28 जून 2010

संरचना में एकल नायकत्व

चन्द्रिका
देश की सभी संसदीय पार्टियों के सामने आज नायकत्व का संकट है. मनमोहन सिंह को जब प्रधानमंत्री बनाया गया तो वे किसी भी रूप में जन लोकप्रिय नेता नहीं थे. लोगों ने देश की जिस पार्टी को अपना समर्थन दिया उसके पास एक ऐसे नेता का आभाव था जिसकी देश में लोकप्रिय छवि हो. हाल के दिनों में कांग्रेस का यह अंतर्विरोध और भी उभर कर सामने आया जब आदिवासी प्रतिरोध के विरोधी गतिविधियों और सैन्य कार्यवाहियों के चलते पी. चिदम्बरम की लोकप्रियता बढ़ने लगी. चाहे वह जिस भी रूप में रही हो. अब तक राजनीति में लोकप्रियता के आधार इसी तौर पर निर्मित होते रहे हैं जिसमे व्यक्ति का चेहरा और नाम लोगों की नजर और जुबान पर चढ़ जाय. राहुल गांधी के अनूठे कारनामे और सनसनी दौरे इसी स्थापना के लिये जारी हैं. लिहाजा कांग्रेस के भीतर एक नये तरीके का अंतर्विरोध बढ़ा. माओवादियों को लेकर दिग्विजय सिंह के जो बयान आये वह चिदम्बरम की रणनीति के खिलाफ थे, पर पॉलिसी के आधार पर कांग्रेस ही नहीं बल्कि देश की सभी पार्टियाँ माओवाद को लेकर एक जैसा ही रुख रखती हैं. इस बयान से कांग्रेस पार्टी लोगों और बुद्धिजीवी तबके में पनप रहे विमोह को एक लोकतांत्रिक और उदार चेहरे के रूप में दिग्विजय सिंह को प्रस्तुत कर कम करना चाहती थी. दरअसल देश में अब तक जो ढांचा निर्मित हुआ है उसमे किसी भी संगठन में व्यक्ति का नायकत्व और उच्चता क्यों उभारी जाती है जबकि इसके साथ ही कोई संरचना अपने में असमान हो जाती है. किसी भी ढांचे में पदों की श्रेष्ठता और निम्नता उसे असमान आधारों पर ला खड़ा करती है. यह असमानता महज देश की संसदीय पार्टियों में ही नहीं बल्कि गैर संसदीय पार्टियों और संगठनों में भी व्याप्त है, जो इस असमानता के खिलाफ लड़ रहे होते हैं.
कोई भी संरचना अपने लिये एक मूल्य का विकास करती है. व्यवस्था के एक ढांचे में रहते हुए वैचारिक तौर पर उससे बाहर की सोच तो पैदा हो जाती है पर व्यव्हारिक तौर पर उसे लागू करना कम सम्भव होता है, जब तक कि कोई नया ढांचा निर्मित न हो जाय. इस देश में जो संरचना विकसित हुई उसने समूह के बजाय व्यक्ति को उभारने का काम किया यानि सामूहिकता के विरोध में व्यक्ति केन्द्रीयता ज्यादा हावी रही, चाहे वह आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, खेल किसी भी क्षेत्र में देखा जा सकता है. व्यक्ति की ब्रांडिंग की जाती रही और उसे सेलीब्रिटी के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा. एक ऐसा मूल्य विकसित हुआ जहाँ लोगों ने समूह, संगठन को तरजीह देने के बजाय व्यक्ति आधारित ब्रांडिंग के लिहाज से समूह व संगठन को चुनने लगे. भाजपा में रहते हुए अटल बिहारी बाजपेयी के साथ लोगों का यही बर्तव था, एक बड़ा तबका एक व्यक्ति के प्रभाव से एक पार्टी को समर्थन करता था.
इस केन्द्रीयता का विकास अचानक नहीं हुआ बल्कि यह धीरे-धीरे समाज के सभी आयामों में विकसित हुई. फिल्मों में सांगठनिक प्रतिरोध के बजाय एक व्यक्ति का नायकत्व, पार्टियों में समूह के बजाय व्यक्ति का उभारा जाना या अन्य विभिन्न सांस्कृतिक विधाओं में एक विधा को श्रेष्ठता प्रदान करना. एक ऐसे निर्माण का दौर चला जहाँ केन्द्रीयता हावी होती गयी. लिहाजा देश में राष्ट्रीय स्तर की पार्टीयों के पास बड़ा जनाधार होने के बावजूद नेतृत्व की कमी उभर कर सामने आयी क्योंकि नायक के अवसान से आये खालीपन को भरने में या नया नायक निर्मित करने में समय लगता है.
इससे संरचना को सहूलियत इस आधार पर हुई कि उस एकल नायकत्व को डिगा पाने में आसानी हो गयी जो समूह में कम सम्भव थी. हर क्षेत्र में केन्द्रीकृत प्रणाली मजबूत होती गयी और एक ही उद्देश्‍य के लिये निर्मित किये गये समूह में स्तरीकरण व्यापक गैरबराबरी के साथ सामने आया. केन्द्रीयता की अवधारणा पर बने मॉडल की यह मजबूत होती प्रणाली थी जिसमे हमेशा एक छोटे वर्ग की ही कब्जेदारी होनी तय है. देश में विभिन्न मुद्दों को लेकर प्रतिरोध करने वाले जो संगठन थे उनका टूटना भी आसान हो गया. वे इस स्वरूप से अलग कोई ढांचा विकसित नहीं कर पाये. मजदूर संगठन, किसान संगठन अनगिनत समस्याओं के बावजूद संगठित होने में नाकामयाब हुए क्योंकि कोई भी प्रतिरोध एक नायक की मंशा पर निर्भर करने लगा और सत्ता को उनकी खरीद फरोख्त में आसानी हो गयी. लिहाजा देश के परिदृष्य से बड़े और लम्बे संघर्ष गायब होते चले गये.
सत्ता संरचना से बाहर जो प्रतिरोध बचे वे या तो आदिवासियों के या फिर दलितों का एक तबका। जिसने यह मान लिया कि इस संरचना में उन्हें उपयुक्त स्थान मिलना सम्भव नहीं है. देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे संगठित आदिवासीयों के प्रतिरोध जो वर्तमान संरचना में विद्रोह के तौर पर आ रहे हैं न चाहते हुए भी यह प्रवृत्ति कम-ओ-बेस उनमे भी दिखायी पड़ती है. यह एक सत्तासीन ढांचे का प्रभाव होता है जहाँ ढांचे के बाहर लोकतांत्रिक और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले संगठन अपने स्वरूप में अलोकतांत्रिक हो जाते हैं और इसी स्वरूप में समाहित हो जाते हैं. संगठन और उद्देश्य से हटकर पदों की लोलूपतायें वहाँ भी प्रभावशाली हो जाती हैं वर्ग-संघर्ष करने वाले संगठनों में भी एक ऐसे वर्ग की श्रेष्ठता हावी हो जाती है जहाँ सबको समान अवसर नहीं मिल पाते.

