' (कल्याणकारी नहीं बल्कि वास्तविक राज्य) था. यह सब उन्होंने एक ऐसे समय में संभव में किया जब साम्राज्यवादी, रक्‍त पिपासु तथा मानवता के स्थायी दुश्मन पूंजीवाद को भी ''कल्याणकारी राज्य'' का सैद्धांतिक मुखौटा गढ़ना पड़ा जिसे मौका मिलते ही उसने ''वैश्‍वीकरण'' के नाम पर नोंच फेंका. मीडिया पर नियंत्रण और उसके प्रबंधन के तौर तरीक़ों के बारे में उनके दिलचस्प अनुभवों के एक अंश की कुछ मूल भावनाओं को हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं जो उनकी परियोजना के मूल प्रकार्यों के बारे में एक बानगी मात्र है. इसमें स्पष्टतः लक्षित किया गया है कि इन सबके बुनियाद में कम्युनिष्टों के हर तरह के क्रियाकलापों का ''उन्मूलन'' प्रमुख तो है ही साथ ही साथ इस अंश में 'विकसित पूंजीवादी देशों की नीतियों द्वारा संरक्षित मीडिया द्वारा सिंगापुर सरकार को परेशान करने, सिंगापुर के घरेलू मामलों में टांग फंसाने के उनके रवैयों को 'दुरुस्त' करने के भी दिलचस्प अनुभव हैं. रणनीतिक तौर पर इस पुस्तक की महत्ता तथा विश्‍वसनीयता को इस बात से रेखांकित किया जा सकता है कि पुस्तक की प्रस्तावना वियतनाम पर अमरीकी युद्ध के प्रमुख रणनीतिकार हेनरी किसिंजर ने लिखी है. पाठकों को इससे मीडिया की प्रभावकारी संरचना और उसकी अंतर्वस्तु तथा राज्य के नुमाइंदों के काम करने की पद्धतियों और संचार साधनों पर उसकी नियंत्रणकारी भूमिका के प्रमुख आयामों को गहराई से समझने में मदद मिलेगी.


