28 दिसंबर 2010

लोकतंत्र को उम्रकैद :- प्रणय कृष्ण

25 दिसम्बर, 2010 ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी। मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है। छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा। बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी। यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा हैहमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे? इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,
“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !
यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “
ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है. - मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.

25 दिसंबर 2010

ये युद्ध है और हम इसमें शामिल हैं


-आवेश तिवारी


घोटालों ,भ्रष्ठाचार , आतंक और राजनैतिक वितंडावाद से जूझ रहे इस देश में अदालतों का चेहरा भी बदल गया है ,ये अदालतें अब आम आदमी की अदालत नहीं रही गयी हैं ,न्याय की देवी की आँखों में बन्दे काले पट्टे ने समूची न्यायिक प्रणाली को काला कर दिया है ,जज राजा है ,वकील दरबारी और हम आप वो फरियादी हैं जिन्हें फैसलों के लिए आसमान की और देखने की आदत पड़ चुकी है |बिनायक सेन को उम्र कैद की सजा हिंदुस्तान की न्याय प्रक्रिया का वो काला पन्ना है जो ये बताता है कि अब भी देश में न्याय का चरित्र अंग्रेजियत भरा है जो अन्याय ,असमानता और राज्य उत्प्रेरित जनविरोधी और मानवताविरोधी परिस्थितियों के साए में लोकतंत्र को जिन्दा रखने की दलीलें दे रहा है |सिर्फ बिनायक सेन ही क्यूँ देश के उन लाखों आदिवासियों को भी इस न्याय प्रक्रिया से सिर्फ निराशा हाँथ लगी हैं जिन्होंने अपने जंगल अपनी जमीन के लिए इन अदालतों में अपनी दुहाई लगाई |खुलेआम देश को गरियाने वाले और सशस्त्र क्रान्ति का समर्थन करने वाले खुलेआम देश- विदेश घूम घूम कर हिंदुस्तान के खिलाफ विषवमन करते हैं ,और संवेदनशील एवं न्याय आधारित व्यवस्था का समर्थन करने वालों को सलाखों में ठूंस दिया जाता है |
बिनायक सेन की सजा के आधार बनने वाले जो सबूत छत्तीसगढ़ पुलिस ने प्रस्तुत किये ,वो अपने आप में कम हास्यास्पद नहीं है ,पुलिस द्वारा मदन लाल बनर्जी का लिखा एक पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमे बिनायक सेन को कामरेड बिनायक सेन कह कर संबोधित किया गया है ,एक और पत्र है जिसका शीर्षक है कि " कैसे अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में फ्रंट बनाये ",इनके अलवा कुछ लेख कुछ पत्र जिन पर बकायदे जेल प्रशासन की मुहर है सबूत के तौर पर प्रस्तुत की गयी |भगत सिंह और सुभाष चद्र बोस जिंदाबाद के नारे लिखे कुछ पर्चे भी इनमे शामिल हैं अदालत ने अपने फैसले में सजा का आधार जिन चीजों को माना है वो छत्तीसगढ़ ,झारखण्ड ,ओड़िसा और उत्तर प्रदेश के किसी भी पत्रकार समाजसेवी के झोले की चीजें हो सकती हैं |बिनायक चिकित्सक हैं नहीं तो पुलिस एक कट्टा ,कारतूस या फिर एके -४७ दिखाकर और कुछ एक हत्याओं में वांछित दिखाकर उन्हें फांसी पर चढवा देती |देश में माओवाद के नाम पर जिनती भी गिरफ्तारियां या हत्याएं हो रही हैं चाहे वो सीमा आजाद की गिरफ्तारी हो या हेमचंद की हत्या सबमे छल ,कपट और सत्ता की साजिशें मौजूद थी |साजिशों के बदौलत सत्ता हासिल करने और
फिर साजिश करके उस सत्ता को कायम रखने का ये शगल अब नंगा हो चुका है |माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याएं जितनी निंदनीय हैं उनसे ज्यादा निंदनीय फर्जी मुठभेड़ें और बेकसूरों की गिरफ्तारियां हैं क्यूंकि इनमे साजिशें और घात भी शामिल हैं |
बिनायक सेन एक चिकित्सक हैं वो भी बच्चों के चिकित्सक ,देश में पूरी तरह से जीर्ण शीर्ण हो चुकी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को पुनर्स्थापित करने को लेकर उनके जो उन्होंने कभी नक्सली हिंसा का सर्थन नहीं किया पर हाँ ,वो राज्य समर्थित हिंसा के भी हमेशा खिलाफ रहे ,चाहे वो सलवा जुडूम हो या फिर छतीसगढ़ के जंगलों में चलाया जा रहा अघोषित युद्ध |बिनायक खुद कहते हैं "माओवादियों और राज्य ने खुद को अलग अलग कोनों पर खड़ा कर दिया है ,बीच में वो लाखों जनता हैं जिसकी जिंदगी दोजख बन चुकी है ,ऐसे में एक चिक्तिसक होने के नाते मुझे गुस्सा आता है जब इन दो चक्कियों के बीच फंसा कोई बच्चा कुपोषित होता है या किसी माँ का बेटा उसके गर्भ में ही दम तोड़ देता है ,क्या ऐसे में जरुरी नहीं है कि हिंसा चाहे इधर की हो या उधर की रोक दी जाए,और एक सुन्दर और सबकी दुनिया ,सबका गाँव सबका समाज बनाया जाए "


