30 जुलाई 2012

घर के आगे कार चाहिए हड़ताल नहीं!


-दिलीप ख़ान

बंबई में 1918 में जब आम हड़ताल हुई थी तो उसमें 1,20,000 से ज़्यादा मज़दूरों ने हिस्सा लिया था और हड़ताल को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों ने लगभग 200 मज़दूरों को पुलिसिया गोली से उड़ा दिया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के किसी भी नेता ने उस समय तक मज़दूरों के मामले पर गंभीरता से काम करना शुरू नहीं किया था। मज़दूरों की गोलबंदी स्थानीय स्तर पर स्थानीय नेताओं द्वारा शुरू हुई और देश में लगातार फैलती गई। बंबई से लेकर असम के चाय बगान तक और मद्रास से लेकर कानपुर के चमड़ा उद्योग तक। अप्रैल-जून 1921 तक अकेले बंबई 33 हड़तालों का गवाह बना और इसमें लगभग ढाई लाख मज़दूरों ने हिस्सा लिया। इसी आस-पास कानपुर में चमड़ा और सूती वस्त्र उद्योग के मज़दूरों ने हड़ताल की और प्रबंधन से मज़दूरी दर बढ़ाने, काम के तौर-तरीकों को बेहतर बनाने तथा मुनाफ़े में हिस्सेदारी की मांग की। कानपुर में आज से लगभग 90 साल पहले, जब मज़दूर आंदोलन और औद्योगिक समाज के भीतर भारत में मज़दूर चेतना आकार ही ले रही थी, उत्पादन में हिस्सेदारी की मांग के साथ मज़दूर सड़क पर उतर गए थे। कांग्रेस सहित कई अन्य पार्टियों ने उस वक्त इस मांग को ठीक बताया था। आज अगर मुनाफ़े में हिस्सेदारी की मांग मज़दूरों की तरफ़ से उठे तो कॉरपोरेट घरानों के अलावा समूचा भारतीय मध्यवर्ग और सरकारी मशीनरी मज़दूरों पर पिल पड़ेंगे। मानेसर में जब बीते साल मारुति सुज़ुकी के कामगारों ने प्रबंधन प्रायोजित यूनियन की बजाए वास्तविक यूनियन बनाने सहित काम-काज की स्थितियों को दुरुस्त करने और वेतन कटौती के त्रासद नियमों (1 मिनट देरी से आने पर आधे दिन का वेतन और तीन दिन काम पर नहीं आने पर आधे महीने के वेतन में कटौती) में परिवर्तन लाने की मांग की तो प्रबंधन को इसमें विकास-विरोधी नज़रिया दिखा था और कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपिंदर हुड्डा मज़दूरों का पक्ष सुनने के बदले सुज़ुकी कंपनी का भरोसा जीतने टोक्यो पहुंच गए थे। कंपनी में तालाबंदी थी और प्रबंधन इस बात को लेकर मज़दूरों पर लगातार दबाव बना रहा था कि गुड कंडक्ट फॉर्म भरने वाले मज़दूर ही कारखाने के अंदर जा सकते हैं। गुड कंडक्ट फॉर्म का मतलब था- मज़दूरों की बुनियादी मांग की हत्या।
मानेसर का मारुति-सुज़ुकी प्लांट

बीते साल तीन बार हड़ताल हुई, काम से निकाले गए कई मज़दूरों को वापस लेने के वायदे से प्रबंधन मुकर गया और हड़ताल की अगुवाई करने वाले दोनों नेता खुद को कंपनी से अलग कर लिए। लेकिन, लंबी मशक्कत के बाद मारुति सुज़की इंपल्वाइज यूनियन को मान्यता मिल गई। प्लांट के भीतर उन्हीं सवालों पर संघर्ष अब भी जारी था जो बीते साल उठ रहे थे। इस पूरे वाकये को दौरान मारुति सुज़ुकी कंपनी को गुजरात सरकार लगातार यह प्रलोभन देती रही कि वो उसे हरियाणा से ज़्यादा फ्रेंडली माहौल दे सकती है। नरेंद्र मोदी और सुज़ुकी की बातचीत जारी थी और सुज़ुकी महोदय भी बीच-बीच में मीडिया के जरिए यह बात उछाल रहे थे कि वो प्लांट को उठाकर गुजरात ले जाएंगे। मानेसर के मज़दूरों में उस समय एक जुमला प्रचलित था कि प्लांट कोई लोटा-थाली नहीं है कि जब मन करे कहीं भी उठा ले चलेंगे! सुज़ुकी के इसी फैसले को टालने के लिए भूपेंदर हुड्डा जापान गए थे ताकि सरकार की तरफ़ से कंपनियों को अब तक मिले प्रोत्साहन में बट्टा न लगे। इस तरह मारुति-सुज़ुकी के पास दो अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग पार्टियों के मुख्यमंत्री मनुहार लगा रहे थे। कंपनी प्रबंधन के पास मज़दूरों की मांग नहीं मानने के लिए ज़रूरी आत्मविश्वास बरास्ते सरकार जमा हो रहा था। इसके बाद हड़ताल, प्रदर्शन और किसी भी तरह के जमावड़े को रोकने के लिए प्रबंधन ने बड़ी संख्या में बाउंसरों की भर्ती की। मतलब खाए-पिए-अघाए लोग फ्रेश होने के लिए जब डांस क्लब में जाते हैं, तो छेड़खानी या फिर हंगामा वगैरह को नियंत्रित करने के लिए जिन बाउंसरों का इस्तेमाल होता है उन्हीं बाउंसरों को बुनियादी मांग उठा रहे मज़दूरों के सामने खड़ा कर दिया गया। कंपनी में काम-काज बाउंसरों की पृष्ठभूमि में होने लगा। अगजनी या फिर प्रबंधक की मौत निश्चित तौर पर एक दुखद चित्र हमारे सामने पेश करता है लेकिन ज़्यादा महत्वपूर्ण होगा इसके कारणों का पता लगाना। जातिसूचक गाली देने वाले व्यक्ति की पिटाई एक तरह से जातिगत वर्चस्व की संरचना को तोड़ता है और इस वजह से मैं इसे सकारात्मक ही मानूंगा। मध्यवर्गीय समाज हिंसा-अहिंसा की बहस को सुविधानुसार समय में उठाता है। किसान-मज़दूरों का प्रदर्शन जब कभी उग्र हो जाए तो सरकार से लेकर मीडिया तक के दिमाग में औचक विचार आता है कि ये तो हिंसा का रास्ता है और इसलिए ग़ैर-संवैधानिक है! पिछले साल हुड्डा के जापान से लौटने के बाद जब मज़दूरों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस ने लाठी भांजी तो उस समय संवैधानिक और ग़ैर-संवैधानिक वाली बहस नहीं उठी। संविधान के दायरे में मिले अधिकारों को तो कॉरपोरेट के साथ मिलकर खुद सरकार मटियामेट कर रही है। नौकरी की ठेका प्रथा पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और देश के संविधान में जो बातें कही गई हैं क्या उसे भारत के किसी भी कोने में सरकार लागू करवा रही है?  
मानेसर में मारुति-सुज़ुकी का यह प्लांट लगभग 3000 एकड़ में फैला है। 2002 में चौटाला सरकार ने 2.25 लाख रुपए प्रति एकड़ की दर से स्थानीय लोगों से ज़मीन ली थी। उस वक्त राज्य सरकार ने वादा किया था था कि ज़मीन देने वाले हरेक घर से एक व्यक्ति को नौकरी दी जाएगी। काम शुरू होने के बाद कंपनी ने नौकरी देने से इनकार कर दिया। जो लोग नौकरी की आस लगाए बैठे थे उन लोगों ने चाय की भट्टी और छोले-भटूरे की दुकान खोल ली। कुछ लोग रिक्शा और टैम्पो चलाने लगे। उनकी कमाई का जरिया मारुति-सुज़ुकी का यह प्लांट ही है। यहां काम करने वाले लोग ही उनके ग्राहक हैं। इसलिए उनका संकट ये है कि अगर प्लांट मानेसर से कहीं और शिफ्ट होता है तो उनमें से ज़्यादातर लोग बेरोज़गार हो जाएंगे। प्रबंधन, सरकार और मीडिया से जिस तरह की बातें छन कर उन लोगों तक पहुंची उसका अर्थ यही था कि प्लांट के मज़दूर नहीं चाहते कि प्लांट चले! इस भाव को अगल-बगल के गांव के सरपंचों (हरियाणा के सरपंच को आप किस रूप में जानते हैं? संदर्भ- खाप) ने और स्थाई बना दिया। सरपंचों ने मिलकर महापंचायत बैठाई और फैसला किया कि लाल झंडे वालों को सबक सिखाने में वो दूसरे पक्ष का साथ देंगे। समाज का जिस तरह से (अ)राजनीतिकरण हो रहा है उसमें तत्कालिक आवेश ज़्यादा अहम हो चला है। दुनिया के किसी भी कारखाने में काम करने वाला कोई भी मज़दूर यह कभी नहीं चाहेगा कि वह कारखाना ठप्प हो जाए और यह बेहद सामान्य-सी बात है। हां, अपने अधिकार के लिए वो लड़ेगा ज़रूर। अगर प्लांट के चारों तरफ के गांव वाले इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं तो जाहिर है कंपनी के प्रोपेगैंडा के बीच यह पक्ष उन तक नहीं पहुंच रहा है। जिस बेरोज़गारी के डर से गांव वाले पंचायत बैठा रहे हैं उस आधार पर तो वो मज़दूरों के ज़्यादा करीब है। प्लांट बंद होने पर उनकी तरह मज़दूर भी बेरोजगार हो जाएंगे। अधिकारों के लिए लड़ रहे मज़दूरों को कंपनी धोखा दे रही है और गांव वालों को नौकरी नहीं देकर वो पहले ही धोखा दे चुकी है। सवाल ये है कि बीते साल हड़ताल को अंदरुनी मामला बताने वाला तटस्थ समाज आखिरकार कंपनी के पक्ष में अचानक कैसे चला जाता है? क्या तटस्थता का पूरा मामला अंतत: शक्तिशाली के पांत में ही खड़ा होना है? दिल्ली से लेकर बंबई तक के कॉलेज में पढ़ रहे फंकी युवाओं की हमदर्दी कंपनी के साथ क्यों रहती है? उदारीकृत आर्थिक व्यवस्था में समाज में निरपेक्ष दिखने वाले तबके का राजनीतिकरण किस दिशा में हो रहा है। यह व्यवस्था की चौहद्दी में हुई मानसिक बुनावट है या फिर पक्षधरता तय कर ली है समाज ने?
बाइक पर अन्ना समर्थक युवा-शहरी-मध्यवर्ग