सन्‌ १९५९ से लेकर अब तक के चालीस वर्षों में सिंगापुर प्रेस औपनिवेशिक सरकार द्वारा स्थापित किए गए मानदंडों से बाहर निकला है. इसके लिए हमें असीमित निर्धारणों को सीमित करना पड़ा, विशेषकर अपने अंग्रेज़ी भाषी प्रेस के मामले में. ये ब्रिटिश संपादकों तथा रिपोर्टरों से प्रभावित थे जो स्ट्रेट्स टाइम्स समूह में अपनी श्रेष्ठता बघारते थे. १९८० के दशक में पत्रकारों की नई पीढ़ी आने के पहले तक यह समझने में कई साल लगे कि सिंगापुर की राजनीतिक संस्कृति पश्‍चिमी मानदंडों से भिन्न है और भिन्न रहेगी. यद्यपि हमारे पत्रकार अमरीकी मीडिया के रिपोर्टिंग के तरीक़ों तथा उसकी राजनीतिक भंगिमा से परिचित तथा प्रभावित थे जो अथारिटी के प्रति हमेशा संशयात्मक तथा सनकी रुख़ लिए होती है. चीनी तथा मलाय प्रेस पश्‍चिम के समाचारपत्रों को अनुकरणीय नहीं मानते थे. उनकी सांस्कृतिक बुनावट ऐसी है कि जिन नीतियों से वे सहमत होते हैं उनका रचनात्मक सहयोग करते हैं और सहमत न होने पर निर्धारित सीमाओं के भीतर ही आलोचना करते हैं.
१९९० के दशक तक चालीस साल से कम उम्र के हमारे पत्रकार सिंगापुर स्कूल की इस समझदारी से परिचित हो गए. फिर भी अंग्रेज़ी, चीनी तथा मलाय प्रेस के बीच भिन्‍नताएं बनी रहीं और सांस्कृतिक अंतर नहीं पाटे जा सके. ये भिन्‍नताएं उनकी संपादकीय टिप्पणियों, मुख्य ख़बरों, ख़बरों के चयन तथा प्रकाशन के लिए पाठकों की चिट्‍ठियों के चुनाव में देखे जा सकते हैं. चीनी शिक्षित पाठकों के वही राजनीतिक - सामाजिक मूल्य नहीं हैं जो अंग्रेज़ी शिक्षित पाठकों के हैं. उनके लिए व्यक्‍तियों से ज़्यादा अपने समूह के हित सर्वोपरि होते हैं. ब्रिटिश मालिकों द्वारा संचालित प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार स्ट्रेट्स टाइम्स अपने हितों को खुले तौर पर प्रमुखता देता था. यह ब्रिटिश व्यापारिक उद्योगों, जिसके विज्ञापनों पर यह पलता था तथा औपनिवेशिक सरकार, जो आधिकारिक सूचनाओं तथा ख़बरों को प्रकाशित कर मोटी आय मुहैया कराती थी, उसके संरक्षण में फला फूला था. कोई स्थानीय अंग्रेज़ी अख़बार इसके प्रसार तथा प्रभाव के मामूली स्तर तक भी कभी नहीं पहुंच सका.
चीनी भाषी समाचार पत्र अपनी ज़रूरतों तक ही सिमटे हुए थे. उनके धनी चीनी व्यापारी मालिकानों ने अपने हितों के विस्तार के लिए उनका इस्तेमाल किया. पाठकों को आकर्षित करने के लिए वे चीन में सह-शिक्षा और संस्कृति तथा चीन में युद्ध की ख़बरों को प्रमुखता देते थे. दो प्रमुख चीनी अख़बार ''ननयांग सियांग पाउ'' तथा ''सिन चे जित पोह'' के धारक दो धनी, दक्षिणपंथी चीनी परिवार थे लेकिन उनके संपादक युवा चीनी पत्रकार होते थे जिनमें से अधिकतर वामपंथी रुझान के थे और उनमें से कुछ तो कम्युनिष्ट पार्टी के कार्यकर्ता भी थे.
चीनी, तमिल तथा अन्य वर्नाक्युलर (देशज) भाषाओं के समाचारपत्र अपने पाठकों के सांप्रदायिक हितों के अनुकूल काम करते थे तथा कोई ठोस पहचान नहीं रखते थे. अरबी (इयावी) भाषा में छपने वाला मलाय अख़बार उत्सुन मेलायू अपने आप को सर्व मलाय-इंडोनेशियाई राष्ट्र का नुमाइंदा घोषित करता था.
हमारी पीपल्स एक्शन पार्टी के प्रति स्ट्रेट्स टाइम्स का अत्यंत बैरी भाव लगभग प्रारंभ से ही था. वह हमारे ग़ैर कम्युनिष्ट नेतृत्व को चीनी भाषी कम्युनिष्टों के गुप्‍त दस्ते (ट्रोज़न हार्स) के रूप में देखता था. ननयांग सियांग पाउ, सिन चे जित पोह तथा अन्य छोटे चीनी अख़बार अपनी वामपंथी नीतियों के कारण मज़बू्ती से उसका समर्थन करते थे. संयुक्‍त मोर्चे में भी हमारे यहां कम्युनिष्‍ट थे. कई चीनी पत्रकार कम्युनिष्‍ट समर्थक थे. हमसे संबंध होने के कारण चीनी भाषी कम्युनिष्‍टों के प्रति उत्सुन मेलायू का रुख़ दोस्ताना था क्योंकि इसके मालिक त्था प्रबंध संपादक युसुफ़ इसाक मेरे दोस्त थे और उन्होंने कभी मुझे अपने अख़बार के लिए वकील नियु‍क्‍त किया था. बाद में वे सिंगापुर के पहले राष्‍ट्रपति बने. सिंगापुर तथा मलाया के शुरुआती अनुभवों ने प्रेस द्वारा सत्य की रक्षा तथा अभिव्यक्‍ति की आज़ादी के दावों के बारे में मेरे विचारों को आकार दिया था. प्रेस की आज़ादी अपने व्यक्‍तिगत तथा वर्गीय हितों को उच्‍चतम करने के लिए उनके धारकों/मालिकों की आज़ादी थी.
१९५९ में सिंगापुर के स्वशासन के लिए होने वाले पहले आम चुनाव में स्ट्रेट्स टाइम्स पीप्ल्स एक्शन पार्टी को चुनाव जीतने तथा सरकार बनाने से रोकने के लिए हमारा खुल कर विरोश करने लगा. हमने उसे सबक़ सिखाने का निर्णय लिया. स्ट्रेट्स टाइम्स के वरिष्ठ लेखक राजा ने हमारी धारणाओं को सही ठहराया कि यह अख़बार ब्रिटिश हितों के लिए काम करता है, जो भीमकाय ठग की तरह दिखने वाले, लेकिन प्रभावशाली अंग्रेज़ी अख़बार उद्यमी बिल सिमन्स द्वारा नियंत्रित होता है. विपक्षी होने के बजाए हमारे चुनाव जीत जाने पर अपने अख़बार के हितों को पटरी पर साधने में हमारे खुले ख़तरे को बिल सिमन्स ने गंभीरता से लिया. वह अपने संपादकीय कर्मियों को क्‍वालालम्पुर भेजने की तैयारी में था जिसे चुनाव के बाद अमल में लाना था. मैंने अपनी पहली तोप चुनाव की तिथि के दो दिन पूर्व मध्य अप्रैल में दाग़ी- ''यह अब एक खुला हुआ भेद है कि स्ट्रेट्स टाइम्स के संपादकीय कर्मी क्‍वालालम्पुर जाने की ताक में हैं.'' मैंने इसके गोरे, बाहरी पत्रकारों द्वारा की जाने वाली दुष्टतापूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त रिपोर्टिंग को चिह्नित किया तथा चुनौती दी कि जितना वे हमें लपेट रहे हैं हम उससे भी ज़्यादा मुश्‍किल में उन्हें फंसाएंगे.
अगले दिन अंग्रेज़ी भाषी सिंगापुर स्टैंडर्ड में राजा के ऊपर आक्रमण हुआ जो दो चीनी करोड़पति, शेर छाप मार्का बाम (हर तरह के दर्द के लिए संपूर्ण दवाई) के 'अव बंधुओं' द्वारा कराया गया था. स्टैंडर्ड पीपल्स एक्शन पार्टी विरोधी हो गया था, पांच सालों से इसके सहायक संपादक रहे राजा को अपनी नीतियां बदलने अथवा अख़बार छोड़ने के लिए कह दिया गया.उन्होंने अख़बार छोड़ दिया.
हमें कहा गया कि स्थानीय अख़बारों द्वारा की जाने वाली आलोचना को हमें सहना चाहिए; हमने उनके स्थानीय जुड़ाव को स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें रुकना था और अपनी नीतियों का परिणाम भुगतना था. वे ''स्ट्रेट्स टाइम्स की तरह उड़ने वाली चिड़िया'' नहीं थे, और अब मलाय भी नहीं जा सकते थे जहां से वे सिंगापुर में प्रेस की आज़ादी के लिए मरने को तैयार रहने का दावा कर सकते थे. उन्होंने मुझे आसन्‍न करने के लिए सबसे वरिष्ठ स्थानीय महानुभाव, लेसिली होफ़मैन जो मूलतः यूरेशियाई थे, का इस्तेमाल किया: '' मैं उड़ती चिड़िया नहीं हूं. इस अख़बार की नीतियों तथा संपादकीय सामग्रियों के लिए ज़िम्मेदार मैं सिंगापुर में ही रहने का इरादा रखता हूं भले ही श्रीमान ली तथा पीपल्स एक्शन पार्टी सत्ता में आएं और भले ही वे मेरे ख़िलाफ़ जनसुरक्षा क़ानून की धाराएं इस्तेमाल करें..... मेरा घर सिंगापुर ही रहेगा.'' निश्‍चित तौर पर ये साहसी उद्‍बोधन थे. चुनाव तिथी के पहले होफ़मैन क्‍वालालम्पुर चले गए. कुछ दिन पहले ही पश्‍चमी बर्लिन में अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संस्थान की वार्षिक सभा के संबोधन में उन्होंने कहा था कि मुझे ख़तरा''सत्ता के लिए उन्मत्त एक राजनेता की व्यग्रता'' से है. उन्होंने दावा किया कि स्ट्रेट्स टाइम्स मलायनी द्वारा लिखिन, उत्पादित तथा नियंत्रित होता है जो मलाया में जन्मे हैं. वह वहां अपना पूरा जीवन बिताते हैं तथा जो अपनी राष्ट्रीयता तथा अपने देश के प्रति वास्तव में निष्ठावान हैं. वह जानते थे कि यह असत्य नहीं है, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संस्थान से आह्वान किया कि एक ऐसी पार्टी को लोकप्रिय जनादेश मिलने से रोकने का पूरी कोशिश करें जो प्रेस की आज़ादी को नियंत्रित तथा सीमित करने के घोषित इरादे से काम कर रही है. यही वह समय था जब हमें एक ऐसे शासनादेश की ज़रूरत थी जो विदेशी तथा एक मामले में औपनिवेशिक हितों से निपटने में मदद करे. हमारी यह घोषित नीति थी कि समाचार पत्रों के विदेशी धारक नहीं होना चाहिए.
हमने चुनाव जीत लिया. स्ट्रेट्स टाइम्स, उसके मालिक तथा उसके वरिष्ठ संपादक क्‍वालालम्पुर भाग गए. उन्होंने हमारी बातों को सिद्ध किया कि वे कायर हैं. वे प्रेस की आज़ादी अथवा अपने सूचना के अधिकार के बजाए ब्रिटिश हितों के संरक्षण के लिए काम कर रहे थे.