कम से कम एक मुद्दा ऐसा है जिस पर देश के सभी राजनैतिक दल एकमत हैं वो है नक्सली उन्मूलन के नाम पर वन ,वनवासियों और आम आदमी के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध ,भाजपा और कांग्रेस जो अब किसी राजनैतिक दल से ज्यादा कार्पोरेट फर्म नजर आते हैं निस्संदेह इसकी आड़ में बड़े औद्योगिक घरानों के लिए लाबिंग कर रही हैं ,वहीँ वामपंथी दलों के लिए उनके हाशिये पर चले जाने का एक दशक पुराना खतरा अब नहीं तब तब उनके अंतिम संस्कार का रूप लेता नजर आ रहा है |मगर ये पार्टियाँ भूल जा रही है कि देश में बड़े पैमाने पर एक गृह युद्ध की शुरुआत हो चुकी है भले ही वो वैचारिक स्तर पर क्यूँ न लड़ा जा रहा हो ,विश्वविद्यालों की कक्षाओं से लेकर ,कपडा लत्ता बेचकर चलाये जाने वाले अख़बारों ,पत्रिकाओं और इंटरनेट पर ही नहीं निपढ निरीह आदिवासी गरीब ,शोषित जनता के जागते सोते देखे जाने वाले सपनों में भी ये युद्ध लड़ा जा रहा है ,हम बार बार गिरते हैं और फिर उठ खड़े होते हैं |हाँ ,ये सच है , विनायक सेन जैसों के साथ लोकतंत्र की अदालतों का इस किस्म का गैर लोकतान्त्रिक फैसला रगों में दौड़ते खून की रफ़्तार को बढ़ा देता हैं ,ये युद्ध आजादी के पहले भी जारी थी और आज भी है |