25 जुलाई 2005 को होंडा मोटरसाइकिल के कामगारों पर लाठी चार्ज हुआ था। उस वक्त लगभग 800 मज़दूर होंडा सिटी के कारखाने में जमा होकर यूनियन बनाने और निकाले गए मज़दूरों की पुनर्बहाली को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। प्रबंधन उनकी यूनियन को मान्यता नहीं दे रहा था और मज़दूरों को बहाल करने में आना-कानी बरत रहा था। 2005 में होंडा कंपनी से लेकर 2011-12 में मारुति-सुज़ुकी तक जो लकीर खिंची है उसमें बहुत फ़र्क़ कहां है? मारुति में भी शुरुआती आंदोलन इन्हीं दो सवालों से पैदा हुआ था। यह संयोग है कि 25 जुलाई को उस घटना की सालगिरह थी और इसी दिन प्रणब मुखर्जी ने देश के नए राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली और अन्ना हज़ारे एंड कंपनी ने जंतर-मंतर पर मोर्चा खोला। 2005 के बाद से हर साल मानेसर और गुड़गांव की ऑटोमोबाइल कंपनियों के मज़दूर इस दिन लाठी चार्ज के विरोध में प्रदर्शन करते हैं। इनमें मारुति सुज़ुकी, हीरो मोटोकॉर्प, रिको, सोना कोया, एफसीसी रिको, सुज़ुकी पावरट्रेन, सुज़ुकी मोटरसाइकिल और मार्क एक्झॉस्ट के मज़दूर अमूमन हर साल शामिल होते रहे हैं, लेकिन इस बार 24 जुलाई को गुड़गांव पुलिस ने यह घोषणा की कि 25 तारीख़ को मानेसर में धारा 144 लागू कर दी गई है और पांच से ज़्यादा व्यक्ति एक साथ इकट्ठा नहीं हो सकते। मज़दूरों के मार्च को रोक दिया गया। फिर भी कंपनी के भीतर लगभग 8,000 मज़दूर जमा हुए। जो मीडिया सौ लोगों की महापंचायत को दिखा रहा था उसने आठ हज़ार मज़दूरों के प्रदर्शन को नहीं दिखाया।
इस बीच मीडिया में इस तरह की ख़बरें लगातार आती रही कि मानेसर बंद होने से कौन सी कार बाज़ार में आउट-ऑफ-स्टॉक हो जाएगी, डीज़ल कार की क़ीमत पर इससे क्या असर होगा और मारुति-सुज़ुकी को इस तालाबंदी से कितना घाटा होने वाला है! वगैरह, वगैरह। मारुति सुज़ुकी के सीओओ मयंक पारीख ने 25 जुलाई को ही घोषणा की कि उनका दो सबसे ज़्यादा बिकने वाला मॉडल स्विफ्ट और डिज़ायर आउट ऑफ स्टॉक हो गया है। अगले दिन इस मुद्दे पर कुछ चैनलों ने लोगों की रायशुमारी ली जिसमें मध्यवर्ग छाती कूटता दिख रहा था। यह चर्चा लगातार ज़ोर पकड़ने लगी कि मारुति-सुज़ुकी में हुई हिंसा से भारत की छवि धूमिल हुई है। सार्क चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष विक्रमजीत सिंह साहनी ने देश की छवि पर पड़ने वाले असर पर भारी चिंता जताई। बंगाल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष हर्ष झा ने कहा कि मानेसर के दोषियों पर आपराधिक क़ानून के तहत मुकदमा चलना चाहिए और इसे औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत नहीं देखा जाना चाहिए। झा ने दावा किया कि पूरा मामला पूर्वनियोजित मालूम पड़ता है! औद्योगिक घराना उस वक़्त आपराधिक क़ानून का जुमला नहीं उछालता जब सेज़ के लिए ज़मीन अधिग्रहण के वास्ते फ़ौजी बंदूक का सहारा लेकर गांव वालों को वो खदेड़ता है। उस समय उन्हें निजी कंपनियों की सुरक्षाकर्मी की तरह चाक-चौबंद होकर गांव खाली कराने वाली सरकार चाहिए।
कंपनी के अध्यक्ष आर सी भार्गव ने यह बार-बार जताया है कि कंपनी मानेसर में ही रहेगी लेकिन तालाबंदी के बाद मौका ताड़कर इस बार सुज़ुकी से मिलने के लिए नरेंद्र मोदी ने जापान का रास्ता नापा। वे अपनी तईं पूरा ज़ोर लगा रहे हैं कि गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले मारुति-सुज़ुकी को अपने राज्य में खींचकर ले जाने में वो सफल हो पाएं। आख़िरकार वो कौन-सी शर्तें होंगी जिनके बिना पर मारुति-सुज़ुकी गुजरात जाने का फैसला करेगी। मज़दूरों की हड़ताल के अलावा मारुति-सुज़ुकी को अब तक मानेसर में कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। तो क्या हड़ताल को क्रश करने का भरोसा दिलाने मोदी जापान पहुंचे? विकसित राज्य तक पहुंचने का रास्ता इन्हीं वायदों से होकर गुजरता है। मध्यवर्ग को सिर्फ़ इससे मतलब है कि उनके घर के सामने स्विफ्ट और डिज़ायर पहुंचने में देर नहीं होनी चाहिए। उनके लिए कंपनी कार की जननी है और मज़दूर अड़ंगा डालने वाला प्राणी। यही मध्यवर्ग गाल पर तिरंगा छापकर अन्ना हज़ारे के साथ भ्रष्टाचार पर आवाज़ बुलंद करने पहुंचता है। इनका मुद्दा सिर्फ़ वहीं तक सीमित है जो सीधे-सीधे इनसे टकराता हो। मज़दूरों के मामले से इनको कोई लेना-देना नहीं है, अल्पसंख्यक-दलित-आदिवासियों का मामला इनको आउटसाइडर जैसा मालूम पड़ता है। सरकार इनको साफ़ सुथरी चाहिए, कोई भ्रष्टाचार नहीं चाहिए और सुज़ुकी के साथ गलबहियां डालने वाले नेता को उनके जनसंहार के लिए क्लीन चिट देते हुए यह पूरा वर्ग उसमें विकास के अक्स ढूंढता है।