१९६५ में हमारी आज़ादी के बाद स्ट्रेट्स टाइम्स सिंगापुर वापस लौट आया, उसने अपने आप को पूरी तरह से बदल लिया था और अब हमारी पार्टी का समर्थन करने लगा था. इससे मेरे मन में उसके लिए कोई सम्मान की बढ़ोत्तरी नहीं हुई. मलेशिया की वाम समर्थक नीतियों ने स्ट्रेट्स टाइम्स पर जब इसके क्‍वालालंपुर अभियान को यूएमएनओ को बेचने के लिए दबाव बढ़ाया तो यह हमारी, पीपुल्स एक्शन पार्टी, की सरकार थी जिसने ब्रिटिश शेयर धारकों को सिंगापुर में समाचार पत्र के मालिकान को काम जारी रखने तथा अख़बार प्रकाशित करने की अनुमति दी थी. सिम्मन इस बार शांति स्थापित करने के लिए आए तथा अख़बार बिना किसी राजनीतिक एजेंडे के पूरी तरह व्यापारिक उद्‍देश्यों पर टिक गया. होफ़मैन सिंगापुर वापस ही नहीं आया. वह आस्ट्रेलिया में बस गया.
चूंकि मैं प्रतियोगिता चाहता था इसलिए दूसरे अख़बारों की स्थापना को मैंने प्रोत्साहित किया. कुछ स्थापित तो हुए लेकिन असफल हो गए. सौ सालों से अधिक के शासन में स्ट्रेट्स टाइम्स ने बाज़ार में अपना वर्चस्व जमाया था. सिंगापुर स्टार १९६० के दशक में बंद हो गया. १९६६ में अव कोव द्वारा ईस्टर्न सन नामक एक अख़बार निकाला गया. अव कोव टाइगर बाल बंधुओं का ही एक बेटा था जो गंभीर अख़बार मालिक के बजाए एक अनाड़ी लड़के (प्ले ब्वाय) के रूप में ज़्यादा जाना जाता था. हांगकांग स्थित चीनी लोक गणराज्य की एक एजेंसी के उच्‍च पदस्थ अधिकारियों से गुप्‍त वार्ता के बाद उन्होंने उसे लाखों डालर की उधारी दी थी जिसे पांच साल में ०.१ प्रतिशत की हास्यास्पद ब्याज दर से चुकता करना था. इसके पीछे अघोषित शर्त यह थी कि अख़बार किसी मुद्दे पर चीनी लोक गणराज्य का विरोध नहीं करेगा अथवा छोटे मुद्दों पर तटस्थ बना रहेगा. ईस्टर्न सन को ख़राब प्रबंधन के कारण भारी घाटा उठाना पड़ा. १९६८ में इसे छः लाख सिंगापुरी डालर का हर्ज़ाना भरने को कहा गया. १९ ७१ में हमने एक विदेशी ताक़त द्वारा दिए जाने वाले पैसों के इस ''काले अभियान'' को उजागर किया. अव कोव ने माना कि यह सच है. ग़ुस्साए तथा अपमानित संपादकीय कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया तथा अख़बार बंद हो गया.
सिंगापुर हेराल्ड एक अन्य ''काला अभियान'' था. यहां पैसे ग़ैर कम्युनिष्ट स्रोत से आ रहे थे. पूरी तरह से विदेशी मालिकान आधारित यह समाचार पत्र सन १९७० में शुरु हुआ जिसमें संपादक सिंगापुरी तथा इसके कुछ पत्रकार स्थानीय तथा कुछ विदेशी थे. शुरू में मैं हतप्रभ रह गया कि क्यों दो विदेशी, जो इसके मामूली धारक थे, अपने संपादकीय तथा ख़बरों द्वारा राष्ट्रीय सेवा, प्रेस नियंत्रण तथा अभिव्यक्‍ति की आज़ादी जैसे विषयों पर सरकार के ख़िलाफ़ काम करने वाला एक अंग्रज़ी भाषी अख़बार शुरू करना चाहते हैं. आईएसडी नामक संस्थान ने बता कि इसकी सबसे बड़ी शेयरधारक कंपनी हांगकांग की हीदा एंड कंपनी थी जिसकी दो छद्‍म नामों से रजिस्टर्ड भागीदारी थी. अख़बार ने जल्दी ही २.३ मिलियन सिंगापुरी डालर की कामकाजी पूंजी दिखाया तथा सिंगापुर के मैनहट्‍न बैंक को अपने १.८ मिलियन सिंगापुरी डालर वाले असुरक्षित लोन को बढ़ाने का इंतजाम किया. बैंक के अध्यक्ष डेविड राकफ़ेलर पर जब स्पष्टीकरण देने का दबाव पड़ा तो उन्होंने न्यूयार्क से मुझे फ़ोन किया और बताया कि उनके दूसरे उपाध्यक्ष तथा सिंगापुर शाखा के मैनेजर बैंक के इस नियम से अनभिज्ञ थे कि समाचार पत्रों को पैसे उधार नहीं देने हैं. मुझे संदेह हुआ.
मैंने अख़बार के नवनियुक्‍त संपादक से पूछा जिसने हांगकांग की 'हीदा एंड कंपनी' के नाम से पैसे लगाया था. उसने कहा कि वह सोचता था कि मैं जानता होऊंगा कि इसके पीछे डोनाल्ड स्टीफ़न्स है, जो कैनबरा में मलेशिया का उच्‍चायुक्‍त तथा मलेशिया के एक राज्य सबाह का भूतपूर्व मुख्यमंत्री था. मैंने पूछा क्या वह मानता है कि स्टीफ़न्स, जो इस्लाम में धर्मांतरित होने के बाद फ़ुआद स्टीफ़न्स हो गया था, डेढ़ मिलियन डालर के डूब जाने का ख़तरा उठा कर सिंगापुर सरकार से पंगा लेने वाला अख़बार चलाएगा? वह सहमत था कि ऐसा मानना मुश्किल है.
१९७१ के मध्य मई में जब मैंने इस बातचीत को एक सार्वजनिक भाषण में उदृधत किया तो स्टीफ़न्स, जिसे मैं अपने मलेशिया के दिनों से ही अच्छी तरह से जानता था, ने कैनबरा से मुझे लिखा- ''मैं महसूस करता हूं मुझे आपको यह बताना चाहिए कि हेराल्ड में मेरा पैसे लगाने का एक मात्र उद्‍देश्य इसलिए है चूंकि मैं पहले भी अख़बार के व्यापार में रहा हूं और चूंकि मैं मानता हूं कि सिंगापुर एक ऐसा देश है जहां निवेश सुरक्षित रहेगा....... मैं अब जवान नहीं रह गया हूं और मैं सोचता हूं कि अगर मैं पहले रिटायर हो गया तो हेराल्ड में अपने निवेश से लंबे समय तह फ़ायदा लेने में समर्थ रहूंगा.'' उसने यह स्पष्ट नहीं किया अपने निवेश तथा इस विषय पर मेरा सहयोग लेने के बारे में उसने मुझे पहले क्यों नहीं बताया. उसने मेरी इस धारणा पर भी कोई स्पष्‍टीकरण नहीं दिया कि समाचारपत्र एक देश की राजनीति को प्रभावित करते हैं. एक विदेशी उद्योगपति राय थामसन साठ के दशक में जब सिंगापुर में एक अख़बार शुरू करना चाहता था तो पहले उसने मुझसे विचार विमर्श किया था. मैंने उसे मना किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि एक ऐसा विदेशी जिसकी जड़ें सिंगापुर में नहीं है, हमारे राजनीतिक एजेंडे पर असर डाले.
हेराल्ड जब बिना कमाई के चल रहा था तो हांगकांग की एक अख़बार मालकिन अव सियान, जो अव कोव की बहन थी लेकिन उसके विपरीत एक गंभीर व्यापारी महिला थी, ने पांच लाख सिंगापुरी डालर देकर रहस्यमय ढंग से उसका बचाव किया. वह एक बड़ी व्यापारी महिला थी जो हांगकांग में एक चीनी अख़बार की मालकिन थी. उसने अपने लगाए पैसों की रसीद मुझे दिया लेकिन उसके पास शेयर प्रमाणपत्र नहीं थे. मैंने पूछा कि क्या वह अख़बार में और पैसे लगाने का इरादा रखती है तो उसने जवाब दिया ''नहीं'' और फ़ौरन हांगकांग के लिए विदा हो गई.
अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संस्थान से संबद्ध एशियाई प्रेस फ़ाऊंडेशन ने एक वक्‍तव्य जारी करते हुए हमसे अख़बार का लाइसेंस रद्‍द नहीं करने का अनुरोध किया. उन्होंने मुझे अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संस्थान की १९७१ की वार्षिक सभा में बोलने के लिए हेलिंस्की आने निमंत्रण दिया. हेलिंस्की जाने से पहले मैंने सिंगापुर हेराल्ड का प्रकाशन लाइसेंस रद्‍द कर दिया.
अगर मैं उपस्थित नहीं होता तो मेरी अनुपस्थिति में सभा सिंगापुर की भर्त्सना का प्रस्ताव पारित कर देती. मैंने सिंगापुर जैसे नए और जवान देश में मीडिया की भूमिका को लेकर अपनी स्थिति को स्पष्ट किया- ''मुझे ऐसी मीडिया की ज़रूरत है जो हमारे सांस्कृतिक मूल्यों, तथा हमारे स्कूलों व विश्वविद्यालयों द्वारा संरक्षित प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करने के बजाए प्रोत्साहित करे. मीडिया एक ऐसी मनोदशा का निर्माण कर सकता है जिसमें लोग विकसित देशों के ज्ञान, क्षमताओं, तथा अनुशासनों को ग्रहण करने में दिलचल्पी दिखाएं जिसके बिना हम अपनी जनता के जीवन स्तर को उच्‍च करने की कभी उम्मीद नहीं कर सकते.'' मैंने दो उदाहरणों के जरिए बताया कि कैसे प्रेस रिपोर्ट तथा तस्वीरें सिंगापुर की विभिन्न नस्लों, भाषाओं, संस्कृतियों तथा धर्मों के बीच कई जानलेवा दंगों का कारण बनीं. १९५० में 'जंगल गर्ल' दंगे में सिंगापुर स्टैंडर्ड ने एक डच लड़की पर रिपोर्ट को प्रमुख ख़बर बनाया जो अपनी मलाय मां से इस्लाम में धर्मांतरित हो गई थी. जिसकी छवि कुंवारी मां की थी. पैग़ंबर मोहम्मद के जन्मदिन पर जुलाई १९६४ में चीनी विरोधी दंगे एक मलाया अख़बार के प्रचुर अभियान का परिणाम थे जिसमें दिन प्रति दिन यह आरोप लगाया जाता था कि चीनी बहुसंख्यकों द्वारा मलाय अल्पसंख्यकों का दमन होता है. मैंने कहा कि मैं यह नहीं मानता हूं कि ''अख़बार मालिकों को जो चाहें सो छापने का अधिकार है. वे और उनके पत्रकार सिंगापुर के मंत्रियों जैसे निर्वाचित नहीं हैं''. सम्मेलन में मेरे आख़िरी शब्द थे, ''प्रेस की आज़ादी, समाचार मीडिया की आज़ादी सिंगापुर की ज़रूरतों के उच्‍चाधिकार तथा निर्वाचित सरकार की प्राथमिकता के अधीनस्थ होनी चाहिए.''
कुछ सालों बाद, १९७७ में हमने किसी व्यक्‍ति अथवा उसके द्वारा नियुक्‍त किसी प्रतिनिधि को एक समाचार पत्र में तीन प्रतिशत से ज़्यादा का साधारण शेयर रखने में प्रतिबंध लगा दिया तथा शेयर का एक विशेष वर्ग बनाया जिसे प्रबंधन शेयर कहा गया. मंत्रियों को यह निर्णय लेने का अधिकार था कि किस शेयर धारक को प्रबंधन शेयर देना है. उन्होंने सिंगापुर के चार प्रमुख स्थानीय बैंकों को शेयर दिया. वे राजनीतिक तौर पर तटस्थ बने रहे तथा अपने व्यापारिक हितों के कारण स्थिरता और विकास की सुरक्षा करते रहे. मैंने पश्‍चिमी कार्यप्रणालियों को प्रश्रय नहीं दिया जो धनी उद्योगपतियों को यह निर्णय लेने की छूट देती है कि मतदाता दिन प्रति दिन क्या पढ़ें?