13 दिसंबर 2010

लवासा नेतृत्व हीनता में बंद पड़ी लड़ाई

चन्द्रिका
लवासा पुणे और मुंबई के पास वरसगांव बांध (वरसगांव बांध एवं जलाशय) के पीछे बाजी पासलकर जलाशय के किनारे, पश्चिमी घाट में स्थित है. यह शहर दीर्घीभूत वरसगांव बांध जलाशय को चारों तरफ से घेरने वाली आठ बड़ी-बड़ी पहाड़ियों की गोद में स्थित है. इस परियोजना में लगभग २५,००० एकड़s (१०० कि.मी.२) भूमि शामिल है. लवासा पुणे (लगभग 50 किमी) से 80 मिनट और मुंबई (लगभग 180 किमी) से 3 घंटे की दूरी पर स्थित है.
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने लवासा को नोटिस भेजकर बड़े पैमाने पर चल रहे पेड़ों की कटाई और पहाड़ियों के उत्खनन को स्थगित कर दिया है जिस पर कोई फैसला आने तक मुंबई हाई कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है. शरद पवार नाराज हैं कि आखिर नोटिस क्यों भेजी गयीं. लवासा के साथ शरद पवार के खड़े होने की वजह है. वजह है कि उनकी पारिवारिक रकम इस योजना में बड़ी मात्रा में लगी है और हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी के मालिक अजीत गुलाबचंद पवार के करीबी माने जाते हैं. बहरहाल सरकार और कार्पोरेट के करीबीपन का रिस्ता किसी भी रिस्ते से अधिक नजदीकी होता है. पवार की नाराजगी इसी मिलीजुली दायित्वबोध की अदायगी है. यह कम्पनी का अजीत पवार के प्रति महज प्रेम नहीं है कि महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बनने के बाद लवासा में उनके बधाईयों के बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर टांग दिये गये हैं. यह लवासा की विवादित परियोजना में महाराष्ट्र सरकार की अनिष्टकारी दखलंदाजी न होने की अपील है जो शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले द्वारा अपने भाई से की जा रही है. इसे पारिवारिक सम्पत्ति की राजनैतिक हिफाजत के रूप में देखा जाना उचित होगा.लवासा पुणे और मुम्बई के स्थित पहाड़ियों में योजनाबद्ध तरीके से बनाया जाने वाला देश का पहला शहर है जिसका नाम मराठी में अलंकृत कर दिया गया है. शायद यह राजठाकरे का भय हो कि इस योजनाबद्ध शहर को मराठी शब्दों से नामित कर दिया गया हो. २५ हजार एकड़ भूमि में बन रहे इस शहर में मुम्बई और पुणे की ऊब से निकलकर धनाड्य वर्ग लवासा में सुकून पा सके यह एक दूरगामी मकसद है. देश के धनाढ्य वर्ग को शहर और सुकून के साथ प्राकृतिक सौंदर्य से भरापुरा गाँव भी चाहिये, सब कुछ एक साथ. लिहाजा बड़े शहरों के आसपास की सुंदरता को इनके लिये संरक्षित कर दिया जा रहा है जिसकी कीमत वहाँ के मूलवासियों को अपने घरों से उजड़ कर देनी पड़ रही है. हजारों अपार्टमेंट्स और विलाओं के साथ यह योजना चार चरणों में पूरी की जायेगी जिसकी अनुमानित लागत २० हजार करोड़ रूपये से अधिक आंकी गयी है. जिसे देश के विकसित होने का स्वप्न वर्ष विजन २०-२० के एक साल बाद पूरी तरह से निर्मित देखा जा सकेगा. लेकिन इस परियोजना के कई और भी पेंच हैं जो कार्पोरेट और सरकार के मधुर सम्बन्धों को बयां करती है. जिसके तहत हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी ने कई आदिवासी गाँवों की जमीने औने-पौने दामों पर ले रखी हैं. जिस जगह यह परियोजना निर्मित की जा रही है और जिन आदिवासियों के गाँवों को उजाड़ कर लवासा बनाया जा रहा है वहाँ के मूलनिवासियों को अभी तक सरकार विजली, पानी, स्कूल पहुंचाने में अक्षम रही है. जबकि दुनिया की सर्व सुविधा सम्पन्न निर्माणाधीन इस नगरी को कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है वहीं आसपास के गांवों में एक अनुमान के मुताबिक बिजली पहुंचाने का खर्च ३ करोड़ रूपये ही लगेगा पर वह अभी तक नहीं पहुंचाई जा सकी. महज कुछ वर्षों में ही २० हजार करोड़ से अधिक लागत की इस परियोजना को चालू कर दिया गया. दरअसल यह सरकार का आदिवासियों के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण है. उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखे जाने और उनके विद्रोह की प्रतिक्षा करने की परम्परा विकसित हो गयी है. मुंबई और पुणे के बीच यहाँ का आदिवासी उसी जीवन स्तर के साथ जीता है जैसा कि बस्तर और गड़चिरौली में. शहरों से दूर स्थित आदिवासी क्षेत्रों में सरकार विकास न कर पाने, स्कूलों की अव्यवस्था का तर्क इस तौर पर देती रही है कि माओवादी इसे बाधित करते हैं जबकि माओवादी आंदोलन से कोसों दूर बसे इन आदिवासियों की दयनीय स्थिति के लिये सरकार के पास आखिर क्या जवाब हो सकता है. लिहाजा यह एक संरचनात्मक समस्या है जिसमे आदिवासी अपने को संरक्षित नहीं पाता और इसके विरुद्ध खड़ा होता है. जिसके पश्चात भी सरकार कोई कार्यक्रम आदिवासियों के उत्थान के लिये बनाने के बजाय इनके दमन के लिये ही कार्यक्रम बनाती रही है. पूरे देश में आदिवासियों के बीच चल रहे माओवादी आंदोलन का स्वरूप और प्रक्रिया यही रही है. उन्हें सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रखा गया और जब सुविधाभोगी शहरों की जमीने खोखली हो गयी तो आदिवासियों द्वारा प्राकृतिक रूप से संरक्षित पहाड़ों और जंगलों को कार्पोरेट जगत के हांथों देकर हथियाने का काम किया गया जिसमे सरकार आदिवासियों का विस्थापन करने में मदद करती रही. अभी देश में प्राकृतिक सम्पदायें वहीं सुरक्षित बच पाई हैं, जहाँ आदिवासी निवास कर रहे हैं.पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लवासा को जो नोटिस भेजी गई है वह अन्ना हजारे और मेधा पाटेकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का दबाव ही है पर इसके कोई दूरगामी परिणाम नहीं निकलने वाले क्योंकि सरकार ने विस्थापन की जो नीतियां बनाई हैं राज्यों के लिये उसमे कुछ ऐसे रास्ते छोड़ दिये गये हैं जहाँ से वे मनमानी कर सकें. इन गाँवों के आदिवासी शायद अपनी जमीने बचा लेते यदि इनके साथ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा हो पाता पर यह सम्भव इसलिये भी नहीं है कि देश के जिन हिस्सों में आदिवासियों ने अपने विस्थापन के खिलाफ बड़े आंदोलन खड़े किये हैं और सफल रहे हैं उनमें माओवादियों का जुझारू नेतृत्व ही रहा है जबकि इस क्षेत्र में माओवादीयों की कोई खास पैठ नहीं है लिहाजा सरकार और संविधान से आगे की संगठित लड़ाई लड़नी मुमकिन नहीं दिखती.