19 जुलाई 2012

बासागुड़ा: सैन्य बलों द्वारा जनसंहार की एक कहानी

                                                                                             --कोत्तागुड़ा से लौटकर चन्द्रिका    
                                                         
बासागुड़ा, छत्तीसगढ़ में बीजापुर का एक आदिवासी बहुल इलाका है. सरकार उसे माओवादी बहुल इलाका कहती है. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी बहुलता माओवादी बहुलता में बदल गयी है. बीजापुर, दांतेवाड़ा जिले के एक हिस्से को काटकर बनाया गया जिला है, जहां 28 जून को सैन्य बलों द्वारा 17 माओवादियों को मारे जाने का दावा दिया गया. हालांकि इसके ठीक उलट ग्रामीण और मृतकों के परिजन उनके माओवादी होने से इनकार कर रहे हैं. यहां घने जंगलों और छोटी पहाड़ियों के बीच ये गांव बसे हैं.
सीआरपीएफ की गोली के शिकार हुए इरपम दिनेश
की पत्नी इरपम जानकी
इन इलाकों में रहते हुए कोई भी, दिन और तारीखें भूल सकता है. शायद तारीखें तेज जीवन गति की जरूरत हैं. कुछ बरस बाद बीजापुर के कोत्तागुड़ा गांव में लोग 28 जून के रात की सामूहिक हत्या की कहानियों को ऐसे ही बता पाएंगे. सलवा-जुडुम के हमले, उनका विस्थापन और फिर से गांव में लौटना उन्हें इसी तरह याद है. तारीख घटनाओं को याद रखने का एकमात्र तजुर्बा नहीं है. उनके लिए ये मानवीय आपदाओं के मौसम रहे हैं. सरकारी सुरक्षा बन्दोबस्त से पैदा हुए भय और आतंक से असुरक्षित रहने का समय. 6 बरस पहले गर्मी में उजड़ने का मौसम और तीन बरस पहले धान की खेती के समय लौटने का मौसम. जो तारीखें नहीं याद रख सकते वे इस देश की न्याय व्यवस्था में गवाह भी बनने के काबिल नहीं हैं. एक मां को अपने बेटे के मौत की तारीख याद रखनी होगी. जबकि वोटिंग कार्ड में उनके जन्म की तारीखें दर्ज नहीं हैं. ये बगैर तारीखों के पैदा हुए लोग हैं जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं. लाशों को माओवादी न होने के सुबूत देने होंगे पर माओवादी होना किसी की देह पर दर्ज नहीं होता. शोर तो ऐसा है कि अगर वे माओवादी होते तो मानो इनकी हत्याएं मान्य थी. देश के अपने ही लोगों की सैन्य बलों द्वारा की जा रही हत्याएं देशभक्ति की मिसाल बन रही हैं. आखिर यह कौन और कहां की नस्ल है जो लाल किले पर लोकतंत्र और आज़ादी वाले सम्बोधनों की गिनती के साथ हर बरस बढ़ रही है. पर वे माओवादी नहीं थे यह त्थ्यों से पता चलता है. उनके राशन कार्ड में दर्ज नाम, स्कूलों के हॉस्टल में दर्ज पते और वोटिंग कार्ड इसके गवाह हैं. उनकी पत्नियां तस्वीरें लिए घूम रही हैं जो कहीं किसी स्टूडियो में खिचाए गए हैं. वे हमारे सामने माओवादी न होने के कितने तो सुबूत पेश करते हैं. माओवादी होने की कठिन जीवनशैली को यहां का हर आदिवासी जानता है. सारे सुबूत उस जीवनशैली से अलग हैं. ये राज्य व्यवस्था के साथ जुड़ाव रखने की प्रक्रियाओं के सुबूत हैं. इससे अलग हमारे सामने ही मृतकों के परिजन और गांव के लोग 7 जुलाई को पहुंचे एस.डी.एम. से चीखते हुए कह रहे थे कि गांव के सभी जिंदा बचे लोग माओवादी हैं, ठीक अपने उन्ही बच्चों जैसे, अपने उन्ही लोगों जैसे जिनकी हत्याएं उस रात सैन्य बलों द्वारा की गई. यह सब कहते हुए वे दुखी हैं, क्रोधित हैं और उनमे भय बेहद कम बचा है. सरकार को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे वाले रजिस्टर में एक पन्ना और जोड़ लेना चाहिए कि सामूहिक हत्याओं ने वहां भय को निरस्त कर दिया है. 