अस्सी के दशक में पश्‍चिमी मालिकान वाले अंग्रेज़ी भाषी प्रकाशनों की सिंगापुर में महत्वपूर्ण उपस्थिति हो गई थी. हमारे स्कूलों में अंग्रेज़ी पढ़ाए जाने के कारण अंग्रेज़ी जानने वाली संख्या का विस्तार हो रहा था. हमने हमेशा कम्युनिष्ट प्रकाशनों को प्रतिबंधित किया लेकिन किसी पश्‍चिमी मीडिया या मीडिया संगठन ने इसके ख़िलाफ़ कभी विरोध नहीं किया. हमने किसी पश्‍चिमी अख़बार या पत्रिका को प्रतिबंधित नहीं किया फिर भी जब वे हमारी ग़लत रिपोर्टिंग करते थे तो हमारे द्वारा उसे सुधार करने के अधिकार को उन्होंने ख़ारिज़ किया. १९८६ में हमने एक ऐसा क़ानून लाने का निर्णय लिया जो ऐसे प्रकाशनों की बिक्री या उनके वितरण को नियंत्रित करता हो जो सिंगापुर की घरेलू राजनीति में व्यस्त रहते थे. ''सिंगापुर की घरेलू राजनीति में व्यस्तता'' का हमारा एक अनुभव (परीक्षण) था कि यद्यपि वे सिंगापुर के बारे में ग़लत रिपोर्टिंग करते थे अथवा कहानियां गढ़ते थे फिर भी वे हमारे जवाबों को प्रकाशित नहीं करते थे. हमने उस पर प्रतिबंध नहीं लगाया, सिर्फ़ बिक्री होने वाली प्रतियों को सीमित कर दिया. जो प्रतियां नहीं ख़रीद पाते थे वे उन्हें फोटोकापी अथवा फ़ैक्स के माध्यम से पढ़ते थे. इससे विज्ञापन से होने वाली उनकी आय कम हो गई. लेकिन उनकी रिपोर्टों के वितरण को नहीं रोका गया. वे हम पर अपनी रिपोर्टों को नियंत्रित करने के डर का आरोप नहीं लगा सकते थे.
इस क़ानून का उल्लंघन करने वाला पहला प्रकाशन अमरीकी साप्ताहिक टाइम पत्रिका थी. अक्टूबर १९८६ के एक आलेख में उसने लिखा कि सिंगापुर न्यायालय द्वारा एक विपक्षी सांसद को क़र्ज़दारों को धोखा देने के लिए सरकारी संपत्ति का दुरुपयोग करने तथा ग़लत सबूत देने का दोषी पाया है. प्रेस सचिव ने रिपोर्ट में तथ्यों की तीन ग़लतियों को दुरुस्त करने के लिए एक पत्र लिखा. टाईम ने इसे प्रकाशित करने से इंकार कर दिया और बदले में दो संस्करणों का हवाला दिया. दोनों से इसका अर्थ बदल गया था. मेरे प्रेस सचिव चाहते थे कि जवाब बिना संपादन के प्रकाशित हो. जब यह करने से मना कर दिया गया तो हमने टाइम पत्रिका की बिक्री को १८००० से ९००० तथा अंततः दो हज़ार तक सीमित कर दिया. इसके बाद टाइम ने हमारा पूरा जवाब प्रकाशित किया. आठ महीने बाद हमने यह प्रतिबंध हटा लिया.
दिसंबर १९८६ में एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल ने हमारे प्रस्तावित द्वितीय बाज़ार सिक्यूरिटीज़ SESDAQS (स्टाक एक्सचेंज आफ़ सिंगापुर डीलिंग इन आटोमेटेड कोटेशन सिस्टम) के बारे में एक झूठी कहानी प्रकाशित किया. इसने आरोप लगाया कि सरकार अपने नियंत्रण वाली मृतप्राय कंपनियों के लिए इसकी स्थापना करने जा रही है. सिंगापुर के मौद्रिक अधिकारी (मोनिटरी अथारिटी आफ़ सिंगापुर) ने इन झूठे आरोपों को प्रमाणित करने के लिए कहा. जर्नल ने न सिर्फ़ इस चिट्‍ठी को प्रकाशित करने से इंकार किया बल्कि दावा किया कि उनका आलेख सही और वास्तविक है, कि ऐसी मृतप्राय कंपनी आस्तित्वमान है, और कि हमारी चिट्‍ठी ने उनके संवाददाता को बदनाम किया है. मौद्रिक अधिकारी ने पत्र की अन्य ग़लतियों को चिह्नित किया तथा उससे मृतप्राय कंपनी का नाम बताने व हमारे उद्धरण के उस हिस्से को रेखांकित करने को कहा जिससे उसके संवाददाता की बदनामी हुई है. हमने उससे कहा कि वह सारी बातचीत प्रकाशित करे ताकि पाठक ख़ुद ही निर्णय कर सकें. उसने मृतप्राय कंपनी का नाम बताने तथा बदनाम करने वाले उद्धरण को चिह्नित करने से इंकार कर दिया. फ़रवरी १९८७ में सरकार ने एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल के वितरण की संख्या ५००० से घटाकर ४०० कर दी तथा मौद्रिक अधिकारी एवं जर्नल के बीच हुई बातचीत को सार्वजनिक किया. हमने पत्र के संवाददाता को बदनाम हो जाने पर मुक़दमा दायर करने का निमंत्रण दिया लेकिन उसने कुछ नहीं किया.
हमें विस्मय तब हुआ जब अमरीका के राज्य विभाग के प्रवक्‍ता ने, एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, जर्नल तथा टाइम पत्रिका दोनों पर लगाए प्रतिबंधों पर अफ़सोस ज़ाहिर किया. हमारे विदेश मामलों के मंत्रालय ने राज्य विभाग से कहा कि रिपोर्ट किए गए मामले को स्पष्ट करें और अगर यह सही है तो यह सिंगापुर के घरेलू मामलों में एक अभूतपूर्व दख़लंदाज़ी थी. इसके प्रवक्‍ता ने ऐसा तो किया लेकिन साथ ही अमरीकी सरकार ने इन दोनों मामलों में से किसी एक का भी पक्ष नहीं लिया. हमने राज्य विभाग से पूछा कि निष्पक्षता के इसी ज़मीन के आधार पर क्या वह एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल द्वारा हमारे पत्र व्यवहार को छापने से इंकार करने पर भी अफ़सोस ज़ाहिर करेगा? राज्य विभाग ने दुहराया कि वह किसी का भी पक्ष नहीं लेगा. वह अपने ''स्वतंत्र तथा प्रतिबंधविहीन प्रेस के सिद्धांत के प्रति लंबे समय से स्थापित तथा मौलिक प्रतिबद्धता के कारण मात्र अपनी चिंता ज़ाहिर कर रहा है.'' जिसका मतलब था प्रेस जो चाहें प्रकाशित करने अथवा न प्रकाशित करने के लिए स्वतंत्र हैं चाहे उनके काम कितने भी ग़ैर ज़िम्मेदार और पूर्वाग्रह ग्रस्त क्यों न हों. हमारे विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि हम प्रेस के बारे में अमरीकी क़ानूनों का अनुसरण करने के लिए बाध्य नहीं हैं. सिंगापुर के अपने क़ानून हैं तथा हमारे पास ग़लत रिपोर्टिंग को जवाब देने का अधिकार सुरक्षित है. विदेशी प्रकाशनों को सिंगापुर में बिक्री तथा वितरण का कोई अधिकार नहीं है. हमने यह विशेषाधिकार उन्हें दिया था लेकिन अपनी शर्तों पर, जिसमें से एक उत्तर देने का अधिकार था. राज्य विभाग ने कोई जवाब नहीं दिया.
दो हफ़्ते बाद एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल ने हमारे संचार एवं सूचना मंत्रालय को उन सदस्यों को पत्रों के निःशुल्क वितरण के प्रस्ताव के बारे में लिखा जो प्रतिबंध के कारण वंचित रह जाते थे. वह सिंगापुर के व्यापारियों, जो पत्र की उपलब्धता की शिकायत कर रहे थे, की मदद करने की लिए, अपनी बिक्री आय को पूर्वनिर्धारित करने का इच्‍छुक था. मंत्रालय विज्ञापनों को प्रमाणित करने के लिए छोड़ देने पर सहमत हो गया कि इनका उद्‍देश्य वितरण को बढ़ाना नहीं बल्कि उसके विज्ञापन शुल्कों को न्यायोचित ठहराने के लिए है. उसने प्रस्ताव को यह कहकर ख़ारिज़ कर दिया कि विज्ञापन अख़बार के अभिन्‍न अंग हैं तथा इससे अतिरिक्‍त दस्तावेज़ी समस्याएं उत्पन्न होंगी. हमने विज्ञापन को घटाने के आधे अतिरिक्‍त मूल्य को कम करने का प्रस्ताव दिया. एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल ने प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया. हमने उन्हें जवाब दिया कि ''आपकी एक ऐसे व्यापारिक समुदाय में रुचि नहीं है जो सूचनाएं प्रदान करे. आप विज्ञापनों को बेंचकर पैसे बनाना चाहते हैं.'' इसका कोई जवाब नहीं मिला.
दिसंबर १९८७ में अमरीकी मालिकान वाले फ़ार ईस्टार्न इकोनोमिक रिव्यू ने एक मार्क्सवादी षडयंत्र में शामिल २२ लोगों के गिरफ़्तारी के संदर्भ में मेरे और सिंगापुर के आर्कबिशप के बीच एक बैठक का हवाला प्रकाशित किया. आलेख एक पादरी द्वारा दिए बयान पर आधारित था जो बैठक में मौजूद नहीं था. लेख में आरोप था कि मैंने आर्कबिशप की जानकारी के बिना प्रेस कांफ़्रेंस बुलाई थी, उनके उपस्थित रहने का तिकड़म किया था तथा उनके द्वारा दिए गए वक्‍तव्य के व्यापक प्रसारण में रोक लगाई थी. आलेख में कहा गया था कि गिरफ़्तारी कैथोलिक चर्च पर आक्रमण के लिए की गई थी. मेरे प्रेस सचिव ने यह पूछने के लिए लिखा कि उसने मुझसे या आर्कबिशप से तथ्यों की जांच किए बिना एक ऐसे आदमी के वक्‍तव्य के आधार पर आलेख क्यों लिखा जो बैठक में उपस्थित ही नहीं था. संपादक डेरेक डेविस ने इस पत्र को प्रकाशित तो किया लेकिन सवाल का जवाब नहीं दिया. हमने दुबारा सवाल किया. संपादक ने इस बार पत्र प्रकाशित करने के साथ ही कहा कि पादरी का कथन सही है. उसने दावा किया कि क़ानूनी तौर पर अख़बार जो चाहे सच या झूठ प्रकाशित कर सकता है जब तक कि वास्तव में दिए गए बयान को उद्धृत करने वाले स्रोत का उल्लेख करने में सक्षम हो. अपने स्रोत की सच्‍चाई को प्रमाणित करने हेतु, तथ्य को स्वयं जांचने के लिए अथवा अपनी धारणाओं को अन्य प्रत्यक्षदर्शियों या गवाहों द्वारा प्रमाणित करने के लिए वह बाध्य नहीं है. किसी झूठ अथवा अवमानना के प्रकाशन के लिए उसे उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता. डेविस अड़ियल तथा अवज्ञाकारी था. हमें रिव्यू को ९००० से ५०० प्रतियों तक सीमित कर दिया. मैंने उसके तथा टाइम साप्ताहिक के ख़िलाफ़ अवमानना याचिका दायर कर दी. तब उसने पादरी का दूसरा पत्र प्रकाशित किया जिसमें आर्कबिशप के साथ मेरी बैठक का नया हवाला था. हमने यह पूछने के लिए पत्र लिखा कि बैठक के बारे में उसके दो संस्करणों में से कौन सा सही है? साप्ताहिक ने मेरे प्रेस सचिव के पत्र को संपादित करके प्रकाशित किया तथा यह कहकर कि मामला न्यायालय में विचाराधीन, उस पत्र में काफ़ी काट छांट कर दिया. हलांकि जब सिंगापुर सरकार ने अख़बार में पत्र को प्रकाशित करने के लिए विज्ञापन की जगह ख़रीदा तो वह प्रकाशित हुआ. तब न्यायालय में ''विचाराधीन'' होने को ठेंगा दिखा दिया गया.