10 दिसंबर 2010

गोपनीयता बरतने का अमेरिकी करतब



- देवाशीष प्रसून
ख़िरकार विकिलिक्स के संस्थापक जूलियन असांज को गिरफ़्तार कर ही लिया गया। उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप हैं। सवाल यह है कि क्या सच में यह मामला यौन-उत्पीड़न का है या विकिलिक्स द्वारा किए गए पर्दाफ़ाशों से संयुक्त राज्य अमरीका ही नहीं उसके तमाम पिट्ठू देश सकते में आ गए हैं? इस बात में कोई शक नहीं है कि जूलियन को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है, क्योंकि उसने दुनिया की सबसे बड़ी सत्ता की गोपनीयता की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। वर्ना, देखने वाली बात है कि दुनिया भर में यौन मामलों में अंतरराष्ट्रीय पुलिस और न्याय व्यवस्था की हरकत देखने को कितनी बार मिली है? आस्ट्रेलियाई नागरिक जूलियन को ब्रिटिश पुलिस ने लंडन में हिरासत में लिया है और उन पर न्यायिक मामला स्वीडन में लंबित है। गौरतलब है कि दुनिया भर में अपना रुतबा रखने वाले फ़िल्मकार केन लोच और पत्रकार जॉन पिल्जर जैसे विश्व विख्यात शख्सियतों के कुल एक लाख अस्सी हज़ार डॉलर के मुचलके पर भी जूलियन को जमानत पर नहीं छोड़ा जा रहा है। यौन-मामलों में इस तरह की सजगता क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। पर सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच जूलियन पर न्यायिक कार्रवाई यौन अपराधों के मद्देनज़र हो रही है? जाहिर सी बात है कि विकिलिक्स ने खोजी पत्रकारिता का जो इतिहास रचा है, इसके लिए जूलियन को अमरीकी सत्ता अपने काबू में नहीं ले सकती थी, तो उन्हें दूसरे बहाने से कब्ज़े में लिया गया।