यहां पहुचने के दो रास्ते हैं. बासागुड़ा थाने से तीन किमी की दूरी और आंध्र प्रदेश के चेरला तहसील से होते हुए जंगल के 70 किमी. का रास्ता जैसा कुछ. गांव तीन पारों में बंटा हुआ है, कोत्तागुड़ा, राजपेटा और सारकेगुड़ा. ये उजड़े हुए लोग थे जो फिर से बसने का प्रयास कर रहे थे. 2005 में जब सलवा-जुडूम चलाया गया उस बरस पूरा गांव उजड़ गया, 35 घरों को आग के हवाले कर दिया गया था और कुछ लोगों की हत्याएं की गयी थी. सलवा-जुडुम को मुख्य मंत्री रमन सिंह सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसके बंद किए जाने का आदेश आने तक 'शांति स्थापना' का आंदोलन कहते रहे. इस शांति अभियान से फैली अशांति के बीच पूरा गांव यहां से 70 किमी दूर आंध्र प्रदेश के चेरला तहसील चला गया, वहां वे 4 बरस तक रहे. लोग दूसरे के खेतों में मिर्च तोड़ने का काम करते थे. यह एक कड़ुआ अनुभव था, जो बीत चुका. 2009 में वनवासी चेतना आश्रम के हिमांशु कुमार ने इनमे से कुछ को वापस बसाया और रमन सिंह सरकार ने इस कृत्य को देखते हुए हिमांशु कुमार के आश्रम को ही उजाड़ दिया. चेरला से आदिवासी धीरे-धीरे वापस अपने गांव लौट आए. तकरीबन 10 परिवार अभी भी नहीं लौट पाए. 
काका सरस्वती के पिता काका रामा अब तस्वीरों में
ही सरस्वती को देख पाएंगे
गांव के अलग-अलग लोगों से हुई बातों के आधार पर यह उस घटना की यह एक सामूहिक गवाही सी है कि 28 जून की शाम 8 बजे एक तयशुदा मीटिंग थी. जिसमे तीनों पारों से हर घर का लगभग एक सदस्य शामिल था. बारिस कुछ दिन पहले ही शुरु हुई थी और धान के खेती की यह सामूहिक तैयारी थी. इस पूरे इलाके में आदिवासी सामूहिक श्रम की खेती करते हैं. रास्तों से गुजरते हुए हमने यह भी देखा कि खेत उनके अपने नहीं बल्कि गांव के हैं और कई महिलाएं और बच्चे एक साथ मिलकर उन खेतों में हल चला रहे हैं. बारिस की शुरुआत देर से हुई इसलिए यह मीटिंग भी मौसम की देरी के साथ थी. कारण यह भी था कि गांव के पुजारी जो फसल के पहले पूजा के लिए मीटिंग आयोजित करते थे कुछ दिनों पहले उनकी मौत हो चुकी थी. वह स्थान जहां मीटिंग आयोजित थी तीनों पारों के बीच की जगह है. आसपास महुआ और ताड़ के कुछ पेड़ हैं जिनकी एक दूसरे के बीच की दूरी 20 मीटर से भी अधिक है. यानि यह एक खुला हुआ मैदान है. मिट्टी की हल्की ऊंची एक पट्टी है जो घास से ढंकी हुई है और बगल के महुआ के पेड़ की जड़ें उभरी हुई हैं. गांव की मीटिंग में बैठने के लिए यह एक सहूलियत की जगह है. मड़ियम राकेश बताते हैं कि खाना खाने के बाद लोग इस मैदान में इकट्ठा होने लगे. तीनों पारे के लोगों को आवाज लगाकर इकट्ठा किया गया था. यह कोई छुपी हुई मीटिंग नहीं थी. एक घंटे के बाद बातचीत शुरू हो गयी. जिसमे यह तय होना था कि किसके खेत में कौन काम करेगा, किसके पास क्या बीज है और गांव के लिए पिछले तीन सालों से बड़ी मुश्किल यह है कि बैल बहुत कम हैं. सलवा-जुडूम ने जब इस गांव को उजाड़ा और जलाया था तो बैल और जानवर जंगली बन गए. अब गांव में जितने बैल हैं उन्हीं की जुताई पर पूरे गांव की खेती होनी है. गांव वालों की बैठक रात के दस बजे तक चलती रही और तब तकरीबन 70-80 लोग उस समय मौजूद थे जब सैन्य बलों ने घेर कर गोलियां चलानी शुरु कर दी. गांव वालों को उनके आने का पता तक न चला न ही सैन्य बलों द्वारा कोई चेतावनी दी गयी. चलती गोलियों के बीच लोग घरों की तरफ भागने लगे. किसी भी घर की दूरी यहां से तकरीबन 150 मीटर है. 150 मीटर की दूरी पार करने के लिए 300 कदम तो दौड़ना ही था. इस बैठक में उपस्थित लोगों में से 23 लोगों को गोलियां लगी जिसमे 17 लोगों की मौत हो गई. यह सबकुछ महज आधे घंटे से एक घंटे के भीतर हुआ. गोलीबारी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आसपास के ज्यादातर पेड़ों में गोलियों के निशान हैं, गोली लगने से मरी हुई एक सूअर की हड्डिय़ां अभी वहीं बिखरी पड़ी हैं, गोली से मृत दो गायों को गांव वालों ने थोड़ी दूर जंगल में फेंक दिया है, उनमें एक बैल अभी जख्मी और जिंदा है. महुआ के पेड़ की जड़ पर रिसे हुए खून के बस धब्बे बचे हैं, मृतकों की फटी हुई कमीज और बनियान है जो मिट्टी से लिपटी मैदान में पड़ी हैं. गोलीबारी के तुरंत बाद सैन्य बलों ने एक डम्फरनुमा गाड़ी में घायलों और मृतकों को एक दूसरे के ऊपर फेंक दिया. गांव वालों का कहना है कि जब उन्हें लादा जा रहा था तो उनमे से ज्यादातर लोग जख्मी और जिंदा थे. यह कहते हुए गांव के लोग संभावना जता रहे थे कि उनकी मौत अमानवीय तरीके से गाड़ी में लादे जाने और रक्तश्राव से हुई. वे यह भी बता रहे थे कि एक मृतक के कंधे पर कुल्हाड़ी औरीक के सिर पर पत्थर से मारे जाने के निशान भी थे. उन्हें ऐसी आशंका है कि कुछ जख्मी लोगों को थाने ले जाकर प्रताड़ित करके उनकी हत्या की गयी. गोलीबारी के बाद कई घरों की तलाशी ली गई और सैन्य बलों द्वारा लूटपाट भी किया गया. गांव की काका कमला ने बताया कि इरपा ललिता जो अपने घर में सोई हुई थी सैन्य बलों ने उन्हें निर्वस्त्र किया और उनके साथ बुरा किया. इस तलाशी के दौरान कई महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई. इरपा पुष्पा को उनके घर से घसीट कर पीटा गया. मड़कम शांति जिनके पति की सलवा-जुडुम ने 2005 में हत्या कर दी थी उनके साथ भी सैन्य बलों ने बदसलूकी की. कम्मा सरस्वती, इरपा तुलसी, सारिका काका, बारसे मारुति गांव के अलग-अलग लोगों ने इनके नाम भर गिना दिए. वे सबके बारे में नहीं बता पा रहे कि क्या हुआ, गांव की सामूहिक हत्याओं में शायद यह सबकुछ उनके लिए बेहद सहज और मामूली सा हो गया है. शायद न भी हो, जिन घटनाओं पर वे चुप हैं, जिसके बारे में कुछ पूछने पर वे धीरे-धीर वे अपने घरों की तरफ चले जाते हैं, उन्हें कुरेदना वाजिब नहीं. गोलीबारी के ज्यादातर साक्ष्यों को दूसरे दिन सुबह सैन्य बलों द्वारा खुद ही मिटा दिया गया. वे जमीन पर गिरे खून की मिट्टी तक उठा कर ले गए. पेड़ों में गोलियों के सुराख हैं पर उनमे कोई भी गोली नहीं है.
काका रमेश और काका पार्वती अपने जख़्म दिखाते हुए