१९८९ में जब डेविड गवाही देने तथा प्रति परीक्षण के लिए न्यायालय नहीं पहुंचा तो मैंने अवमानना का मुक़दमा जीत लिया. डेविड ने फिर जल्द ही रिव्यू को अलविदा कह दिया.
एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल के साथ हमारे मामले के सुलझने से पहले अप्रैल १९८८ में अमरीकन सोसाइटी आफ़ न्यूज़पेपर्स इडीटर्स की बैठक में बोलने के लिए वाशिंगटन आमंत्रित किया गया. मैंने इसे स्वीकार कर लिया. मैंने अमरीकी राज्य विभाग की कटुस्मृतियों का ज़िक्र किया कि ''प्रेस जहां मुक्‍त हैं वहां बाज़ार में ज़िम्मेदारी के ऊपर ग़ैर ज़िम्मेदारी हावी रहती है.'' मैंने स्पष्ट किया कि प्रेस का अमरीकी माडल पूरी दुनिया में एक समान वैध नहीं है. फिलिपींस प्रेस अमरीकी माडल पर आधारित था. वह सारी स्वतंत्रता का उपभोग तो करता है लेकिन फिलिपीनी जनता के मामलों में असफल है. विभेदीकृत प्रेस फिलिपीनी राजनीतिज्ञों को विचारों/तरीक़ों के बाज़ार में तात्कालिक नुस्ख़े परोसता है तथा लोगों को घनचक्‍कर में डाल देता है ताकि लोग एक विकासशील देश में अपने व्यापक हितों को न पहचान सकें. मैंने कहा-- '' सिंगापुर की घरेलू बहस सिंगापुरियों के लिये है हम अमरीकी पत्रकारों को सिंगापुर में उनके देश के लोगों की रिपोर्टिंग करने की अनुमति देते हैं हम सिंगापुर में उनके अख़बारों को बेचने की अनुमति इसलिये देते हैं ताकि हम यह जान सकें कि विदेशी हमारे बारे में क्या पढ़ रहे हैं? लेकिन हम अपने यहाँ उन्हें ऐसी छूट नहीं देंगे कि वे एक ऐसी भूमिका निभायें जैसा अमरीकी मीडिया अमरीका में निभाता है. यह भूमिका पर्यवेक्षक, सलाहकार तथा प्रशासन को हमेशा कोंचते रहने की भूमिका होती है. सिंगापुर में किसी विदेशी चैनल को अपने कार्यक्रमों को प्रसारित करने का अधिकार नहीं है अमरीका के संघीय संचार परिषद की नियम संहितायें किसी विदेशी को एक टी.वी. अथवा रेडियो स्टेशन में २५ प्रतिशत के ज्यादा से मालिकाने पर रोक लगाती हैं. अमरीका में मतों/दृष्टिकोणों को प्रभावित करने वाले व्यापार पर सिर्फ़ अमरीकियों का ही नियंत्रण हो सकता है. तभी तो रूपर्ट मुडरोक को मेट्रोमीडिया समूह के स्वतंत्र टी.वी. स्टेशन को ख़रीदने से पहले १९८५ में अमरीकी नागरिकता लेनी पडी़.
'' इन मामलों से सिंगापुरियों को समझ में आया कि देशी प्रेस बढ़ते अंग्रेज़ी भाषी लोगों के बीच अपना अख़बार बेचना चाहते हैं.ऐसा करते हुए वे तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने की ओर भी अग्रसर रहते हैं. स्वाभाविक है कि वे अपने पक्षपातपूर्ण अथवा तोडे़ मरोडे़ गये तथ्यों वाले आलेखों को ठीक करना भी पसंद नहीं करते. जब उन्हें यह सीख मिली कि अगर वे हमारी बाहें मरोड़ेंगे तो हम उनकी नाक उमेठ लेंगे तब पूर्वाग्रह ग्रस्त रिपोर्टिंग थोडी़ कम हुई.
१९९३ में एक प्रभावी ब्रिटिश साप्ताहिक इकोनामिस्ट ने एक रिपोर्ट छापी जिसमें उसने हमारे द्वारा एक सरकारी अधिकारी तथा एक अख़बार के संपादक व रिपोर्टर पर सरकारी गोपनीयता अधिनियम (आफिसियल सिक्रेट्स एक्ट) के अंतर्गत की गयी क़ानूनी कार्यवाही की आलोचना की. हमने आलेख में छपी ग़लतियों को ठीक करने के लिये संपादक को एक पत्र भेजा उसने यह दावा करते हुए पत्र प्रकाशित किया कि ''ऊपरी तौर पर उन्हें छुआ नहीं गया है लेकिन व्यवहार में सारी कार्यवाई की गयी है'' उसने एक प्रमुख सूत्र वाक्य लिखा- ''सरकार गोपनीयता अधिनियम की दरारों को बिना विरोध किये नहीं पाटेगी, किसी को असहमति अथवा चुनौती देने की अनुमति नहीं देगी जैसा कि ब्रिटेन में चार्ल्स पोटिंग के मामले में हुआ तथा जैसा कि पीटर राइट की पुस्तक 'स्पाइकैचर' के मामले में हुआ, वह धीरे-धीरे क़ानून में बदलाव नहीं ला सकती'' हमारे पत्र का पूरा मजमूआ था- ''अधिकारिक गोपनियता वाले क़ानून को चुनौती देने तथा उसमें धीरे-धीरे बदलाव लाने की छूट हम अपने प्रेस को नहीं दे सकते. ब्रिटिश प्रेस यह करने में तब सफल हुआ जब एक सरकारी नौकरशाह पोटिंग ने बेलग्रानों के फ़ाकलैंड युद्ध में पराजय के दौरान गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक किया था तथा अर्जेंटीना युद्ध के दौरान एम-१६ के अधिकारी राइट ने किताब प्रकाशित करके गोपनीयता के नियम को तोडा़ था. हमने भूलों को सुधारने के लिये संपादक को एक पत्र लिखा. संपादक ने बिलबिला कर छापने से इंकार कर दिया. हमने प्रकाशन को सूचीबद्ध किया और इसका वितरण ७५०० प्रतियों तक सीमित कर दिया. हमने स्पष्ट किया कि वितरण धीरे-धीरे और कम किया जायेगा तथा पत्रों के आदान प्रदान को प्रकाशित किया तब इकोनामिस्ट ने इस वाक्य के साथ हमारा पत्र छापा. एक उचित अंतराल के बाद हमने प्रतिबंध हटा लिया.
स्वयं मीडिया पर आक्रमणके बारे में मैं अपने आलोचकों से आमना-सामना करने को तैयार था. १९९० में लंदन टाइम्स के बर्नाड लेविन ने मुझ पर आक्रमण करते हुए सिंगापुर की आलोचना के बारे में लिखा. उन्होंने '' ग़लत नियमों'' तथा ''अपनी दुनिया में असहमति की अनुमति न देने के उन्मादी निर्णय'' का आरोप लगाया. इंग्लैंड में, जहाँ मुझे ज़्यादा लोग नहीं जानते थे तथा जहां मेरा कोई मतदाता नहीं था, लेविन को तलब करना बेमतलब था. फिर भी, उनके आरोपों पर लंदन में टी.वी. पर सीधी बहस के लिये मैने उन्हें आमंत्रित करने के प्रस्ताव के बारे में लिखा. लेविन के संपादक ने लिखा कि इसमे किसी टी.वी. स्टेशन की रूचि नहीं है. तब मैने सावधानीपूर्वक बी.बी.सी. के अध्यक्ष अपने दोस्त मर्माड्यूक हसी को लिखा जो आधे घंटे तथा एक तटस्थ प्रस्तोता देने के लिये तैयार हो गये. लंदन टाइम्स को जब मैने इसके बारे में सूचित किया तो लेविन की तरफ से नियुक्त संपादक यह कहते हुये पीछे हट गया कि मेरा जबाब उसी माध्यम से होना चाहिये जिस माध्यम से लेविन ने आक्रमण किया है और उसने टाइम्स का नाम लिया. मैने अपना सामना करने के अनिच्‍छुक लेविन पर अफ़सोस जताया. टाइम्स ने मेरा पत्र छापने से जब इनकार कर दिया मैने ब्रिटिश दैनिक इंडिपेंडेंट में आधे पेज का विज्ञापन दिया. बी.बी.सी. की विश्व सेवा से साक्षात्कार में मैने कहा- ''मेरे वहाँ से आने के बाद भी अगर आरोपी उस आदमी का सामना करने के लिये तैयार नहीं है जिस पर उसने आक्रमण किया था तो ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है.'' तब से लेविन ने सिंगापुर या मेरे बारे में कुछ नहीं लिखा.
एक अन्य जगह, मैं अपनी एक आक्रामक आलोचना का टेप रिकार्डेड आदान प्रदान के माध्यम से जवाब देने पर सहमत हो गया. यह आलोचना विलियम सफ़ायर की थी जो लगातार मुझे सद्‍दाम हुसैन जैसे तानाशाह के समकक्ष बता रहा था. जनवरी १९९० में जब हम दोनों दावोस में थे तो उसने मुझसे एक घंटे तक जवाब तलब किया. इसी के आधार पर उसमे न्यूयार्क टाइम्स में दो आलेख लिखे तथा टाइम्स के इंटरनेट संस्करण पर बातचीत की लिखित प्रति प्रकाशित किया. हमने सिंगापुर के अख़बार में उसके आलेख को पुनर्प्रकाशित किया. अमरीकियों में रिकार्डेड संचार तथा तथा अन्य जिन्होंने इंटरनेट पर पूरा पाठ पढ़ा, उनके बीच मैंने बातचीत के अंतर को रेखांकित किया.
विदेशी मीडिया द्वारा की जा रही आलोचना का अगर हम जवाब नही देते तथा उसके ख़िलाफ़ अगर हम नहीं खड़े होते तो सिंगापुरी लोग, विशेषकर पत्रकार तथा अकादमिक जगत के लोग सोचते कि उनके नेतृत्वकारी लोग डरते हैं अथवा तर्क वितर्क में कमतर हैं, तथा वे हमारे लिए अपने सम्मान का भाव खो देते.
सूचना तकनीकी के उच्‍च विकास, सैटेलाइट प्रसारण तथा इंटरनेट द्वारा पश्‍चिमी मीडिया के संजाल अपनी रिपोर्टों तथा दृष्टियों द्वारा हमारे घरेलू श्रोता-पाठक वर्ग को अपने अनुसार ढालने में तत्पर रहेंगे। जो देश सूचना तकनीकी को रोकने की कोशिश करेंगे वे पराजित होंगे। हमें सूचनाओं के इस सतत प्रवाह का प्रबंध करना सीखना होगा ताकि विदेशी मीडिया द्वारा सिंगापुर सरकार के दृष्टिकोणों का दम न घोंटा जा सके। १९९८ में इंडोनेशिया में खलबली तथा मलेशिया में मुद्रा को आधार बनाकर व्यापक गड़बड़ी उनके घरेलू मामलों में विदेशी मीडिया नेटवर्क, इलेक्ट्रानिक तथा प्रिंट दोनों, द्वारा निभाई गई प्रभावी भूमिका के उदाहरण हैं। हमें यह निश्‍चित करने का पूरा इंतजाम करना होगा कि वाक्जाल के तूफ़ानी अंधड़ में भी सिंगापुर सरकार सुनती है। सिंगापुरियों के लिए यह ज़रूरी है कि वे देश के प्रमुख मुद्‍दों पर अपने सरकार की आधिकारिक स्थिति को स्पष्ट करते रहें। कथादेश से साभार अनुवाद: अनिल