22 जून 2010

''फ्लेम्‍स ऑफ दी स्‍नो'' को सेंसर बोर्ड का प्रमाणन नहीं मिलेगा



बोर्ड ने कहा, माओवाद का प्रचार करती है फिल्‍म
सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टीफिकेशन यानी सेंसर बोर्ड ने नेपाल पर बने वृत्तचित्र ''फ्लेम्स ऑफ दि स्नो'' को सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र देने से इंकार कर दिया है। बोर्ड का मानना है कि 'यह फिल्म नेपाल के माओवादी आंदोलन की जानकारी देती है और उसकी विचारधारा को न्यायोचित ठहराती है।' बोर्ड की राय में हाल के दिनों में देश के कुछ हिस्सों में फैली माओवादी हिंसा को देखते हुए इस फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जा सकती। 'ग्रिन्सो' और 'थर्ड वर्ल्ड मीडिया' के बैनर तले बनी 125 मिनट की इस फिल्म के निर्माता नेपाल मामलों के विशेषज्ञ वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा हैं और इसका निर्देशन किया है आशीष श्रीवास्तव ने। फिल्म की पटकथा भी आनंद स्वरूप वर्मा ने लिखी है।
बोर्ड के इस फैसले पर हैरानी प्रकट करते हुए पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि इस फिल्म में भारत में चल रहे माओवादी आंदोलन का जिक्र तक नहीं है। इसमें बस निरंकुश राजतंत्र और राणाशाही के खिलाफ नेपाली जनता के संघर्ष को दिखाया गया है। 1770 ई. में पृथ्वी नारायण शाह द्वारा नेपाल राज्य की स्थापना के साथ राजतंत्र की शुरुआत हुई जिसकी समाप्ति 2008 में गणराज्य की घोषणा के साथ हुई। इन 238 वर्षों के दौरान 105 वर्ष तक राणाशाही का भी दौर था जिसे नेपाल के इतिहास के एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है। फिल्म में बताया गया है कि किस प्रकार 1876 में गोरखा जिले के एक युवक लखन थापा ने राणाशाही के अत्याचारों के खिलाफ किसानों को संगठित किया जिसे राणा शासकों ने मृत्युदंड दिया। लखन थापा को नेपाल के प्रथम शहीद के रूप में याद किया जाता है। निरंकुश तानाशाही व्यवस्था के खिलाफ 'प्रजा परिषद' और 'नेपाली कांग्रेस' के नेतृत्व में चले आंदोलनों का जिक्र करते हुए फिल्म माओवादियों के नेतृत्व में 10 वर्षों तक चले सशस्त्र संघर्ष पर केंद्रित होती है और बताती है कि किस प्रकार इसने ग्रामीण क्षेत्रों में सामंतवाद की जड़ों पर प्रहार करते हुए शहरी क्षेत्रों में जन आंदोलन के जरिए जनता को जागृत किया।
फिल्म राजतंत्र की स्थापना से शुरू हो कर, संविधान सभा के चुनाव, चुनाव में माओवादियों के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित होने, राजतंत्र के अवसान और गणराज्य की घोषणा के साथ समाप्त होती है। सेंसर बोर्ड की आपत्ति को ध्यान में रखें तो ऐसा लगता है कि नेपाल पर कोई राजनीतिक फिल्म बनाने की यह अनुमति नहीं देगा। कारण यह कि आज माओवादियों की प्रमुख भूमिका को रेखांकित किए बिना नेपाल पर कोई राजनीतिक फिल्म बनाना संभव ही नहीं है। नेपाल में माओवादी पार्टी की मई 2009 तक सरकार थी और इस पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहाल उर्फ प्रचंड प्रधनमंत्री की हैसियत से भारत सरकार के निमंत्रण पर भारत की यात्रा पर आए थे। नेपाल की मौजूदा संविधान सभा में माओवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है और प्रमुख विपक्षी दल है।
श्री वर्मा अब अपनी इस फिल्म को बोर्ड की पुनरीक्षण समिति के सामने विचारार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।