अब उनकी लाशें गांव के अलग-अलग किनारों पर दफन कर दी गई हैं. गांव का कोई भी युवक उस तालाब तक लेकर जाता है और कहता है कि बताओ ये सब माओवादी थे. जैसे गांव के अपने लोगों के लिए वह आपकी गवाही चाहता हो. मैदान के सबसे नजदीकी झोपड़ी में कुछ महिलाएं रेला के अलाप के साथ विलाप कर रही हैं और झोपड़ी के चौखट पर दो मिट्टी के दिए जल रहे हैं यह उनके मृतक होने के बाद का संस्कार है. जहां इरपा जानकी जो मृतक इरपा दिनेश की पत्नी हैं वे रो रही हैं. दिनेश इरपा की उम्र 30 बरस के आसपास थी. दूसरे दिन जब गांव वालों ने बासागुड़ा थाने को घेर कर शोर मचाया तब शाम 6 बजे मृतकों की लाशें गांव वालों को लौटाई गई. जिसकी कुल संख्या 16 थी. पुलिस द्वारा इरपा दिनेश की लाश तक वापस नहीं की गयी. थोड़ी देर बाद जानकी अपने 2 साल के बच्चे को कंधे पर उठाए आती हैं और तेलगू में कुछ कहती हैं. वे कहती हैं कि माओवादी बीबी-बच्चों के साथ घर बनाकर कहां रहते हैं. काका सरस्वती जो 12 साल की एक बच्ची थी उसके पिता काका रामा चुप हैं. कहने के लिए उनके पास सरस्वती की एक तस्वीर है जिसे लेकर वे मैदान के एक किनारे पर बैठे हैं, उन्हें हिन्दी नहीं आती इसलिए कुछ भी पूछने पर तस्वीर दिखाते हैं. मृतक समैय्या काका की उम्र 31 बरस थी ऐसा उनके वोटिंग कार्ड से आंकलन किया जा सकता है. जिसमे जन्म की तारीख के स्थान को Xxxxxxxxx xxx  से भर दिया गया है और वर्ष की जगह 1979 दर्ज है. इरपा नारायण के जन्म की तारीख और बरस दोनों का पता इनके वोटिंग कार्ड में दर्ज नहीं है. यहां 1 जनवरी 1995 को निर्वाचन आयोग ने इन्हें 35 बरस का माना है. इरपा नारायण 4 बच्चों के पिता थे. उनकी हत्या के बाद जब सैन्य बलों ने घरों की छानबीन की तो उनके घर में रखे 30 हजार रूपए भी उठा ले गए. मड़कम मुत्ता जो नागेश और सुरेश के पिता हैं उन्होंने अपने दोनों बेटों को दफ्न कर दिया है. इसी तरह इरपा राजू ने भी अपने दो बेटे इरपा मुन्ना और इरपा दिनेश को खो दिया है. इन चारो की उम्र 25 से 30 साल के बीच थी. कुल 17 मृतकों की अलग-अलग कहानियां हैं. हर मृतक की मां, पत्नी, पिता अपने साथ सुबूत लिए खड़े हैं. माओवादी न होने के सुबूत. सरकारी द्स्तावेजों में मृतकों के नाम जहां-जहां मौजूद हैं अपनी झोपड़ियों से वे सब उठा लाए हैं. जैसे वे इसे पेश करते हैं कि माओवादी नहीं है इसलिए इन्हें जिंदा कर दो. कैमरे के सामने वे अपने बच्चों की तस्वीरें रखते हैं और फिर उसे गमछे से पोछते हुए उठा लेते हैं.
घटना में जो छः लोग जख्मी हैं उनमे काका पार्वती जिनकी उम्र 13 बरस है और काका रमेश जिनकी उम्र 15 बरस है. काका पार्वती के बांए हांथ में गोली लगी है और रमेश के हाथ व पीठ दो जगह. अपने जख्मों पर पट्टियां बंधवा कर वे जगदलपुर से गांव वापस लौट आए हैं. रमेश को उसी गाड़ी में लादकर ले जाया गया था जिसमे घायल और मृतकों को साथ में लादा गया. अपने शर्ट को उठाए हुए वे कुछ बुदबुदाते हैं और फिर रोने लगते हैं. रमेश के पिता दो बरस पहले पास की ही तालपेरू नदी में अचानक आयी बाढ़ में बह गए. घायलों में एक 12 साल का बच्चा आपका छोटू है जिसके पिता का नाम बुधराम है और इरपा चिनक्का जो इरपा नरसा की पत्नी है दोनों जगदलपुर अस्पताल में हैं. जिसे बड़े माओवादी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है वह काका सेंटी और सोमा मड़कम हैं. ये दोनो घायल हैं और रायपुर के किसी अस्पताल में हैं. काका सेंटी की उम्र 18 बरस है और उनके माता-पिता नहीं हैं. बुधराम ने बताया कि घटना के तीन दिन पहले से सेंटी अपने घर में महुआ के फलों से छिलके निकाल रहे थे. हालांकि उन्होंने यह नही पूछा कि एक बड़ा माओवादी ग्रीनहंट जैसे अभियान के समय इतने इत्मिनान से कैसे रहेगा. जबकि लोग कुछ बताने के बजाए किसी भी व्यक्ति से ऐसे ही सवाल पूछ रहे हैं. सोमा मड़कम के पत्नी का नाम कमला है जो अभी गर्भवती हैं. सोमा के कुल तीन बच्चे हैं. वे गांव के कुछ लोगों के साथ रायपुर जाना चाहती थी पर गांव के लोगों ने उन्हें रोक दिया. गांव के लोग पहले इन्हें मृत मान चुके थे पर अखबारों की कतरनों को वे दोनों के जिंदा होने के सबूत के तौर पर रखे हुए हैं.  
7 जुलाई को भोपालपट्टनम के एस.डी.एम. आर.ए. कुरुवंशी दो ट्रक राहत सामाग्री लेकर गांव पहुंचे थे. एक तम्बू लगाकर वे गांव वालों का इंतजार करते रहे. 5 घंटे बाद गांव के लोग एक साथ होकर उनके पास आते हैं. वे अपने सत्रह लोग लेने आए हैं. वे कहते हैं कि हमारे 17 लोगों को हमे वापस करो. मृतकों की पत्नियां और गांव के लोग चीख रहे हैं. वे अपने छोटे बच्चों को उनके सामने घसीटते हुए लाते हैं और गोली चलाने को कहते हैं. वे चिल्ला रहे हैं कि हम सब माओवादी हैं हम पर गोलियां चलवा दो. काका कमला कहती हैं कि सरकार ने माओवादियों के लिए राशन-कपड़े क्यों भेजे हैं. चिल्लाते-चिल्लते कुछ महिलाएं फिर से सुबकना शुरु कर देती हैं. एस.डी.एम. कुरुवंशी तम्बू को उतारने और वापस लौटने का आदेश देते हैं.   
हत्या की घटना को एक हफ्ते से ज्यादा गुजर चुके हैं. हर रोज बाहर से पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आना जारी है और हर रोज उन्हें पूरी कहानी दुहरानी पड़ती है. गांव को सैन्य बलों ने घेर रखा है. जंगल की तरफ से जब हम गांव में घुसने को थे कि सैन्य बल अपने हथियार की नली हमारी तरफ घुमाते हुए मुस्तैद हो गए. गांव के लोगों को रात में कहीं निकलने नहीं दिया जाता. किसी भी बाहरी व्यक्ति के आने पर सैन्य बल देर तक उससे पूछताछ करते हैं. नजदीकी गांव पाकेला, पुसुबाका के लोगों का बासागुड़ा बाजार और स्कूल जाने का यही रास्ता है. उन गांव के लोगों ने इधर से जाने का रास्ता छोड़ दिया है. तीन किमी. जाने के बजाय वे 70 किमी. दूर चेरला जाने लगे हैं. वे किसी सामान को खरीदने पैदल भी चले जाते हैं. जिंदगियां दूरी और समय से ज्यादा कीमती हैं. कई बच्चे भय के कारण पिछले कुछ दिनों से स्कूल नहीं गए हैं. तालपेरू नदी का पानी धीरे-धीरे बारिश के कारण बढ़ रहा है और ऐसे में वे चिंतित हैं. जंगल एकमात्र सहारा है और जंगलों में जाना खतरनाक भी

16 जुलाई 2012

मरने वाले मरते रहें, आप कविता-कहानी करते रहें!


रंजीत वर्मा 
पिछले दिनों छत्‍तीसगढ़ के बीजापुर में सीआरपीएफ आदिवासियों को माओवादी बता कर जब मार रही थी, तो हिंदी साहित्‍य के एक तबके में इस बात पर चिंता ज़ाहिर की जा रही थी कि भारत भवन का पराभव होने के बावजूद कुछ लेखक उसके आयोजनों में शिरकत क्‍यों कर रहे हैं। सब कुछ अपने समय से अलग, कटा हुआ, गोया हिंदी के लेखक समाज ने जान-बूझ कर दुनिया-जहान की ओर पीठ कर रखी हो। साहित्‍य से इंसानी जि़ंदगी के बेदखल हो जाने की वजह आखिर क्‍या है? 


गुंटर ग्रास की कविता 'जो कहा जाना चाहिये' जब हिंदी में अनूदित होकर आयी तो इसने अपनी तरह से एक बहस खड़ी की। इस कविता के पीछे जो राजनीति काम कर रही थी उसके विरोध में हिंदी साहित्य का एक तबका अचानक सक्रिय हो गया था। यानी कि वे ऐसे लोग थे जो एकदम अमेरिकी लाइन पर चलते हुए ईरान को लोकतंत्र के लिये ज्यादा खतरनाक मान रहे थे और इज़राइल का बचाव कर रहे थे। ज़ाहिर है एक दूसरा तबका भी था जो कविता की लाइन को एकदम सही मान रहा था और इज़राइल को लोकतंत्र ही नहीं बल्कि समूची मानवता के दुश्‍मन के तौर पर देख रहा था। यह बात दो-तीन महीने पहले की है। और अभी जबकि इस बहस का गुबार बैठा भी नहीं है, कि तभी इज़राइल से जुड़ी दो और खबरें पढ़ने को मिलीं। एक खबर के अनुसार भारत के मशहूर तबला वादक ज़ाकिर हुसैन ने अपनी इज़राइल यात्रा रद्द कर दी। उन्हें वहां संगीत के कई कार्यक्रम देने के लिये जाना था। ऐसा उन्होंने 'इंडियन कैम्‍पेन फॉर द एकेडमिक ऐंड कल्चरल बायकॉट ऑफ इज़राइल' नामक संस्था की मुहीम के कारण किया। अखबार में छपी खबर के अनुसार जिन लोगों ने हस्ताक्षर जारी कर ज़ाकिर हुसैन से अनुरोध किया कि वे फलस्‍तीनियों पर जुल्म ढाने वाले इज़राइल के विरोध में वहां न जायें, उनमें से कुछ के नाम ये हैं- गार्गी सेन, गीता हरिहरन, ध्रुव संगारी, विद्या राव, सईद मिर्जा, सुधन्वा देशपाण्डे, एमके रैना, एन पुष्पमाला, राम रहमान, अमर कंवर, सबा हसन, आयशा अब्राहम और आनंद पटवर्धन। इनमें से एक भी नाम हिंदी के किसी साहित्यकार का नहीं है। कुछ ऐसे नाम हैं जो हिंदी में या तो फिल्में बनाते हैं या रंगकर्म से जुड़े हैं, जैसे सईद मिर्जा, आनंद पटवर्धन, एमके रैना आदि। यह बेहद चिंता का विषय है। लोगों का ध्यान इस ओर जाना चाहिये।