हालाँकि माहौल तो यह भी बनाया गया कि अल क़ायदा की तर्ज पर विकिलिक्स को भी आधिकारिक तौर पर एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया जाए, पर अब तक यह हो नहीं सका है। इस बाबत द हाऊस होमलैंड सुरक्षा समिति के अध्यक्ष पीटर किंग ने इसके लिए बहुत प्रयास किए। किंग ने अमरीका की राज्य सेकरेटरी हिलेरी क्लिंटन को एक आधिकारिक ख़त में लिखा था कि विकिलिक्स से देश की सुरक्षा को ख़तरा है, इसलिए विकिलिक्स को आतंकवादी संगठन घोषित कर देना चाहिए। दरअसल गोपणीय सूचनाओं के पर्दाफ़ाश के बाद अमरीका की स्थिति दुनिया भर में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं बची है। यह जाहिर हो गया है कि अमरीकी सरकार अन्य देशों और उसके प्रमुख के बारे में कितनी ओछी सोच रखती है। अब यह बात भी खुल-ए-आम हो गई है अमरीका की विदेश नीति किस तरह से अंतरराष्ट्रीय सौहार्द्य को ठेंगे पर रखती है और कैसे-कैसे उसने इराक को युद्ध में नेस्तोनाबूद कर दिया। विकिलिक्स ने अमरीका के अंतरराष्ट्रीय साख को धुँआ कर दिया है। अब इसके बाद मारे शर्म और जिल्लत के अमरीका और उसकी दुनिया भर फैली एजेंसियाँ जवाबी कार्रवाई कर विकिलिक्स को सबक सिखाना चाहती हैं। जब कूटनीतिक तरीकों से विकिलिक्स दवाब में नहीं आया तो इस सिलसिले में इन ताक़तों ने विकिलिक्स के वेबसाइट पर तकनीकी हमलों का बौछार कर दिया। इंटरनेट के क़ानूनों और नैतिकताओं को ताक पर रख कर विकिलिक्स पर बड़े जोरदार तरीके से वाइरसों के हमले हुए। इससे भी मामला क़ाबू में नहीं आया तो विकिलिक्स को वेबसाइट चलाने की सेवा जो कंपनी दे रही थी, उसे खोपचे में लेते हुए विकिलिक्स के कामकाज को ठप्प किया गया। बेचारी कंपनी ने बहाना यह बनाया कि विकिलिक्स पर होने वाले वाइरस हमले इतने तीव्र हैं कि अगर उसे बंद न किया जाता हो पूरी इंटरनेट व्यवस्था ही मटियामेट हो जाती। इसे कहते हैं, मना करने पर भी कोई आपकी बात न मानें तो उसे मज़बूर कर देना कि वह चाह कर भी कुछ कर न सके। और अमरीका इसमें माहिर है।

और याद होगा कि किस तरह से पहली बार जब विकिलिक्स ने कई आँखें खोलने वाली सूचनाओं की गोपनीयता को खत्म किया था तो स्वीडन की सत्ता उसे पहले ही तमाम तरह की धमकियाँ दे चुकी थी। लेकिन विकिलिक्स बिना किसी दवाब में आए गुप्त सूचनाओं का पर्दाफ़ाश करते रहा। दरअसल गौर करें तो अमरीका हमेशा से ही सूचनाओं की गोपनीयता को लेकर संवेदनशील रहा है। सन चौरासी की बात है कि अमरीका ने इसी तरह से यूनेस्को पर भी यों कूटनीतिक हमला किया था। यूनेस्को के साथ अमरीका के तू तू-मैं मैं का सबब मैकब्राइड समिति के सुझावों के तहत बनाए जाने वाली नई विश्व सूचना व संचार व्यवस्था को तवज्जो देना था। तब आलम यह था कि सूचना व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण से अमरीका इतना बौखला गया कि उसने यूनेस्को के अपने सारे संबंध तोड़ लिए। विश्व सामंजस्य की लफ़्फ़ाजी करने वाला अमरीका इतना ज़िद्दी है कि वह अंतरराष्ट्रीय शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति को समर्पित संयुक्त राष्ट्र के इस उपांग से उन्नीस साल तक मुँह फैलाए रहा, जब तक कि यूनेस्को ने अपनी संचार नीतियों में अमूलचूल बदलाव नहीं लाए।