21 जून 2010

किताबें नहीं, लड़ने की जिद

चन्द्रिका
(तहलका के साहित्य विशेषांक में छपे इस आलेख कों सम्पादक द्वारा इतना संपादित कर दिया गया कि इसका मर्म ही नहीं बचा लिहाजा इसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है. )
किताबें पढ़कर कोई क्रांति नहीं की गयी, पर क्रांतियों के घटित होने में किताबों की भूमिका अहम रही और किताबें क्रांति का दस्तावेज बनी. शब्द जब चलना शुरू किये होंगे, इंसान के ज़ेहन से निकलकर जुबानों तक और जुबानों से निकलकर कई जुबानों तक विस्तार पाते गये होंगे और न जाने कितने वर्षों तक इसी तरह भटकते रहे होंगे. इस प्रक्रिया में जाने कितने शब्द और वाक्य विलीन हो गये होंगे और अपने अस्तित्व को बचाते-बचाते दम तोड़ दिया होगा. दादियों के मुंह की कितनी कहानियां, गर्मी की छुट्टियों में नानियों के कितने किस्से उनके गुजरने के साथ-साथ गुजर गये होंगे. अलाव सेंकते बाबा के मुंह से पुरखों की सुनाई गयी शौर्य गाथायें असहाय और साहस विहीन होकर न जाने किस गाँव में बस गयी कि अब कोई आवाज ही नहीं सुनती. आज अपनी उम्र के साथ वे कितनी जर्जर और बेबस होंगी. हम नाकामयाब रहे उनमे से कितनों को बचाने में जबकि दुनिया की किताबों में उनकी जगह आज भी सूनी सी है कोई रसूल हमजातोव नहीं हुआ जो हिन्दी समाज के दागिस्तान को कह दे.
अलबत्ता कुछ प्रकाशन संस्थान ऐसे हुए जो अब तक के समय और घटनाओं के लेखन को प्रकाशित कर इतिहास के दृष्यों को रंगते रहे, धूमिल होती घटनाओं से धूल झाड़ते रहे. बीता हुआ वह सब, जो हमारे बीच मौजूद हैं या यूं कहें कि किताबों ने जिन्हें बचाये रखा है, हर अगली पीढ़ी उनसे रूबरू हो रही है. हिन्दी समाज के कई ऐसे प्रकाशन हैं जिन्होंने पुस्तकों का प्रकाशन व्यवसाय के लिये नहीं बल्कि बीते हुए समय को संरक्षित कर, दस्तावेजों, गुजरे समय की कथाओं, कविताओं, उपन्यासों, जीवनी, आत्मकथाओं, नाटकों को सजो कर रखा. इन्होंने किताबों को मनोरंजन के साधन के रूप में नहीं बल्कि जीवन जीने के नशे की एक जरूरी खुराक के रूप में पाठकों के बीच में प्रस्तुत किया. यह एक आंकड़ा विहीन तथ्य है कि ये पुस्तकें ऐसी पुस्तकें रही जिनसे कितनों ने दुविधा के क्षण में अपने जीवन को बचाया कि कितने सारे जीवन इन किताबों के रिणी हो गये.
समाज परिवर्तन और संघर्ष के कई तरीके और कई पहलू होते हैं लिहाजा सत्ता व संरचना दोनों के बदलाव के बावजूद जरूरी नहीं कि समाज के अंतर्विरोध खत्म हो जायें जोकि संरचना बदलने के साथ अपेक्षित थे, उनके बदलाव के लिये चेतना का विकास व मनोदशा की दिशा को ही बदलना पड़ेगा. यह बदलाव ज्ञान आधारित उपक्रमों से ही सम्भव है, एक आदमी के अपने भीतर का संघर्ष जाति, सम्प्रदाय, धर्म से लड़ने का, समाज में व्याप्त गैरबराबरी को समझने का, लोकतंत्र के दायरे को बढ़ाने का, जिनसे सही मायने में पुस्तकें ही मुखातिब करवाती हैं. जब एक अन्यायपूर्ण समाज में खामोशी और चुप्पी जी रही होती है तो ये किताबें ही हैं जो बीज के रूप में इंसान में अन्याय के प्रति प्रतिकार को जिंदा रखती हैं और बदलाव के अंकुर वहीं कहीं से फूटते हैं.
संवाद प्रकाशन इसी अन्याय के प्रतिकार की एक अकेली कोशिश से शुरू की गयी मुहिम है. आलोक श्रीवास्तव एक पत्रकार, कवि, लेखक के साथ संवाद प्रकाशन के एक कर्मठ श्रमिक भी हैं. एक कवि, लेखक को श्रमिक कहते हुए शायद हम सब मे जो महसूसियत होती है वह समाज में कामों के बटवारे की श्रेणीबद्धत्ता को तोड़ती है, यह उस संरचना को भी तोड़ना है जिसमे एक लेखक या पत्रकार अपनी भूमिका के साथ अपना ओहदा तय कर लेता है और उस ओहदे की ऊंचाई भी. जिसे तोड़ते हुए आलोक श्रीवास्तव ने १९९६ में संवाद प्रकाशन की शुरूआत की. संवाद प्रकाशन के पास विचारों की पूजी थी यह आलोक श्रीवास्तव का जुझारुपन था जो २०० के आस-पास दुनिया के तमाम उत्कृष्ठ साहित्य को हिन्दी में अनुवाद के जरिये व हिन्दी की कुछ उकृष्ठ रचनाओं को मूल रूप में लाया जा सका. इन पुस्तकों को लाने के पीछे यह मकसद नहीं था कि जो ज्यादा बिकें उन्हें प्रकाशित किया जाय बल्कि इसके पीछे का मकसद हिन्दी में ऐसे विचारों का बौद्धिकवर्ग पैदा करना जो विचारों और सृजन की दुनिया से जुड़ना चाहता है. संवाद ने एक ऐसा पाठक वर्ग बनाया भी जो हर साल उसकी नयी प्रकाशित होने वाली किताबों का इंतजार करता है. अधिकांस किताबों को पेपर बैक में इसलिये छापा गया ताकि ये पाठकों के लिये सस्ते मूल्य पर उपलब्ध करायी जा सकें. यह किसी संगठन के बजाय अकेले आंदोलन छेड़ने जैसा था, जिसकी ये मुहिम थी कि देश-दुनिया के श्रेष्ठतम पुस्तकों को लोगों तक पहुंचाया जाय और हिन्दी में वैचारिक व कलात्मक आकर्षण के साथ विभिन्न भाषाओं की किताबों का अनुवाद संवाद के जरिये प्रकाशित हुआ. दरअसल संवाद प्रकाशन के जरिये यह मुहिम किसी समाज के बदलाव के पहले व बदलने की प्रक्रिया में चेतना की ऐसी खुराक है जो वह जमीन तैयार करती है जिस पर परिवर्तनकामी शक्तियों को एक सही दिशा मिल सके. संवाद प्रकाशन के इस मुहिम में बदलाव का कोई उतावलापन जैसा नारा नहीं है. “किताबें जिनसे झांक रहा है एक सपना” ये स्वप्न दिखाती हैं एक मानवीय समाज का. ये एक पाठक को तब संवेदित करती हैं, जब समाज में घट रही हर घटना किसी कहानी से और घटनाओं में शामिल वे लोग किसी पात्र से टकरा जाते हैं और यह सब हमारे अंदर ही घटित होता है. कई ऐसे दार्शनिकों की जीवनी, जिनके दर्शन के साथ जीवन भी हमें जीने और घोर हतासा के बीच जीकर स्व का परित्याग कर दुनिया के जोखिम को उठाने का सबब देते हैं. इजाडोरा की प्रेमकथा, रूसो की आत्म कथा ऐसी किताबें हैं जो एक व्यक्ति के द्वारा अपने किये हुए को कुबूल करने का असीम साहस पैदा कराती हैं जहाँ जीवन संघर्ष की अप्रतिम ऊंचाई मिलती है. संवाद के जरिये विचार दर्शन, उपन्यास, इतिहास व विमर्ष की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित किया गया है जो निश्चित तौर पर हिन्दी समाज की वैचारिक उर्जा को संवेग प्रदान करने वाला है. यह चालीस करोड़ हिन्दी भाषी समाज को एक समृद्ध परम्परा के जरिये ऐसी वैज्ञानिक चेतना की मौलिकता प्रदान कर सकता है जो किसी भी संकीर्णता की सीमा को तोड़ते हुए मानव विकास के आंतर्राष्ट्रीयतावादी परिदृष्य को खोलता है.