'जो कहा जाना चाहिये' कविता के समय हिंदी साहित्य में जो हलचल पैदा हुई थी वह इस वक्त नज़र नहीं आयी। क्या यह देख कर ऐसा नहीं लगता कि इज़राइल को समर्थन देना हो या विरोध करना, यह सिर्फ इसलिये संभव हुआ क्योंकि बीच में संयोग से एक कविता आ गयी थी वरना इन्हें क्या मतलब दुनिया जहान की राजनीति से। ये तो अपने आसपास भी नहीं झांकते। वह तो संयोग इसलिये बन पाया क्योंकि वह एक जर्मन कविता थी और जिसे गुंटर ग्रास जैसे महत्वपूर्ण कवि ने लिखा था। अगर यही कविता किसी ने हिंदी में लिखी होती तो निश्चित है कि बहस ज्यादा से ज्यादा साहित्यिक मूल्यांकन तक होती क्योंकि हममें से अधिकांश यह सोच ही नहीं पाते हैं कि कविता के ज़रिये बाहर की दुनिया पर भी बात की जा सकती है। सीधी बात जो मैं कहना चाह रहा हूं वह यह है कि घटनाओं से जुड़ना हिंदी कवि अभी तक सीख नहीं पाया है। क्या यही वह वजह नहीं है जिस कारण उसकी कविता भी घटनाओं और घटनाओं से घिरे आम जन से कभी जुड़ नहीं पाती? यह अलग-थलग रहना कविता या खुद कवि को पूरे समाज के लिये कितना अप्रासंगिक बना देता है, यह समझना ज़रूरी है क्योंकि सारी समस्याएं यहीं से शुरू होती हैं- जैसे कि कविता का अपठनीय हो जाना, विचार से एक निश्चित दूरी का बन जाना और कला के नाम पर एक अजीब वाग्जाल में कविता का उलझते चले जाना... वह कविता लिखने का काम हो या सुनने समझने का, सभी कुछ का एक उत्सवी माहौल में डूब जाना। इस तरह की न जाने कितनी समस्याएं हैं जो इसी एक बिंदु से शुरू होती हैं।

यह एक बहुत बड़ी वजह है कि घटनाओं को जोड़कर देखने का नज़रिया हम कविता का मूल्यांकन करते वक्त इस्तेमाल नहीं कर पाते। इस बात को इज़राइल से जुड़ी एक दूसरी खबर के ज़रिये समझा जा सकता है। एक दिन अचानक सीआरपीएफ को यह महसूस हुआ कि माओवादियों के पास ज्यादा आधुनिक आग्नेयास्त्र हैं अतः यह उसके लिये ज़रूरी है कि अपने अस्त्र-शस्त्र को भी उनकी ही तरह से वह सुसज्जित करे। फिर संबंधित मंत्रालय में मंत्रणा होती है और कई निर्णय लिये जाते हैं, जिनमें एक निर्णय यह होता है कि जिस तरह भारत आतंकवादियों से जूझ रहा है उसी तरह इज़राइल भी आतंकवादियों से जूझ रहा है और चूंकि उसने अपने आतंकवादियों का तोड़ पैदा कर लिया है अतः भारत के लिये ज़रूरी है कि वह इस मामले में इज़राइल से मदद ले। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि माओवाद या आतंकवाद से निपटने के लिये वे भारत को इज़राइल बना देने का निर्णय पलक झपकते ले लेते हैं। वही इजराइल जिसका अपने यहां कला और विवेक की दुनिया में विरोध किया जा रहा है। सवाल पूछा जा सकता है कि क्यों उसी देश का नाम हमारी सेना को युद्ध में सहयोग लेने के लिये याद आ रहा है? क्या इन खबरों को पढ़कर मन में अचानक यह तुलनात्मक अध्ययन नहीं चलने लगता है कि वे लोग कौन हैं जो इज़राइल से दूर रहना चाहते हैं? वहीं दूसरी ओर वे कौन लोग हैं जो इज़राइल से सहयोग लेने तक को तैयार हैं? क्या है वह चीज़ जो दोनों की सोच में यह अंतर पैदा कर रही है?  

क्या यह माना जाना चाहिये कि उस वक्त जो गुंटर ग्रास की कविता का विरोध कर रहे थे और कह रहे थे कि यह तो कोई कविता ही नहीं है या यह सपाट कविता है और जो ईरान का भय ज्यादा दिखा रहे थे और बता रहे थे कि इज़राइल से ज्यादा खतरनाक ईरान है, वे क्या युद्ध और दमन के पक्ष में थे और क्या वे बिल्कुल उसी मानसिकता में थे जिस मानसिकता में युद्ध करती सेना होती है? तो क्या यह सोचना गलत नहीं होगा कि वे शांति के पक्ष में नहीं थे। लेकिन वे तो कह रहे थे कि वे कला के पक्ष में हैं और हम यह सोच रहे थे कि वे ऐसा इसलिये कह रहे हैं क्योंकि वे विचार के विरोध में हैं, जबकि दरअसल वे युद्ध और दमन के पक्ष में थे। क्या इसी बात को इस तरह से नहीं कहा जा सकता कि विचार के विरोध में जाना दरअसल कला और शांति दोनों के विरोध में जाना भी होता है?  

आन्द्राई कादरेस्कू को उद्धृत करते हुए हिंदी के कवि व विचारक अशोक वाजपेयी ने अपने सुविचारित स्‍तंभ 'कभी-कभार' में जून की सड़ी गर्मियों में लिखा- ''कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में मार्क्‍स और एंगेल्स यह घोषित कर चुके थे कि जो कुछ भी ठोस था वह हवा में गल चुका था। एक बड़ा शून्य उभर रहा था। लेनिन और जारा इस शून्य की संभावनाओं को शिद्दत से महसूस कर रहे थे। लेनिन एक नयी विश्‍व व्यवस्था लाना चाहते थे और जारा नये विचारों का बीजारोपण करना चाहते थे।'' फिर आगे वे लिखते हैं कि कैसे लेनिन असफल हो गये और जारा का आंदोलन सफल हुआ। जारा को उन्होंने दुनिया का पहला अवांगार्द कहा है जिन्होंने कैफे को जन्म दिया और कैबरे को भी। यानी कि उनके हिसाब से आज कैबरे वालों की दुनिया है न कि विचार वालों की। क्योंकि जैसा कि वे कहते हैं कि सोवियत संघ के विघटन के साथ ही विचार का पटाक्षेप हो गया। जाहिर है कि ऐसे लोग युद्ध के पक्ष में हर उस वक्त खड़े दिखायी देंगे जब कभी भी उन्हें वैचारिक लड़ाई लड़ता कोई दिखायी देगा।

कितना अच्छा होता अगर वे यह सब कहने से पहले या आन्द्राई कादरेस्कू को उद्धृत करने से पहले एक बार खुद कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो मन लगा कर पढ़ लेते। और अगर पूरा पढ़ने की ज़हमत उठाने को वे तैयार नहीं थे तो कम से कम वे वह भूमिका ही पढ़ लेते जिसे 1888 में एंगेल्स ने लिखा था जिसमें उन्होंने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो की आधारभूत प्रस्थापना को रखा है। लेकिन हिंदी भाषा का यह दुर्भाग्य है कि यहां जिस तरह से न दर्शनशास्‍त्र पर काम होता है न इतिहास पर, न विज्ञान में और न राजनीतिशास्‍त्र में, ठीक उसी तरह से हिंदी साहित्य में भी इन चीजों का एक अजीब नकार दिखायी देगा। यहां लेख तक में जब यह हाल है तो कविता और कहानी में इनका कितना इस्तेमाल किया जाता होगा इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। कविता यहां सिर्फ कविता है और कहानी यहां सिर्फ कहानी। इसलिये यहां कई बार जिंदगी नहीं मिलती क्योंकि इतिहास, दर्शन, राजनीति और विज्ञान से निरपेक्ष किसी जिंदगी की न तो कोई कहानी होती है और न ही कोई कविता। देखा तो यहां तक जा रहा है कि चाहे वह खुद कवि की जिंदगी ही क्यों न हो, वह भी उसकी रचना से और रचना से ही क्या बल्कि उसके पूरे साहित्यिक कर्म से भी उसी तरह गायब रहती है जैसे कि किसी भी दूसरे की जिंदगी।