15 सितंबर 2009

अगली बारिश के पहले

तो सोचा ये
“कोई कब तलक यूँ ही राह देखेगा
और सोचगा चाँद रात की बात
ख़्वाब जितने थे शायद लालाज़ार हुए
अब तो शाहिद-ए-गुल भी बाग से बाज़ार हुए?
वही सागर वही साक़ी वही मीना है
आख़िर कितनी बारिशों का तल्ख़ जाम पीना है
कि मौसम का मुसाफ़िर तो चलता जायेगा
उसेे मंज़िल की दरकार नहीं शायद
मगर हम सब
औलाद हैं जन्नत से धकेले गये इंसान की
फ़रावाँ दर्द अब कितना समेट पायेंगे
सराब-ए-दहर से कब तक फ़रेब खायेंगे,
जहां
सय्याद है असीरी है
रोता हुआ फ़नकार जबीं ख़ाक पे घिसता शायर
बस्तियाँ वीरान सपनों के नगर जलते हुए
अब न देखेंगे तहज़ीब के सूरज को यूँ ढलते हुए
चलो अब अपने आप से मिलते हैं
यहां नहीं उसी मैकदे में चलते हैं
जिसकी आराइश में है हुजूम-ए-नुजूम
जाम-ए-अफ़लाक़ में छलकती है कहकशाँ की शराब
और माहताब का तवील सफर
देता रहता है पैग़ाम-ए-सहर
धूप आती है मगर साये का कोई काम नहीं
न ख़िरद न जुनूँ न ही लुत्फ़-ओ-सितम
सांसो का तार भी सितारों में ढल गया होगा।”

मगर आदत नहीं थी जल्दबाजी़ की
बड़े सुकून बड़े सुकूत से आगे बढ़तेे थे
जो था अव्वल उससे ये ख़्याल किया शायद....।

“वो जो शहरताश है शनास नहीं
इसी शहर-ए-तमद्दुन में क़याम करते हैं
कम से कम इतना तो जतन कर लें
उन हम ख़्यालो को हम वतन कर लें
जब इरादा ही कर लिया पुख़्ता
तो फिर क्यों किसी को भरमायें
चलो रिज़्वाँ से जाके कहते हैं
कम से कम इतना करम तो फरमायें
वो जो साहब-ए-तमकी ज़मी पे रहते हैं
क्यों न वो भी यहां चले आयें
न उसी रोज़ सही कोई शिकवा भी नहीं
अगली बरसात से पेश्तर तो आ जायें।”

तो क्या ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेगें दीवाने...

अजब सी कैफ़ियत से रूबरू हैं हम
जबकि अब ये हमारे दर्मियान नहीं
चाँद हो सकते हैं सितारे या घटायें भी कहीं
जितना सोचो उतने पेंच बढ़ते हैं
सोगवार अज़ीज़ रो से पड़ते हैं
मगर जब बारहा बड़े एहतियात से ग़ौर किया
लम्हा-ए-सोहबत-ए-मय को बार-बार पिया
अल हासिल ये
उनकी नर्मज़ुबानी में ग़ज़ब का जोश होता था
मुज़्हमिल शामोें में भी ताबिंदा होश होता था
आजुर्दा लम्होें में भी फ़रायज़ का इल्म रहता था
और तवज्जोे इस बात पर भी होती थी
कि ख़ुरशीद के ढलने के साथ-साथ
जब सियाह रात के आसेब डैने खोलेंगे
कितने पज़मुर्दा गुल डाली से टूट जायेंगे
सुब्ह जब माहताब का ताब ढल सा जायेगा
कितने सपने आँखों से छूट जायेंगे।