फर्नांदो पेसेवा, विस्साव सिम्बोर्सका के साथ दुनिया के कई अन्य महत्वपूर्ण कविताओं का हिन्दी में आना आज के समय में हिन्दी कवियों को एक सीख देगा, जबकि वे घटनाओं की सपाट बयानी को कविता के रूप में रख रहे हैं. इंसान की उन छोटी-छोटी हरकतों को, उनकी मनोदशा को पेसेवा और सिम्बोर्सका की कवितायें एक बुककर की तरह बुनती हैं. इस रूप में संवाद एक प्रकाशन नहीं बल्कि अपनी स्वीकारोक्ति के साथ “एक अभियान, एक आंदोलन है” जो हिन्दी भाषा में बुद्धिजीवी वर्ग के तलास की सम्भावना में है, भविष्य में उन नये बुद्धिजीवियों से संवाद करना और उनको तैयार करना जिनसे नवजागरण की संस्कृति को मजबूत किया जा सके.
हिन्दी समाज में आंदोलनों के स्वर जब धीमे पड़ रहे थे खास तौर से २००० के बाद का समय, उस वक्त इलाहाबाद के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जिनमें लाल बहादुर वर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है ने इतिहास बोध प्रकाशन की शुरूआत की. कुछ मित्रों ने मिलकर महज़ बीस-तीस हजार रूपये लगाये. ये बाजार की सबसे सस्ती किताबें थी जिनके प्रथम संस्करण साल भर में ही खत्म हो जाते थे इससे इन पुस्तकों की उपयोगिता को समझा जा सकता है. इन पुस्तकों की जरूरत ने ही इन्हें सीमित नहीं रहने दिया और जब इसका दायरा बढ़ने लगा तो सम्न्वय में परेशानियां आने लगी फिर इसका भार साहित्य उपक्रम ने उठा लिया. इलाहाबाद सांस्कृतिक आंदोलन की एक विरासत के रूप में था ऐसे में इस प्रकाशन की शुरुआत निश्चित तौर पर एक छटपटाहट की उपज थी जो बौद्धिक स्तर पर एक जमीन तैयार कर सके या फिर उस जमीन को बचाये रखे जिसके लिये किन्हीं दिनों में इलाहाबाद को जाना जाता था. एक इतिहास का प्रख्यात लेखक लालबहादुर वर्मा अपने कंधे पर उन पुस्तकों को वर्षों ढोता रहा जिनसे उसे भविष्य के बेहतर इतिहास की सम्भावना दिख रही थी. यह लोगों को, बुद्धिजीवियों को संघर्षों के इतिहास का बोध कराने जैसा ही था. इसके तहत तकरीबन २५ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया गया जो देश-दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य में से हैं. ये किताबें जनता की जरूरत और जेब के मुताबिक थी, प्रकाशन ने इतिहास बोध नाम की पत्रिका का भी नियमित प्रकाशन किया जिसने दुनिया के इतिहास को नये रूप में हिन्दी समाज को परिचित कराया. इतने परिश्रम के बावजूद इतिहास बोध प्रकाशन कुछ ही वर्षों तक चल पाया और एक कड़ी के रूप में ४ वर्ष पूर्व साहित्य उपक्रम नाम से इसे चलाया जाने लगा जहाँ से कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन अभी भी जारी है.
जन चेतना, राहुल फाउंडेशन, परिकल्पना जैसे हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशन हैं जिन्होंने दो दशक पूर्व प्रगतिशील व जनपक्षधर साहित्य को लोगों तक पहुंचाने के लिये छोटी सी मुहिम से अपनी शुरुआत की. शुरुआत कुछ पुस्तिकाओं के साथ हुई एक समूह था जो आपस में पढ़ने लिखने का काम किया करता था, उसमे एक मित्र के पास कम्प्यूटर था और इसी से कम्पोजिंग की शुरुआत की गयी. परिकल्पना साहित्यिक किताबों के प्रकाशन और राहुल फाउंडेशन राजनैतिक किताबों के प्रकाशन के उद्देश्य से शुरू किये गये. इसके साथ जनचेतना इन पुस्तकों व अन्य समाज की जन पक्षधर साहित्य की पुस्तकों के वितरण का काम करने लगा. बाद में बच्चों के लिये अनुराग ट्रस्ट नाम से भी प्रकाशन की शुरूआत की गयी. धीरे-धीरे इसका विस्तार भी हो गया, एक टीम बनायी गयी जो यह तय करती है कि किन पुस्तकों का प्रकाशन जरूरी है इसके बाद समूह के सदस्यों में इसे टाइपिंग के लिये बांट दिया जाता है फिर आपस में अदल-बदल कर प्रूफ चेक कर लिये जाते हैं. आज के समय में सबसे ज्यादा जिन पुस्तकों को लोग पसंद कर रहे हैं वे भगत सिंह, राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचंद, है पर युवा पीढ़ी में मार्क्सवाद की किताबों की मांग बढ़ी है वे चाहते हैं कि सरल रूप में मार्क्सवाद की पुस्तकें उन्हें उपलब्ध कराई जायें, साथ में राजनीतिक पुस्तकों की भी मांग बढ़ी है. बड़े पैमाने पर पहुंचाने की दरकार है पर अपनी सीमित क्षमता के कारण यह काम बहुत कम पूरा हो पा रहा है. हिन्दी समाज के लिये यह एक बहुत जरूरी काम था जो चल रहा है. यह एक वैचारिक परियोजना और सांस्कृतिक मुहिम थी जो झोलों और ठेलों से शुरु हुई थी. इस तरह की जनपक्षधर किताबें प्रकाशित करने व उन्हें लोगों तक पहुंचाने की एक सांगठनिक व सजग पहल शायद हिन्दी समाज में पहली बार हुई. किताबों के साथ जनता का सम्बन्ध इन प्रकाशकों के लिये कई रूप में था मसलन ये मानते थे कि बेहतर ज़िंदगी का रास्ता, बेहतर किताबों से होकर जाता है. किताबों को लेकर इन प्रकाशकों ने कई तरह के नारे दिये और लोगों में किताबों के प्रति रुचि पैदा करने के लिये किताबों के बारे में कवितायें लिखी. इनकी प्रतिबद्धता सपनों के हरकारे और विचारों के डाकिये के रूप में थी. इनके द्वारा प्रकाशित किताबों ने देश में द्वन्दात्मक भौतिकवाद और वैज्ञानिक चिंतन की एक समझ जरूर पैदा की. यह मुहिम इतनी सफल हुई कि इसने न सिर्फ हिन्दी समाज बल्कि पंजाब के सुदूर गाँवों में अपने विचारों को घर की आलमारियों तक पहुंचाया. अंग्रेजी, हिन्दी और पंजाबी में इन प्रकाशनों ने सैकड़ों किताबें प्रकाशित की. एक हिन्दी समाज के वामपंथी कार्यकर्ता के लिये उसकी वैचारिक उर्जा का आधार यही पुस्तकें बनी. प्रकाशन ने अभियान के रूप में दुनियाँ की तमाम बहसों को सरल भाषा में प्रकाशित किया गया. यह एक सुनियोजित मुहिम थी, लिहाजा इसने एक व्यक्ति के निर्माण में उसके बदलते उम्र के साथ वैचारिक खुराक की जरूरत का ख्याल रखते हुए कुछ ऐसी किताबों और बाल साहित्य का प्रकाशन किया जो समाज में वंचित तबके का सवाल बाल मन से उठा सके, नौजवानों के लिये सस्ते दर में भगत सिंह व पीटर क्रोपोटकिन की पुस्तकों का प्रकाशन हिन्दी समाज की जड़ता से मुक्ति के लिये व वैज्ञानिक चिंतन और द्वन्द पैदा करने का एक सपना था. देश के अन्य कई ऐसे प्रकाशन हैं जो किसी के कंधों पर किन्हीं झोलों में और साईकिलों से आज भी चल रहे हैं और दुनिया को बदलने की जिद को अपनी कोशिशों के साथ मजबूत कर रहे हैं.
आम लोगों के लिये
जरूरी हैं वे किताबें
जो उनकी जिंदगी की घुटन
और मुक्ति के स्वप्नों तक
पहुंचाती हैं विचार
जैसे कि बारूद की ढेरी तक
आग की चिंगारी.