अमरीका ही नहीं, दुनिया में मौज़ूद तमाम साम्राज्यवादी ताक़तों के इस फ़ितरत पर गौर करें। वह गोपनीयता को लेकर बड़े संवेदनशील रहे हैं। भारत में भी देखिए मीडिया और सियासत के बंदरबाट से जुड़े बड़े-बड़े खलीफ़ाओं की गद्दियाँ नीरा राडिया के टेप्स के बेपर्द होने से हिल गईं हैं। सीधे-सीधे यह मामला सत्ता पर क़ाबिज़ लोगों के भ्रष्टाचार और गोरखधंधा को उन लोगों से छुपा के रखने का है, जो उन्हें इन सत्ता के सिंहासन पर बैठाते हैं और इस तरह के खुलासे सत्तासीनों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं।
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संप्रति: पत्रकार व मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, नई दिल्ली व जर्नलिस्ट यूनियन फ़ॉर सिविल सोसायटी के लिए सक्रिय
दूरभाष: 09555053370 -मेल: prasoonjee@gmail.com

05 दिसंबर 2010

संसदीय राजनीति एक नाटकघर है


दिलीप खान

टू जी घोटाले को लेकर चल रहे संसदीय गतिरोध पर प्रणब मुखर्जी ने यह टिप्पणी की कि भाजपा को भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार नहीं है। उन्होंने तहलका कांड का उदाहरण देते हुए कहा कि उसमें भाजपा अध्यक्ष सीधे-सीधे कैमरे के सामने रिश्वत लेते हुए पकड़े गए थे. मुखर्जी के बोलने का कुल लब्बोलुआब यह है कि एक ऐसी पार्टी जो खुद कभी रिश्वत लेने के आरोप में राष्ट्रीय सुर्खियां बटोर चुकी है वह कैसे उसी मुद्दे पर दूसरी पार्टी को घेर सकती है? अगर इस बात को केंद्रीय भाव मानकर देश की संसद चले तो शायद किसी भी पार्टी के पास भ्रष्टाचार पर बोलने का अधिकार न हो और संसद में घोटाले का कोई मामला ही ना बने! कर्नाटक में भूमि आबंटन में हुई अनियमितता के प्रश्न पर विपक्षी जनता दल (से.) ने जब येदियुरप्पा सरकार को घेरा तो मामला राष्ट्रीय स्तर पर तूल पकड़ने लगा. राज्य में भाजपा के भीतर का भी एक धड़ा मौजूदा मुख्यमंत्री की ख़िलाफ़त करके नेतृत्व परिवर्तन पर ज़ोर दे रहा था. इन विरोधों के बीच जब उनके के इस्तीफ़े/बर्खास्तगी की मांग जोरों से चल रही थी, येदियुरप्पा ने आत्मविश्वास से लबरेज होकर कहा कि वे मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे. येदियुरप्पा के आत्मविश्वास का स्रोत प्रणब मुखर्जी के सुझाए रास्ते से ही जाकर मिल जाता है.



जिगनी में दो एकड़ ज़मीन येदियुरप्पा के बेटे राघवेंद्र् और विजयेंद्र के नाम आबंटित की गई थी. विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शनों के बीच येदियुरप्पा ने कहा कि ये ज़मीन उसी तर्ज पर मेरे बेटों को आबंटित की गई है जैसे पूर्व काँग्रेस अध्यक्ष आर वी देशपांडे के बेटे प्रसाद देशपांडे, पूर्व जनता दल मुख्यमंत्री जे एच पटेल के बेटे महिमा पटेल और पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमारास्वामी के भाई बालकृष्णा गौड़ा को आबंटित की गई थी. उनके कहने का भी मुख्य भाव यही था कि उन नेताओं से संबंद्ध पार्टी भूमि आबंटन के मुद्दे पर कैसे किसी को इतने अधिकार भाव से घेर सकती है? संसदीय राजनीति में एक ही सप्ताह में दो धुर विरोधी पार्टियां अपने बचाव में एक ही तर्क का सहारा लेती है और इस तर्क पर टिप्पणी करने के बजाए प्रत्येक दूसरी पार्टी यह उम्मीद बांधे खड़ी नज़र आती है कि वे भी किसी मौजूं समय पर इस अचूक तर्क का सहारा लेंगी. और इस तरह रस्सा-कस्सी का यह दिलचस्प खेल लंबा चलेगा.