ऐसा नहीं कि यह सिर्फ यूं ही कहने की बात है इसलिये कह रहा हूं बल्कि यह एक कटु सच है इसलिये ऐसा कहना पड़ रहा है। ताज़ा उदाहरण के तौर पर उस प्रपत्र को देखा जा सकता है जिसे 5 जुलाई को हिंदी के तीन कवियों राजेश जोशी, कुमार अंबुज और नीलेश रघुवंशी ने जारी किया है। इसमें रचनाकारों से अपील की गयी है कि वे भारत भवन से लेकर प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध के नाम पर बने सृजनपीठों आदि से दूर रहें क्योंकि इनका ''पिछले आठ नौ सालों में सुनियोजित रूप से पराभव कर दिया गया है''। वे हैरत में हैं कि एक प्रमुख लेखक संगठन की इस सलाह के बावजूद कि ''इन संस्थाओं में सीधी भागीदारी न करें'', कई चर्चित वामपंथी रचनाकारों ने उनके कार्यक्रमों में शिरकत की। यह एक लंबा प्रपत्र है जिसे काफी सुविचारित ढंग से और एक वाजिब चिंता के साथ लिखा गया है। लेकिन अपने समय, समाज और राजनीति के सच से इतना ज्यादा निरपेक्ष होकर यह साहित्यिक चिंता व्यक्त की गयी है कि सब कुछ अश्‍लील सा होकर रह गया है। और यह बात भी समझ में नहीं आती कि जिस भारत भवन का विरोध करते-सुनते हमारी पीढ़ी ने साहित्य में प्रवेश किया, आखिर वही भारत भवन कब और किन परिस्थितियों में उन्हें स्वीकार्य हो गया था कि एक बार फिर उसका बहिष्कार करने की अपील उन्हें करनी पड़ रही है। आश्‍चर्य होता है पीठ और तख्त को लेकर उनकी चिंता और पीठ के ठीक पीछे चल रहे हत्याओं के भयानक खेल को लेकर उनकी साजिश भरी चुप्पी देखकर! रोंगटे खड़े कर देने वाली है यह चुप्पी। प्रपत्र जारी किये जाने से आठ नौ दिन पहले यानी कि जब वे प्रपत्र को लेकर आपस में गहन विमर्श कर रहे होंगे और लिखने की तैयारी में रतजगा करते हुए आंखों में पानी के छींटे मार रहे होंगे, तभी उनके बगल के राज्य छत्तीसगढ़ में माओवादियों के नाम पर 19 मासूम आदिवासियों को सीआरपीएफ के जवान आधी रात गोलियों से उड़ा रहे थे, फिर भी ये निष्कंप लौ की तरह बिना डगमगाये अपने साहित्यिक कर्म को पूरा करने में लगे रहे। रात के अंधेरे में मारे जाने वालों में सात बच्चे भी थे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कहा कि इस घटना में अगर बच्चे मारे गये हैं तो इसके लिये राज्य या सीआरपीएफ को दोषी नहीं कहा जा सकता बल्कि इसका सारा दोष माओवादियों पर जाता है क्योंकि वे ही बच्चों और स्त्रियों का इस्तेमाल भागते वक्त ढाल के तौर पर करते हैं। क्या यह वही तर्क नहीं है जिसे मुकदमे के दौरान अर्जेंटीना के पूर्व तानाशाह जॉर्ज विदेला ने अदालत में दिया था? उन्होंने कहा था कि इन बच्चों के मां-बाप आतंकी थे जो बच्चों का इस्तेमाल अपनी ढाल के तौर पर करते थे। इन्हें अदालत ने अभी पिछले दिनों पचास साल कारावास की सज़ा सुनायी है। इन्होंने 1976 से 1983 के बीच 'डर्टी वॉर' के सात सालों के दौरान करीब 30,000 लोगों की हत्या करवायी थी। उन पर यह मुकदमा 1996 में सिर्फ 35 बच्चों के अपहरण के मामले में शुरू हुआ था। यहां तो यह संख्या कब का पार हो चुकी है। और वहां जो 'डर्टी वॉर' चला था, उससे कहीं ज्यादा वीभत्स युद्ध न जाने कितने सालों से चल रहा है, लेकिन इनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पा रहा। आखिर भारतीय विदेलाओं पर मुकदमा कब शुरू होगा? इन्हें पचास साल की सज़ा कब सुनायी जायेगी? क्यों यहां आज भी इन विदेलाओं के खिलाफ बोलने वालों को ही अदालतें सज़ा सुना रही हैं?

क्या ये सवाल उन रचनाकारों को बेचैन नहीं करते? क्या उन्हें पीठों और न्यासों का पराभव इन पराभवों से ज्यादा बड़ा दिखायी देता है? किस उम्मीद में वे इन पीठों और न्यासों की ओर मुंह किये खड़े हैं? व्यावहारिक मजबूरी दिखाते हुए उनके कार्यक्रमों में शरीक होना और सैद्धान्तिक स्तर पर विरोध करना- यह कैसी लड़ाई है? व्यवहार और सिद्धांत के बीच इस चौड़े फर्क के साथ यह आप कैसी लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या ऐसी ही लड़ाई के ज़रिये आप जनाकांक्षाओं को साहित्यिक अभिव्यक्ति देने की बात सोच रहे हैं? क्या यह सत्ता में भागीदारी का मसला नहीं है, वह भी ऐसे वक्त में जब सत्ता हत्यारी हो चुकी है और उसको ध्वस्त किये बिना स्थितियों के बेहतर होने की उम्मीद आप नहीं कर सकते? क्या यह वही कलावाद नहीं है जो अशोक वाजपेयी को यह कहने को मजबूर कर रहा है कि यह कैफे और कैबरे के जनक का युग है। ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब ढूंढे बिना उन समस्याओं के समाधान नहीं ढूंढे जा सकते जिसने साहित्य को शब्दों का कौशल मात्र बना कर रख दिया है।

विकास के नाम पर आदिवासियों की हो रही हत्या और अदालतों से आ रहे लगातार गलत फैसलों की ओर पीठ किये खड़े रहने के बावजूद साहित्य में बने रहने का मतलब आपको जल्द ही डीकोड कर लोगों को बताना होगा। आप जिसके प्रति जवाबदेह हैं, उसी को बतायें लेकिन बतायें ज़रूर! साभार- जनपथ 