कि क़ायम नहीं क़ुदरत पे क़ाबू में हो किसी के
वो और बात है
कि
मौसम का रूख़ देखकर ही मल्लाह कश्ती लाते हैं
आख़िर किसी भरोसे पर ही तो हम सब
इस चमन में आशियां बनाते हैं
मगर नग़म-ए-मर्ग
फ़स्ल-ए-लाला-ओ गुल का पाबन्द नहीं
इक ऐसा राज़ है जो हर वक़्त कहीं न कहीं
फरज़न्द-ए-आदम पे खुलता रहता है
पर इक बात है जो दिल में उठती है...
परियों की, दश्त-ओ-सहरा मेें बिछड़े लोगोें की
इश्क़ की, सोने के महल, जलती हुई चट्टानोें की
उड़ते घोड़ों की, दीवानों की दिल के मारों की
ग़रज़ ये कि बचपन से आज तक
जितनी कहानियों को जाना है
उन सब में भी राज़ खुलता था
किसी सिहरन, किसी मौसम या रक़्स-ए-कलाम के बाद
हमपे भी ये काला तिलिस्म खुला
इक नहीं बारहाबार खुला... मगर पहले
और फिर हम
तमाम नस्ल-ए-आदम की तरह
देखते ही रह गये बादशाही-ए-मिट्टी का जलाल
क़ुवत-ए-क़ुदरत की कारसाज़ी का कमाल
जिसकी तौफ़ीक ने
दी सदाक़त, रग-ए-बातिल, नक़्काद और तनकीद दिये
आरज़ू, शौक़, तमन्ना, फ़स्ल,-ए-गुल, दौर-ए-ख़िजाँ
गूँगी शामें भी कीं आवाज़ के सूरज भी किये
फ़ना का जज़्बा भी दिया, तूफान-ओ-तलातुम भी दिये
तार-ए-नफ़स भी दिया, बर्क़, मौज, शहीदी, ग़म-ए-जाँ
बुलबुल, गुल-ओ-शबनम, गुलिस्ताँ बाद-ए-सबा
शोला, सीमाब भी, परवाज़ भी परिंदे भी दिये
दश्त-ओ-दमन, हैवान, सबात, नामूस-ए-ज़बीं, रेगे रवाँ,
आग, आसमान, तूफ़ान और सफ़ीने भी दिये
अंजुमन-ए-आराई, अज़ाख़ाना और न जाने क्या-क्या
जो गिनते जाओगे तो खुद को भूल जाओगें
बहरहाल
उस लम्हा कोई फ़र्क नहीं पड़ता
ज़हर हो, आब-ए-हयात, कोई माजिज़ाँ या बर्क़ लहराये
तुम्हें रोकने की ख़ातिर सारी दुनिया ही चली आये
आयें पीर-ओ-पैयम्बर मुर्शिंद-ओ-औलिया आयेें
कोई संजीवनी लाये या येस्पिरेटर ही उठा लाये
पंडित मौलवी आलिम-ओ-फ़ाज़िल भी आ जायें
कि जितनी भीड़ बढ़ती है तन्हाई उतनी पसरती है।
हाँ
तो ज़िक्र होता था वक़्त कटने का
फ़सील-ए-आसमाँ की चैखट पर
मुख़्तलिफ दीवानोें के साथ मिलने का
चलो माान लें कि आती बारिश के बाद
तमाम अहबाब को यह ख़्याल आये
कि ख़ूब गुज़रेगी तो मिल बैठेंगे... मगर
कै़स जंगल में अकेला ही तो था...।
जब उलझे रहते थे फ़िक्र-ए-दुनिया में
राधिका, राघव, चम्पुल तो कभी मुनिया में
तब भी तबियत मेें बेदारी बेनियाज़ी थी
गुल, हँसी, प्यार, दुआ सब्र का गहना
अपने दामन में समेट लाते थे
गुज़रते सालों की सिलसिलेवार
दावत में ख़ामोश और संजीदा रहकर
बड़े ख़ुलूस से बस पेश होते जाते थे

जब हम सफ़र ने दूसरी दुनिया में बनाया था मक़ाम
तब भी नींव तक हिल गया था ये दीवान-ए-आम
कितनी तन्हाइयोेें मेें डूब गया होगा वो दिल
जिसको ये सोचना था कि अब क्या हासिल
मगर ये ज़र्फ़-ए-शख़्सियत था जो कहता था
ये दीवाने आम तुम्हारा ही नहीं सबका है
दादाजानी, बड़ी दीदी, छोटे बच्चों की ज़बीं का क़शक़ा है
अब जब ये दीवान-ए-आम सूना है
सारे घर का एक अहम मगर ख़ामोश सा कोना है
जिसकी दर-ओ-दीवार-ओ-दरीचे अब भी
नज़र आते हैं ख़ाना आबादाँ की तरह।

ऐसे साहिलों को भी इनने माफ़ किया
जो हर लम्हा इस शिकायत से जूझते रहते थे
भला ये समंदर हमें क्या देता है
जो शब-ओ-दिन माहल रहकर
सारे नशेमन पर रखते थे नज़र
वो परिंदे भी यहाँ पाते थे पनाह
और जैसे किसी शायर ने यह बयान किया
वो हवाख़्वार-ए-चमन हूँ कि चमन में
पहले मैं आया और बाद-ए-सबा मेरे बाद
सफ़र-ए-आख़िर में भी इस अहद पे क़ायम थे जनाब

ये इरादों के बड़े पक्के थे
दौर-ए-आलाम में भी ये कह के हँसा करते थे
ज़रा ग़ौर से देखो कि इस दुनिया में
कितने ग़म हैं जिनका हमें इल्म नहीं
यही जज़्बा था जो रग-ए-जाँ में रहकर
क़श्ति-ए-ज़ीस्त को लिये जाता था मौज-ए-दरिया के ख़िलाफ़।

और अब
“ये जो सिरहाने पे झिलमिलाता है चराग़
आओ और ज़रा ग़ौर से देखो
कि जले हैं खुद तो ये परछांइयाँ निकाली हैं
इक बुत-ए-माज़ी है और कितने सवाली हैं
ये शहर-ए-जिस्म
जो अनासिर से तामीर हुआ रेज़ा-रेज़ा
क़ज़्ज़ाक-ए-अजल से थर्रा कर
कैसे बिखरा पड़ा है सफ़ेद सिल्लियों पर
और अंजुमन-ए-आरजू भी
तवीपगडंडियोें पे चलते चलते
थक के अज़दाद की बाहों में सोने आयी है
आशना मर्ग से ये दिल आज होता है
इक दीवार की दूरी थी क़फ़स
तोड़कर सारे सलासिल
अब चमन में सोता है
अज़ाब है अज़ीज़ों की ग़मगुसारी भी
नींद भी टूटती है ख़ुमारी भी
कि अब
इस मकाँ के खुले दर मत देखो
खुशियाँ अब एक नहीं रूकने वाली
हाँ
सारे ग़म ही आज़ाद होते जायेंगे
हमारा सुकूत-ए-सुख़न हमारी लामकाँ हसरत
बाहम
मुल्क-ए-अदम को अब अपना घर बनायंेगें”।

और
यहाँ फ़र्दा में
याद कर गहरी लकीरें वो पेशानी
रतजगे भी मनाने में लिये आयेंगे
हर सिम्त ओ हर लम्हा कहीं न कहीं
धुधलायी शाम और तमन्ना के शबिस्तानों में
कितने ख़्वाब ख़ुशबू से बिछड़ जायेंगे
अगली बारिश से पहले...बाद...मुसलसल...
शायद...।



अखिलेख दीक्षित, जनसंचार माध्यम एवं संगप्रेषण विभाग, म।गां.अं.वि.हि.वि.वि., वर्धा

11 सितंबर 2009

मीडिया, पूजी और जातिगत वर्चस्व

व्यवसाय का मामला महज़ पूजी से नहीं जुडा़ होता. वर्गीय वर्चस्व के साथ-साथ समाज की वे अन्य संरचनायें भी सम्मलित होती हैं जो किसी भी समाज में मौजूद हैं. भारत जैसे देश में जहाँ जातियाँ अपने जटिल संरचनाओं के साथ मौजूद हैं वहाँ जातिगत वर्चस्व का किसी भी व्यापार में होना एक स्वाभाविक सी बात है। यहाँ पूजीवाद का स्वरूप उत्पादन और मुनाफे के साथ उन तमाम असमानता युक्त विभेदीकृत श्रेणीयों के साथ जुडे़ हैं जो देश के अलग-अलग क्षेत्रों में लागू होते हैं।
ऎसे में मीडिया का व्यवसाय उससे अलग नहीं है. हिन्दी प्रदेश के क्षेत्रों में मालिकानी है सियत से इस कब्ज़ेदारी को साफ तौर पर देखा जा सकता है खासतौर से मीडिया के बडे़ उद्योग जिनमें इंडिया टूडे, आजतक, पंजाब केसरी, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, आज व जी नेटवर्क पर बनिया खत्री एवं माड़वाडि़यों का कब्जा है. हिन्दी भाषी क्षेत्र अपनी रूढी़गत संरचना के साथ मीडिया में भी मौजूद है।
इसका अर्थ सिर्फ यही नहीं लगाया जाना चाहिये कि हिन्दी क्षेत्र की मीडिया में उपरोक्त जातियों का वर्चस्व केवल मीडिया पर उनके कब्जेदारी को दिखाती है बल्कि यह अपने जातियों के हित में काम करने को भी दर्शाती हैं इसके साथ एक पक्ष यह भी जुडा़ होता है कि हिन्दी क्षेत्र के अन्य अधिकांश व्यवसायों पर भी बनिया, माड़वाडी़ व खत्रीयों का ही कब्ज़ा है. ऎसे में जातीय वर्चस्व के आधार पर स्थापित इन व्यवसायियों के अन्य व्यवसायों के अंतर्विरोधों को लोगों तक पहुंचाने वाले माध्यम जातिय हितों के चलते इन्हें परिलक्षित नहीं होने देते. अपने आर्डियंस जोकि मेन स्ट्रीम के रूप में एक बडा़ समुदाय है को इनके परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन में खडा़ करते हैं. जबकि दक्षिण भारत में मीडिया मालिकान का सवरूप इससे भिन्न है. ऎसा वहाँ के मीडिया व्यवसायियों की जातीय संरचना को देखते हुए समझा जा सकता है यहाँ इनाडू (कम्मा), डेली थान्थी (नादर), मलयालया मनोरमा ( सायरियन क्रिस्चियन), द हिन्दू व दिनमालर ( ब्रह्मण ), डक्कन क्रानिकल व आन्ध्रभूमि (रेड्डि), डेक्कन हेराल्ड और प्रजावाणी ( इडिगा) सन नेटवर्क और दिनकरण ( इसाई बेल्ललर), एशिया नेट (नायर), टी.वी. ९ राजू, यानि अलग-अलग जातियों के कब्जे हैं।
अतः इस रूप में समाज के जातिगत अंतर्विरोध किसी न किसी माध्यम से आने की सम्भावना बन सकती है. परन्तु इसके बावजूद वर्गीय एकता एक सार्वभौमिकी के रूप में पूजीवादी समाज में विद्यमान रहती है. जिसको पकड़ना व सामने लाना इनके लिये दुरूह होता है क्योंकि इन बडे़ मीडिया व्यवसायों को यही लोग टिकाये हुए हैं. इस रूप में जातिगत वर्चस्व को राज्य के अलग-अलग राष्ट्रों में देखने के आधार भिन्न होते हैं बल्कि इस बात पर निर्भर करते हैं कि वहाँ के समाज की संरचना में ये रूढि़गत भावनायें कितने हद तक मौजूद हैं.