15 जून 2010

नक्सलवाद और सरकार के अंतर्विरोध

देवाशीष प्रसून
भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा हर साल प्रकाशित वार्षिक रपटों के मुताबिक़ नक्सलवादी, प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थानों की अकर्मण्यता द्वारा सृजित माहौल में कार्य करते हैं, स्थानीय मांगों को भड़काते हैं और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच विद्यमान अविश्वास और अन्याय का लाभ उठाते हैं। ऐसा कह कर सरकार खुलेआम स्वीकार करती है कि देश में प्रशासनिक और राजनैतिक संस्थाओं की अकर्मण्यता की स्थिति है और जनसंख्या के शोषित वर्गों के बीच अविश्वास और अन्याय की स्थिति विद्यमान है। यानी, देश के सत्ता तंत्र का इस मोर्चे पर विफल होने को लेकर कोई दो-राय नहीं है।
एक और सरकारी दस्तावेज़ का उद्धहरण लें। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक आयोग का गठन किया, जो यह जायजा लेता कि भू-सुधार के अधूरे कामों के मद्देनज़र राज्य के कृषि संबंधों की अभी क्या स्थिति है? माननीय ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में काम कर रहे इस आयोग द्वारा मार्च ’०९ में ड्राफ़्ट किये गए रपट के पहले भाग के चौथे अध्याय में जिक्र है कि छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। रपट में अपनी ज़मीन के लिए संघर्षरत आदिवासियों को ही भाकपा(माओवादी) के सदस्य के रूप में संबोधित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सरकारी दस्तावेज़ कहता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न सात गांवों व आसपास के इलाकों का अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। ये कोलंबस के बाद आदिवासी जमीन की लूट खसोट का सबसे बड़ा मामला है। ये वाक्य मैं नहीं कह सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर नक्सल समर्थक होने की चिप्पी लगाकर मुझे प्रताड़ित किया जा सकता है, अब हर कोई अरुंधती जैसा बहादुर तो नहीं हो सकता! सच मानिये लूट-खसोट का यह आरोप उपरोक्त बताये गए ड्राफ्ट रपट से ही उद्धृत है। आश्चर्य है कि यहाँ जिस ड्राफ्ट रपट का जिक्र हो रहा है, जब इसका अंतिम स्वरूप जब अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया गया तो रपट का उपरोक्त पूरा हिस्सा ही गायब था। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था के गोरखधंधा को धूमिल ने अपनी कविता पटकथा में यों व्यक्त किया है कि “ एक ही संविधान के नीचे...भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम...’दया है’...और भूख में...तनी हुई मुट्ठी का नाम...नक्सलवाड़ी है।
हालांकि, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता है। लेकिन जब जनसाधारण पर व्यवस्था की संरचनात्मक हिंसा की सारी हदें पार हो जाती हैं तो इतिहास साक्षी रहा है कि आत्मरक्षा में लोगों की प्रतिहिंसा को टाला नहीं जा सका है। इस वर्गसंघर्ष में हो रही हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले में, हाल में, नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में लगाये गए प्रेशर बम से दो बार बड़ी संख्या में लोग मरे हैं। यह दिल दहला देने वाली घटना थी। पहले हमले में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के ७६ सशस्त्र जवान मारे गए। सरकार ने इसे जनसंवेदना से जोड़ना चाहा जैसे कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हुआ सबसे बड़ा हमला था। माहौल बनाया गया कि थलसेना और वायुसेना की मदद से नक्सलवाद जैसे ठोस जनसंघर्ष को बिल्कुल वैसे ही कुचला जाये, जैसे श्री लंका में तमिलों के जनसंघर्षों को कुचला गया। लेकिन, लोग जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में गृहयुद्ध की स्थिति है और युद्ध में सैनिक तो शहीद होते ही हैं। बुद्धिजीवियों ने नक्सली हिंसा के बरअक्स छत्तीसगढ़ में चल रहे इस युद्ध का विरोध किया। थल व वायु द्वारा नक्सलियों पर हमले पर आम-राय नहीं बन पायी। पर, नक्सलियों के अगली घटना ने कई लोगों के मन में नक्सलियों के लिए घृणा भर दिया है। इसमें एक ऐसी बस को निशाना बनाया गया जिसमें सवार कई निहत्थी औरतों और बच्चों की जान गयी। लेकिन, इस मामले में एक सवाल ऐसा है जो परेशान किये जाता है। एक युद्धक्षेत्र में हथियारबंद विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को आमलोगों, महिलाओं और बच्चों के साथ एक ही बस में क्यों भेजा गया? जबकि सैन्य बलों पर नक्सलियों का मंडराता खतरा दक्षिणी छत्तीसगढ़ में आमबात है, तो फिर क्या निर्दोष लोगों को एसपीओ के साथ भेज कर बतौर ’चारा’ इस्तेमाल किया गया, जिससे नक्सलियों के ख़िलाफ़ हवाई हमले के लिए जनमानस तैयार हो सके? यह बस एक प्रश्न है, कोई इल्ज़ाम नहीं है सरकार पर। जबकि बकौल भारतीय वायुसेना जाहिर है कि वे चुनिंदा लोगों से लड़ने (सेलेक्टड कॉमवेट) में दक्ष नहीं है, इनकी दक्षता निशाने का मुकम्मल विनाश(टोटल कॉमवेट) करने में है, तो ऐसे में नक्सलियों के विरुद्ध अगर हवाई हमला हुआ तो स्पष्ट है कई निर्दोष जाने जायेंगी।
हाल में ही एक घटना पश्चिम बंगाल में घटी है, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी, डेढ़ सौ लोग मारे गए और दो सौ घायल हुए। आनन-फानन में बिना जाँच पड़ताल किये ही इसे नक्सली आतंक का नाम दिया गया। जबकि पाँच जून को एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में आयी ख़बर के मुताबिक माओवादियों ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और भरोसा दिलाया कि माओवादियों द्वारा किसी यात्री ट्रेन व आमलोगों पर हमला नहीं किया जायेगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के पीछे कौन है, वे इसकी जाँच कर रहे हैं और इसके दोषियों बख्शा नहीं जायेगा।
अलबत्ता सरकारी रपटों के मुताबिक नक्सलवाद की जड़े सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक विषमता में है। पर, दूसरी ओर सरकार और उनका पूरा प्रचार तंत्र नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा ख़तरा मान रहा है। विचारने वाली बात है कि नक्सलवाद से किसको ख़तरा है? क्या गरीब, विपन्न, आदिवासी लोगों व उद्योगों, ख्रेतों और अन्य जगहों पर विषम परिस्थितियों में काम करने वाले बहुसंख्य मेहनतकश जनता को नक्सलवाद से ख़तरा है? या फिर देश के मुट्ठी भर पूँजीपतियों और उनकी ग़ुलामी घटने वाली करोड़ों मध्यवर्गीय जनता के लिए नक्सलवाद संकट का विषय है। ठंडे दिमाग से इस बारे में सोचना होगा।
शोधार्थी व स्वतंत्र पत्रकार
दूरभाष: 09555053370
ई-मेल:
prasoonjee@gmail.com