येदियुरप्पा ने यह भी घोषणा की कि वे पिछले सोलह सालों में आबंटित ज़मीन की जांच करवाएंगे. इन अवधियों में ज़्यादातर उन्हीं दलों की सरकार सत्ता में रही है जो इस समय विपक्ष में बैठे हैं. विपक्षियों पर खेला गया यह ऐसा दांव था कि अचानक से पूरा परिदृश्य बदल गया. येदियुरप्पा मामले के अध्याय की लंबाई घट कर खात्मे के कगार पर पहुंचती दिखने लगी. कर्नाटक पिछले कई महीनों के उथल-पुथल के बीच थोड़ा स्थिर लगने लगा है.



घोटालों और भ्रष्टाचारों को लेकर संसदीय राजनीतिक दलों के तमाम विरोध प्रदर्शन की कवायद संसद और जंतर-मंतर सरीखे स्थाई विरोध अड्डे तक ही सीमित है. नजारा बेहद दिलचस्प था जब एक ही दिन दो अलग-अलग जगहों पर दो अलग-अलग पार्टियां एक ही विषय को लेकर धरने पर बैठी थी. नारा भी एक ही था कि वे पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं. इन राजनीतिक दलों में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे इन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाए. इनका विरोध दिल्ली और विधानसभाओं तक ही सीमित है. अभी-अभी बिहार विधानसभा चुनाव में पटखनी खाने के बाद प्रेस काँफ़्रेंस में रामविलास पासवान कह रहे थे कि नीतिश सरकार पर कैग की रिपोर्ट से स्पष्ट हुई अनियमितताओं को वे जनता के बीच मुद्दा नहीं बना पाए. वे कह रहे थे कि बिहार में विकास का हौव्वा खड़ा किया गया, जिसके सहारे नीतिश ने सियासी कुर्सी हासिल की. कैग की रिपोर्ट से जाहिर हुई अनियमितता हज़ारों करोड़ रुपए की थी. लेकिन प्रश्न यही है कि विपक्षी दल इसे मुद्दा क्यों नहीं बना पाए? मुख्य विपक्षी दल राजद के नाम चारा घोटाले का एक बड़ा-सा बिल्ला चस्पां है. वे जानते हैं कि घोटाले का विरोध करने पर प्रति-प्रश्न के तौर पर उसके सामने उसी का गोटा फेंका जाएगा और उसके वजन से वे उबर नहीं पाएंगे.



हमारे सामने भ्रष्टाचार की एक अंतहीन परंपरा विकसित की जा रही है. राष्ट्रमंडल, आदर्श सोसाइटी, कर्नाटक, बिहार, टू जी स्पेक्ट्रम के मुद्दे कुछ महीनों में ही एक- दूसरे को ओवरलैप करते दिखते हैं. सबसे तात्कालिक कौन है यह स्पष्ट करना मुशिक्ल हो गया है. साथ ही, यह तय करना भी मुश्किल हो गया है कि आरोपी कौन है और आरोपित कौन? समय-स्थान के साथ आरोप का पद बदलता रहता है. संसद की चहारदीवारियों के भीतर भ्रष्टाचार की अनुगूंज में प्रत्येक राजनीतिक दलों के नेता लंबे-लंबे लबादा ओढ़ कर आते हैं और घोटाले के इस महानाटक में अपनी भूमिका को बेहद सफाई से निभाने का हर संभव प्रयत्न करते हैं. जनता इस नाटक का मज़बूर प्रतिबद्ध दर्शक है.


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)

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