10 सितंबर 2009

निजीकरण के खिलाफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्र आंदोलन

अनुराग शुक्ला
सुना है पूरब के आक्सफोर्ड के जन संचार विभाग के उन कुर्सियों पर बैठ कर पढने वाले स्टूडेंट शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ लडाई लड रहें हैं जिन पर बैठ कर कभी हम पढा करते थे मेरठ में बैठ कर भी पोर्टल और ब्लाग पर पढा है कि केंद्रीय यूनिवर्सिटी बन जाने के बाद भी कोई प्राक्टर साहब स्टूडेंट को मुर्गा बना रहें हैं दोनों खबरें सुनी और एक स्वनाम धन्य तथाकथित अकादमिक रूप से दक्ष वीसी के वक्त में ऐसा हो रहा है अनुशासन के नाम पर तानाशाही की जा रही है और पढा लिखा वाइस चांसलर कह रहा है कि खबरनवीस की क्या हैसियत जो मुझसे बात करें सुना है और कभी कभी देखा भी है कि अकादमिक रूप से बेहद जानकार ये आदमी पूरे शहर का फीता काट सेलीब्रेटी बन चुका है अपने से सवाल पूछने से ये साहब इतने नाराज हुए कि जनसत्ता के संवदादाता राघवेंद्र के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी अब यूनिवर्सिटी में पच्चीस साल पुराने जन संचार विभाग होते हुए भी ये साहब जगह जगह यूनिवर्सिटी में अखबार के अखाडे बाज पैदा करने की दुकाने खुलवा रहे हैं
जन संचार विभाग में पढाने वाले सुनील उमराव ने जब शिक्षा की इस दुकानदारी के खिलाफ आवाज उठाई सैंकडो स्टूडेंटस ने कैम्पस में इस डिग्री खरीद प्रथा के खिलाफ झंडा बुलंद किया तो सुनील को नोटिस भेजी गई है कि आप अराजकता का माहौल फैला रहे हैं हम लोग भी राजीनीति विज्ञान के स्टूडेंट रहे हैं और अराजकता और तानाशाही का मतलब बखूबी समझते हैं प्लानिंग कमीशन की भी शोभा बढा चुके वाइस चांसलर साहब जो कुछ कर रहे हैं वो तानाशाही और अराजकता देानों पर फिट बैठता है रही अराजकता और सुनील उमराव की बात तो सुनील सर का स्टूडेंट रहा हूं सिर्फ मैं नहीं बल्कि मुझसे पहले और बाद में उनके स्टूडेंट रहे लोग अगर ईमानदारी से बोलेंगे तो हर कोई कहेगा कि सुनील सर कम से कम अराजक नहीं हो सकते और संस्थागत बदलावों में यकीन रखते हैं मीडिया के नाम पर खोली जा रही दुकानों में किसी फूं फां टाइप सेलीब्रटी को बुलवाकर फीताकाट जर्नलिज्म नहीं पढाते हैं कि आप ने साहब सबसे तेज चैनल पर बोलने वाली किसी खूबसूरत एंकर के दर्शन कर लिए और आप बन गए जर्नलिस्ट
खैर बात को अब शिक्षा के निजीकरण पर लौटना चाहिए यूनिवर्सिटी अब केंद्रीय हो चुकी है अब उसके पास केंद्र सरकार से मिलना वाला अकूत पैसा है तब यूनिवर्सिटी में अखबारनवीस पैदा करने वाले फ्रेंचाइजी खोलने की क्या जरूरत आन पडी है अगर ज्यादा व्यापक पैमाने पर बात की जाए तो प्रोफेशनल स्टीजड जैसे छलावे बंद किए जाएं और जनसंचार की पढाई को कम से अलग रूप में देखना ही पडेगा अगर मीडिया को चैथा खंभा कहना का नाटक अभी कुछ हद तक जारी है तो कम से कुछ ऐसे लोग हैं जो मीडिया की जन पक्षरधरता बरकरार रखने की लडाई लड रहे हैं ये लडाई सिर्फ सुनील उमराव की लडाई नहीं है आईआईएमसी से पढे राजीव और जनसंचार विभाग के स्टूडेंट रह चुके शहनवाज इस जनपक्षधरता की लडाई लड रहे हैं मुझे नहीं पता कि अपने अकादमिक जगत में मस्त वाइस चांसलर इनकी उपलब्ध्यिों को कितना जानते हैं लेकिन शहनवाज और राजीव ने आतंकवाद के मसले पर जितना बढिया काम किया है उसे अगर वीसी साहब जानते होंगे तो उन्हें जरूर गर्व होगा कि ये लोग कभी इस यूनिवर्सिटी से जुडे रहे हैं और आज भी यूनिवर्सिटी इनका कार्य स्थल है इनके काम से व्यक्तिगत रूप से वकिफ रहा हूं और दावे से कह सकता हूं कि ये उन्हीं संस्कारों की देन है जिनकी लडाई सुनील आज यूनिवर्सिटी में लड रहे हैं ये जन पक्षधरता और डेमोक्रेटिक वैल्यूज के संस्कार थे कि शहनवाज भाई ने एक प्राक्टर की गुंडागर्दी के खिलाफ उसके आॅफिस में घुसकर मुंह काला किया था ये शहनवाज के संस्कार थे कि गुंडागर्दी किसी प्राक्टर की ही क्यूं न हो बर्दाशत नहीं की जाएगी राजीव ने भी सरायमीर और आजमगढ की लडाई में कितने पापड बेले ये शायद विकास की टिकल डाउन थ्योरी में यकीन रखने वाला ब्यूरोक्रटिक किस्म का अकादमिक न समझ पाए लेकिन आप के न समझने से इनकी लडाई कमजोर नहंी पड सकती है हां अगर आप समझ जाए तो शायद दो चार लाख रूपए देकर डिग्री खरीदने वाले हम्टी डम्टी छाप स्टूडेंट के अलावा ऐस भी कुछ लोग पढाई लिखाई की दुनिया में कुछ कर सकते हैं जिनके बारे में अपना मोर्चा में काशीनाथ सिंह ने लिखा है मुझे पता है आप अंग्रेजी भाषी हैं और अपना मोर्चा नहीं पढा होगा आप कंपनी बाग के उन फूलों के बारे में नहंी जानेते होंगे जो ब्यूरोक्रसी के ढांचे में अपनी जगह बनाने के लिए इतने तंग कमरों में रहते हैं कि दोपहर की धूप में भी उन तक रोशनी नहीं पहुंचती है काश आप अगर उनके बारे में जानते होते तो दो दो चार लाख रूपए लेकर सपनों की बिक्री नहीं करते एजूकेशन हिंदुस्तान में इंस्पििरेशनल वैल्यू रखती है डिग्री बहुतों के लिए सपना ही है आप पढे लिखे समझदार आदमी हैं कम से कम डिग्रियों को कारोबार मत करिए दो चार लाख में डिग्री बेंचना उस जालसाजी से अलग नहीं है जिसमें नकली डिग्रियां बेंची जाती हैं मीडिया की पढाई बीटेक और मैनेजमेंट जैसी पढाई भी नहीं है अगर ये मान भी लिया जाए कि अखबार प्रोडक्ट है तो भी अखबार कम से कम ऐसे प्रोडक्ट है जिसकी कुछ सामाजिक जिम्मेदारयां हैं इसे अखबार मालिक, कलमनवीस से लेकर अखबारनवीस तैयार करने वालों, सबको समझना चाहिए आप अगर सेल्फ फाइनेंस के नाम पर पैसे देकर खबरनवीस तैयार करने के धंधे को बढावा दे रहे हैं तो आप जाने अनजाने या यूं कहिए कि जान बूझ कर उस परम्परा के भी पक्षधर बन रहे हैं जो पैसे लेकर खबरें छाप रहे हैं जो पैसे देकर खबरनवीस बन रहे हैं वे पैसे लेकर खबर छापेंगे ही पूंजी के संस्कार आखिरकार ऐसी ही दिशा में जाते हैं आज जिस विभाग के स्टूडेंट बहुत सालों बाद हक की लडाई के लिए सुनील सर के साथ सडकों पर उतरे हैं उसकी जय हो अनर्तमन के समर्थन के साथ.
पुरा छात्र पत्रकारिता व जनसंचार विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
( साथियों, आप भी इस आन्दोलन में कोई सहयोग या वैचारिक समर्थन देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। आपके समर्थन से इस आन्दोलन में नया उत्साह आएगा. अपने विचार हम तक पहुँचने के लिए आप टिप्पणी बाक्स में अपनी टिप्पणी दर्ज करें) और जानकारी के लिए देखें http://naipirhi.blogspot.com