14 जून 2010

भास्‍कर समूह की मासिक पत्रिका अहा जिंदगी और लक्ष्‍य के नये संपादक होंगे आलोक श्रीवास्‍तव।

कभी धर्मयुग, साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान जैसी पत्रिकाएं हिंदी क्षेत्र में जो सांस्‍कृतिक प्रभाव रखती थीं, वैसे ही कुछ इरादों के साथ भास्‍कर समूह ने अहा जिंदगी का प्रकाशन छह साल पहले शुरू किया था। अहा जिंदगी यशवंत व्‍यास के संपादन में शुरू हुई थी और लोकप्रियता की अपनी तरह की कहानी इसने रची। धर्मयुग और साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान के बाद यही एक पत्रिका थी, जो सौंदर्य और समझदारी के साथ निकली और ज्‍यादातर घरों में जगह बनाने में कामयाब हुई। अभी कुछ महीनों पहले यशवंत व्‍यास भास्‍कर से अलग होकर अमर उजाला से जुड़ गये। उनके बाद भास्‍कर के लिए अहा जिंदगी के सफर को आगे बढ़ाने और नये आयाम देने की चुनौती थी। भास्‍कर के प्रबंध निदेशक सुधीर अग्रवाल की खोजी नजर ने मुंबई में लंबे समय से अपने किस्‍म की अलग पत्रकारिता करने वाले आलोक श्रीवास्‍तव को खोज निकाला।
आलोक श्रीवास्‍तव आईआईएमसी के 1988-89 बैच के पास आउट हैं। वहां से निकलने के बाद उन्‍होंने लगभग एक वर्ष अमर उजाला के मेरठ संस्‍करण में काम किया। फिर फरवरी 1990 में बतौर उपसंपादक धर्मयुग गये। धर्मयुग में छह वर्ष तक काम किया। धर्मयुग बंद होने के बाद हाल तक नवभारत टाइम्‍स के मुंबई संस्‍करण में रहे। आलोक हिंदी के युवा कवियों में अपना विशिष्‍ट स्‍थान रखते हैं। 1996 में आये उनके पहले ही कविता संग्रह वेरा, उन सपनों की कथा कहो ने हिंदी के कविता प्रेमियों को सघन ढंग से अपने प्रभाव में लिया था। इस संग्रह का चौथा विशेष सचित्र संस्‍करण आने जा रहा है। उनके बाद के संग्रहों ने भी पाठकों को भरपूर मोहित किया। जब भी वसंत के फूल खिलेंगे (2004), यह धरती हमारा ही स्‍वप्‍न है! (2006), दिखना तुम सांझ तारे को (2010), दुख का देश और बुद्ध (2010) जैसे कविता संग्रहों के अलावा कथादेश में आठ वर्षों तक छपा उनका स्‍तंभ अखबारनामा एक बहुपठित स्‍तंभ था, जो बाद में अखबारनामा : पत्रकारिता का साम्राज्‍यवादी चेहरा (2004) के रूप में पुस्‍तकाकार छप कर भी काफी पढ़ा-सराहा गया। प्रख्‍यात पत्रकार कुलदीप नैयर की भगत सिंह के जीवन और विचारों पर लिखी अनूठी पुस्‍तक शहीद भगत सिंह : क्रांति के प्रयोग (2004) का उन्‍होंने अनुवाद किया।
मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्‍ट के संयुक्‍त सचिव रह चुके आलोक श्रीवास्‍तव ने संवाद प्रकाशन के जरिये हिंदी में दो बेहतरीन ग्रंथमालाओं, विश्‍व ग्रंथमाला और भारतीय भाषा ग्रंथमाला के जरिये 200 से अधिक पुस्‍तकों का संपादन-प्रस्‍तुति की है, जिसमें विश्‍व साहित्‍य की अनेक महानतम एवं दुर्लभ निधियां हैं। वे बतौर एक रचनाकर्मी, हिंदी क्षेत्र के सांस्‍कृतिक उन्‍नयन को आज के समय की प्रमुख जरूरत मानते हैं। उम्‍मीद है, उनके संपादन में अहा जिंदगी देश-काल-समाज की खोयी-उलझी परतों के ईमानदार दस्‍तावेज तैयार करेगी। साभार- मोहल्ला

11 जून 2010

लोकतंत्र में जाति का सवाल

चन्द्रिका
२०११ की जनगणना में जाति गिनाने का सवाल आरक्षण के सवाल से जुड़ा हुआ नहीं है. उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण को लेकर ५० प्रतिशत का जो मानक तैयार किया था वह ४९.५ प्रतिशत के साथ लगभग पूरा हो चुका है, लिहाजा जनगणना में अब जाति गिनवाने से जो अहम फायदा पहुंचने वाला है, वह देश में चुनाव लड़ने वाली पार्टीयों को. वह भी इस रूप में कि इसी आधार पर ये पार्टीयां अपने वोट बैंक और जाति आधारित प्रतिनिधियों का खाका तैयार कर सकेंगी. आखिर देश के लोकतांत्रीकरण के कार्यक्रम में वे कौन से तत्व छूट गये कि ६३ वर्षों बाद भी देश की तस्वीर में जातिवीहीन समाज बनाने की कोई स्पष्ट रूपरेखा अभी तक नहीं दिखती. देश के संस्थानों में आरक्षण लागू होने के बाद समाज में व्याप्त जो जातिबोध था वह कम नहीं हुआ. आरक्षण ने निश्चित तौर पर संस्थानों में जो जातीय वर्चस्व था उसे कम किया है, पर विभेद कम-ओ-बेस अभी भी उसी रूप में बरकरार हैं. एक व्यक्ति जो जातीय समाज में जी रहा है वह जब घर से अलग एक संस्थान में कार्य करने के लिये किसी पद पर आसीन होता है तो वह क्या है जो उसे पदासीन होते ही जाति मानसिकता से मुक्त कर देता है, दरअसल, ऐसा होता नहीं. वास्तविक स्थितियाँ यह हैं कि देश के संस्थानों में पदों पर लोग नहीं काम करते बल्कि जातियां ही उस पद की कार्यवाहियों को पूरा करती हैं. किसी संस्थान के दफ्तर में चले जाइये सवर्ण जातियाँ, उपनाम के तौर पर गौरवान्वित होकर गूंजती रहती हैं. भले ही संस्थानों में सभी जातियों के लोग काम करते हों पर जातीय हीनता और श्रेष्ठता का फर्क स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. जातीय विभेद खत्म करने को लेकर जो हल देश की सरकारों ने अब तक ढूंढ़ा है फिर वह किन स्तरों पर कारगर साबित हुआ है.
जाति को लेकर समाज में विभेद का जो स्वरूप था उसके केवल भौतिक आधार ही नही थे बल्कि यह मानसिक स्तर पर विद्यमान था और इसे समाप्त करने के लिये देश में ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों को चलाये जाने की जरूरत थी जो विभेद के इस बोध को ज़ेहन से मिटा सके. व्यवस्था की इस संरचना में ऐसी कोई भी परियोजना नहीं चलायी गयी जो सांस्कृतिक रूप से अम्बेडकर और लोहिया के जातिविहीनता के स्वप्न को पूरा कर सके. देश में अब तक जो भी कार्यक्रम प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना के लिये चलाये गये वे एक हद तक वामपंथी पार्टीयों द्वारा, पर एक समय के बाद उन्होंने भी यह संघर्ष व्यवहारिक स्तर पर छोड़ दिया और इसे सिद्धान्तों तक ही सीमित कर दिया. यह तब हुआ जब वामपंथ के एक धड़े ने संसदीय चुनाव में सिरकत करनी शुरू की. इसके पीछे का कारण यह था कि भारतीय समाज के साथ जातिविहीनता का संघर्ष करना, लोगों के बने-बनाये मूल्यों के विरुद्ध जाना था. जो एक रूढ़ीवादी समाज के लिये तात्कालिक रूप से स्वीकृत होने वाला नहीं था. अतः यह चुनावी राजनीति के लिये किसी भी रूप में फलदायी नहीं था क्योंकि चुनाव में सफलता इन्हीं जातीय जोड़-तोड़ से ही मिलने वाली थी. एक हद तक हिन्दी भाषी प्रदेशों में वामदलों की असफलता का कारण यह भी रहा. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में जातीय संरचना अन्य राज्यों के अपेक्षा और ज्यादा जटिल थी और जातीय सच्चाई को दरकिनार करते हुए किसी भी पार्टी का यहाँ चुनाव में सफल होना मुश्किल था, जो कि आज भी बरकरार है. बहुजन समाज पार्टी या समाजवादी पार्टी अम्बेडकर व लोहिया के विचारों को अपना अधार बना कर अस्तित्व में आये, पर जाति प्रश्‍न पर ये पार्टीयां कभी उस लक्ष्य की ओर मुखरित नहीं हुई जो इन महापुरुषों के स्वप्न में थे. बल्कि जातीय जनगणना के फार्मूले को ही अपना कर ये सत्ताशीन हो सकी, बावजूद इसके कि इनके द्वारा कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम जातिबोध मिटाने को लेकर तैयार किये जाते, अपने जातीय समीकरण के आधार पर ही एक कुलीन वर्ग को ही कुछ सुविधायें इन्होंने प्रदान की और दमित जातियों में भी एक कुलीन वर्ग तैयार हो गया. यह दमित और वंचित जातियों की वोट के आधार पर एकजुटता भी थी, पर इसने विभेद की मानसिकता को रत्तीभर भी खत्म नहीं किया, बल्कि दमित जातियों में ही वर्गीय अंतर्विरोध पैदा किये.
सांस्कृतिक आधार पर जातीयबोध बिना संघर्ष के समाप्त नहीं किया जा सकता. यह संघर्ष जाति के आधार पर वर्ग विभाजन के साथ ही चलाया जा सकता है क्योंकि जाति और वर्ग का सवाल कई आधारों पर एकरूप में दिखता है. जातीय स्तरीकरण के तौर पर ही वर्गीय स्तरीकरण की समरूपता को देखा जा सकता है. इसलिये जातिविहीनता के संघर्ष का नेतृत्व सही मायने में वही दल कर सकता है जो चुनावी राजनीति और जातीय जोड़-तोड़ से बाहर आकर एक ऐसे संघर्ष की रूपरेखा तैयार कर सके जिससे समता और समानता आधारित लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने का स्वप्न हो. यह एक अल्पकालिक संघर्ष नहीं होगा बल्कि एक ऐसा संघर्ष होगा जो पीढ़ीगत रूप से व्याप्त मानसिकता को खारिज कर नयी मानसिकता को स्थापित भी करेगा.

02 जून 2010

प्रेम एक राजनीतिक मसला है...


· देवाशीष प्रसून
समगोत्रीय शादियों के ख़िलाफ़ खाप पंचायतों ने ख़ूब हो-हल्ला मचा रखा है। डंके के चोट पर उन दंपत्तियों की हत्या कर दी जा रही है, जो एक ही गोत्र होने के बावज़ूद अपने प्रेम को तवज्जो देते हुए परिवार बसाने का निर्णय लेते हुए शादी करते हैं। अंतर्जातीय विवाहों पर भी इन मनुवादियों का ऐतिहासिक प्रतिबंध रहा है। देश में लोकतंत्र की कथित रूप से बहाली के तिरसठ सालों के बाद भी इन सामंती मूल्यों का वर्चस्व हमारे समाज में क़ायम है। इसके पीछे इन कठमुल्लाओं और पोंगा पंडितों का शादी-विवाह के संबंध में दिया जाने वाला रूढ़िवादी तर्क यह है कि इस तरह के वैवाहिक रिश्ते भविष्य में इंसानों की नस्लें खराब करेंगी। सोचना होगा कि इस तथाकथित वैज्ञानिक तर्क में कितना विज्ञान है और कितनी राजनीति? लेकिन एक बात तो सुस्पष्ट है कि अगर अपारंपरिक तरीकों से विवाह करने पर अगली नस्ल पर आनुवांशिक कुप्रभाव पड़ता है, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो एक दूसरी बात वैज्ञानिक तौर सिद्ध है कि प्रदूषित खान-पान, शराब-सिगरेट-तंबाकू का इस्तेमाल और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले अन्य अप्राकृतिक जीवन-व्यवहारों का भी आनुवांशिकी पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में इस प्रदूषित जीवन-स्थिति के लिए जिम्मेवार लोगों की हत्या क्यों नहीं होती, जैसे कि समगोत्रीय या अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्तियों की हत्या की जाती है? आजकल यह चर्चा और चिंता का मौजूँ मुद्दा है कि कृत्रिम तरीकों से उपजाये बीटी फल-सब्जियों से मानव आनुवांशिकी को सबसे ज्यादा खतरा है। अगर इन खापों को अपने नस्ल की आनुवांशिकी से इतना ही लगाव है तो बीटी फल-सब्जियों को उपजाने वालों का वही हश्र क्यों नहीं करते, जो उन प्रेमी युगलों का करते हैं, जिन्होने प्रेम को अपने जीवन में सबसे महत्वपूर्ण माना। लेकिन सच तो यह है कि खाप पंचायतों की परेशानी नस्लों की बिगड़ती आनुवांशिकी से नहीं है। क्योंकि कई बार यह भी देखा गया है कि पारंपरिक दायरों में रह कर भी प्रेम-विवाहों को मान्यता नहीं मिल पाती है। दरअसल यह मामला स्त्री की आज़ादी, उसका अपने श्रम, शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण की राजनीति का है।

असल में, जर्जर हो चुकी सनातनी परंपरा के झंडाबरदारों को इन संबंधों से दिक्कत इसलिए है कि इन प्रेम संबंधों के जरिए कोई स्त्री अपने जीवन और अपने श्रम के इस्तेमाल पर अपना स्वयं का दावा पेश करती है। वह कहती है कि हम आज़ाद हैं, यह तय करने को कि हम अपना जीवनसाथी किसे चुने। इन संबंधों से इशारा है कि तमाम तरह की उत्पादन-प्रक्रियाओं में स्त्रियाँ अपने श्रम का फैसला अब वह खुद लेंगी। यह आवाज़ है उन बेड़ियों के टूटने की, जिसने स्त्रियों के पुनरूत्पादक शक्तियों पर पुरूषों का एकाधिकार सदियों से बनाये रखा है। यह विद्रोह है पितृसत्ता से विरुद्ध। ऐसे में प्रेम-विवाह पितृसत्ता के खंभों को हिलाने वाला एक ऐसा भूचाल लाता है कि बौखलाये खाप-समर्थक प्रेमी-युगलों के खून के प्यासे हो जाते हैं।

हमारे देश में खाप पंचायत, संस्कारों के जरिए लोगों के दिल-ओ-दिमाग में बसता है। बचपन से ही यह संस्कार दिया जाता है कि अपने बड़ों का आदर और छोटों को दुलार व उनका देखभाल करना चाहिए, पर कोई प्रेम सरीखे समतामूलक रिश्तों का पाठ बच्चों को नहीं पढ़ाता। गो कि यह कोई नहीं सिखाता कि घर में पिता भी उतने ही बराबर और प्रेम के पात्र हैं, जितना कि एक छोटा बच्चा। बराबरी के संबंधों को बनने से लगातार रोका जाता है। बड़े गहराई से एक वर्चस्व-क्रम हमेशा खड़ा किया जाता है। मानता हूँ कि माता-पिता की जिम्मेवारी अधिक होती है, लेकिन अधिक जिम्मेवारी के चलते परिवार में उनकी शासकों-सी छवि का निर्माण करना, सूक्ष्म स्तर पर एक विषमता आधारित समाज का निर्माण करना है। भारत में सदियों से जीवित सामंती समाज के पैरोकारों ने प्रेम को अपने आदर्शवादी या भाववादी सोच-समझ के मुताबिक ही व्याख्यायित किया है। मसलन, बार-बार यह आदर्शवादी समझ बच्चों के दिमाग में डाली जाती है कि विपरीत लिंगों के बीच का स्वभाविक प्रेम भी दो बस आत्माओं के बीच पनपा एक बहुत पवित्र भाव मात्र है और इसका देह और यौनैच्छाओं से कोई संबंध नहीं है। मानव जीवन में यौन-व्यवहारों को वर्जनाओं के रूप में स्थापित करने में धर्म और परंपराओं ने एक लंबी साजिश रची है। जाहिर है कि मानव प्रकृति के विरुद्ध प्रेम के संबंध में इस तरह की सायास बनायी गई पवित्रावादी धारणाएं मनगढंत व अवैज्ञानिक हैं और इसका उद्देश्य सहज मानवीय व्यवहारों पर नियंत्रण करना है।

एक तरफ, हम हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान आदि इलाकों में दहशत का माहौल बनाने वाले खापों और चौधराहटों की बात करते हैं, लेकिन सच मानिये इस देश में हर घर में किसी न किसी रूप खाप अपना काम करता रहता है। कहीं, जाति के स्तर पर, तो कहीं आर्थिक हैसियत के आधार पर तो कहीं किसी अन्य सत्ता संबंध के मुताबिक प्रेम और वैवाहिक रिश्तों पर लगाम लगाया जाता है। युवा पत्रकार निरुपमा पाठक का ही मामला लें। वह पढ़ी लिखी थी, आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर थी। इन परिस्थितियों में अर्जित किए आत्म-विश्वास के चलते उसमें यह हौसला था वह अपनी मर्ज़ी से अपना जीवनसाथी चुन सकें और उसने समाज के रवायतों को जूती तले रखते हुए किया भी ऐसा ही। लेकिन, उसकी इस हिमाकत के चलते उसके बाप और भाई की तथाकथित इज़्ज़त को बड़ा धक्का लगा। फिर साज़िशों का एक सिलसिला चला। घरवालों ने अपना प्यार और संस्करों का हवाला देकर उसे घर बुलाया गया। भावुक होकर जब निरुपमा अपने पिता के घर एक-बार गयी तो फिर कभी लौट नहीं सकी। दोबारा उसे अपने प्रेमी से नहीं मिलने दिया गया। जब समझाइश काम नहीं आई तो उसको अपनी जान से ही हाथ धोना पड़ा। उसकी मौत ने हमारे सामने कई सवालों को एक बार फिर से खड़ा कर दिया है। इस घटना ने हमारे समाज के चेहरे पर से पारिवारिक प्रेम के आदर्शवादी नक़ाब को नोच कर फेंक दिया है और साबित हो गया है कि हम एक प्रेम विरोधी समाज में रहते हैं। साथ ही, यह साफ़ है कि मामला सिर्फ़ ऑनर किलिंग का नहीं है, बल्कि यह एक स्त्री का अपने जीवन पर अधिकार, उसकी स्वतंत्रता और उसके अपने ही श्रम और यौनिकता पर हक को बाधित करने का मसला है। यह पितृसता दारा जारी किया गया एक फतवा भी है कि अगर निरुपमा जैसी लड़कियाँ, अपने अधिकारों पर अपना दावा पेश करती हैं तो यह विषमतामूलक पुरूषवादी समाज के पुरोधाओं के नज़र में यह संस्कृति पर हुआ एक ऐसा हमला बन जायेगा, जिसकी पुरूषवादी दरिंदों ने नज़र में सज़ा मौत भी कम हो सकती है।
गौर से देखें तो इसी तरह के अप्राकृतिक और सत्‍ताशाली व दबंग ताक़तों द्वारा लादे हुए मानव व्यवहारों ने ही समाज में अन्याय और विषमता के काँटे बोये हैं। इससे ही स्त्रियों सहित हाशिये पर जीवन जी रहे दलितों और आदिवासियों जैसे तमाम लोगों का शोषण और उन पर अन्याय अनवरत जारी है। मानवीय गुणों में प्रेम है और स्वतंत्रता है, जो स्थापित सत्ताचक्र को बनाये रखने के लिए एक बड़ी मुश्किल चुनौति है। अतः समाज मानवीय गुणों का हर संभव दमन करता है।

संप्रति: पत्रकारिता व शोध