02 जुलाई 2012

जेल डायरी: अरूण फरेरा

भाग तीन  

इस बंद दुनिया में, बाहर की ओर खुलने वाली मेरी एकमात्र खिड़की मेरे लिए किताबें और पत्रिकाओं मुहैया कराती थी। हालाँकि, महाराष्ट्र के जेलों के पास प्रकाशित सामग्रियाँ, यहाँ तक कि आधिकारिक सरकारी प्रकाशनों तक को, ख़रीदने के लिए कोई कोष नहीं होता है। जेल का पुस्तकालय पूरी तरह से व्यक्तियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के चंदों पर निर्भर है। किताबों के चयन बिल्कुल उटपटांग हैं, जिनमें अधिकतर धार्मिक किताबें ही हैं। पहले तो, मैं डाक के ज़रिये जितनी पत्रिकाओं के ग्राहक बना, वे मेरी कोठरी तक कभी नहीं पहुँच पाईं। जेलर तय करता कि कौन सी किताबें हमारे लिए उचित हैं। एक बार हमें जेम्स बॉन्ड के उपन्यास देने से इंकार कर दिया गया क्योंकि उसका मुखपृष्ठ उन्हें अश्लील लग रहा था। वे हर-हमेशा हमारी पत्रिकाएँ हम तक पहुँचने से रोक देते क्योंकि उसमें ‘माओवादी’ या ‘क्रांति’ शब्द होता था। यहाँ तक कि बहुत मोटा होने के कारण भारतीय संविधान भी हमें नहीं दिया गया।      
जब कभी किताबें हमारे हाथ लगतीं, अपराध-उपन्यास हमेशा हिट रहे। अदालत के कमरों में होने वाले जिन ड्रामा या एक्शन की हम तलाश करते थे उनकी नामौजूदगी में, ली चाइल्ड और जॉन ग्रिशम के उपन्यास ही काम में आए। मैंने स्टीग लार्सन और हेनिंग मंकेल के स्कैंनडिवियाई उपन्यास भी पढ़े।
जेल प्रशासन द्वारा दोस्तों और परिवार से मुलाक़ात की दुर्भावनापूर्ण अनुमति एक अन्य छूट थी। सज़ायाफ़्ता क़ैदियों को एक महीने में एक बार और अंडरट्रायल्स को एक हफ़्ते में एक बार मुलाक़ात करने की अनुमति होती है। जो परिवार दूर दराज़ के गाँवों से लंबी यात्रा करने के लिए पर्याप्त पैसों का इंतज़ाम कर मिलने आते हैं उन्हें जेल दरवाज़े के पास मुलाक़ात बूथ पर सुबह-सुबह सबसे पहले अपना नाम दर्ज़ कराना होता है। इसके लिए परिवारवालों को तीन या चार घंटे तक, चाहे कड़ी धूप हो या बरसात, बाहर खड़े रहना होता है। यहाँ जेल प्रशासन उनकी छानबीन करता है कि वे मुलाक़ात के लिए सुरक्षा के लिहाज़ से योग्य हैं कि नहीं और कि कहीं उन्होंने अपना कोटा तो नहीं पार कर लिया है। थकान भरी इंतज़ार के बाद, मुलाक़ातियों—अधिकतर महिलाएँ और बच्चे—को फिर बारी बारी से जालीनुमा खिड़कियों वाले एक कमरे में ले जाया जाता है। खिड़की की जालियों के उस पार हरेक के लिए क़ैदी इंतज़ार कर रहे होते हैं। वहीं पर दूसरी ओर, क़ैदियों को चेतावनी दी जाती है कि वे मुलाक़ात की निर्धारित समय-सीमा न लांघें। अंडरट्रायल्स को 20 मिनट और सज़ायाफ़्ता को 30 मिनट का वक़्त दिया जाता है। जाली के दोनों तरफ़ हमेशा ही एक ख़ास तरह की चिंता व्याप्त रहती है, क्योंकि क़ैदी और उनके परिवार के लोग इस कोशिश में रहते हैं कि सामने मिले छोटे से वक़्त में जो कुछ कहना है वह कहीं छूट न जाए।
मेरे पहले मुलाक़ाती मेरे माता-पिता और मेरा भाई था। हालांकि, मेरी पत्नी मुझसे मिलना चाहती थी, लेकिन पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए जाने के ख़तरे को देखते हुए हमने तय किया कि ऐसा करना ठीक नहीं होगा। पहली मुलाक़ात में, मेरे माता-पिता जालियों के पीछे मुझे एक छायाचित्र की तरह सिर्फ़ देख सके। उन्होंने मेरी सिर्फ़ आवाज़ से मुझे पहचान लिया। तार लगी जालियाँ किसी भी तरह के आश्वस्तकारी आलिंगन की राह में आड़े डटी रहीं। जब मेरी हिरासत खिंचती चली गई तो मेरे परिवार ने हर दो महीनों में मुझसे मिलने का प्रबंध किया। हमने तय किया कि अदालत में मेरी पेशी के वक़्त हमलोग मिलेंगे। यद्यपि, मेरे साथ रहने वाले सुरक्षाकर्मी कभी कभी इस सुविधा की अनुमति देने से इंकार कर देते थे। मेरे जेल के सालों में मेरे बच्चे ने मुझे कभी नहीं देखा। वह नहीं जानता था कि मैं क़ैद में हूँ। अगर वह आता तो उसे हथकड़ियाँ लगाए पिता का एक छायाचित्र ही देखना पड़ता। हमने सोचा कि दो साल के बच्चे के लिए यह समझना कुछ ज़्यादा हो जाएगा।  
मेरा परिवार घर की ख़ुशियों से मुझे भरने की कोशिश करता, और मैं जेल जीवन की झांकियों से उन्हें वाक़िफ़ कराता। लेकिन, जैसे जैसे मुझ पर आरोपित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही थी, वैसे ही हर मुक़दमे की प्रगति चकरा देने वाली थी, और मेरे बूढ़े माँ-बाप के साथ उनकी चर्चा करना मुश्किल होता जा रहा था। अंततः, मुलाक़ातें मेरी चीज़ों की एक सूची उन्हें देने और उनके द्वारा अगली मुलाक़ात में उन्हें लाने और हमेशा चिट्ठी लिखते रहने के वादे तक सीमित हो गईं।
+++
नागपुर जेल में मैंने महसूस किया कि अधिकतर क़ैदी एक ‘अपराधी’ की किसी परिचित परिभाषा में फ़िट नहीं बैठते। उन्हें जेल में इसलिए रखा गया है, क्योंकि या तो उन्हें पुलिस ने झूठे मामलों में फंसाया है या फिर अक्सर किसी पारिवारिक झगड़े के दौरान ग़ुस्से के वशीभूत होकर उन्होंने किसी पर कोई हमला बोल दिया है। कमज़र्फ़ क़ानूनी सलाह के कारण उन्हें अपने मुक़दमों में सज़ा होती है।      
प्रारंभिक सदमे वाली सज़ा के बाद, लंबे सालों तक जेल में रहने के लिए उन्हें उदासीनतापूर्वक एक आज्ञाकारी दिनचर्या के अनुकूल ढलना होता है——आजीवन कारावास के मामले में महाराष्ट्र में औसतन 17-18 साल जेल में गुज़ारने होते हैं।
प्रार्थना और उपवास, पूजा, नमाज़ और रोज़ा के कठोर कार्यक्रमों से अधिकतर लोगों को दिलासा मिलती है। क़ैद आध्यात्मिकता को पालती-पोषती है। इसमें अलौकिक शक्तियों को मानते हुए उनके सामने अपना सब कुछ फेंक देने से कम से कम तात्कालिक तौर पर एक क़िस्म की प्रेरित करने वाली शांति प्रदान करने का गुण होता है। रिवाज़ों को धूम-धड़ाकों से मनाने से प्रशासनिक अनुमोदन भी पवित्र हो जाते हैं।  यह जेल-प्रबंधन द्वारा अनुमोदित धार्मिक समारोहों में क़ैदियों को प्रदर्शित होने, या संगठित होने देने तक का लाभ देता है।
भ्रम और हक़ीकत के बीच, उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच, लुका-छिपी का ये खेल किसी क़ैदी के अस्तित्व का लगभग आधार होता है। ये चाल चलने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि चुभते भ्रमों में तथ्यों की इजाज़त नहीं है, और नाउम्मीदी को उम्मीद के ऊपर जीत हासिल करने की इजाज़त नहीं है। एक बार क़ैदी यह मान जाएँ तो उनके संतुलन को बनाए रखना उतना मुश्किल नहीं होता है।
एक अंडरट्रायल के बतौर, आपको ख़ुद से कहना होता है कि मुक़दमा ठीक-ठाक चल रहा है, सारे गवाह [आपके ख़िलाफ़] नाकाम हो गए हैं, और आपको छूटना ही छूटना है। अगर आपको सज़ा हो जाती है, तो ऊँची अदालतो पर आपको अपनी उम्मीद टिकाए रखनी होती है। और इस मामले में, भारतीय न्यायिक व्यवस्था की अंतहीन देरियाँ वास्तविक वरदान होती हैं। उच्चतम न्यायालय पहुँचने तक उम्मीद बची रहती है। इस वक़्त तक आप महसूस करने लगते हैं कि आपकी सज़ा अंत की ओर पहुँच रही है, और इसे अब ख़त्म हो जाना चाहिए। फिर आप छूटों और माफ़ी के लिए आगे ताकते रहते हैं।
आप अपनी लिखान पर आख़िरी निर्णय के इस पेचीदा, फिर भी उम्मीद-भरे दौर के इंतज़ार में प्रवेश करते हैं। लिखान हर लंबी सज़ा पाए मुज़रिम की जेल न्यायिक विभाग द्वारा तैयार की गई समीक्षा-फ़ाइल के लिए प्रचलित एक शब्द है। यह दस्तावेज़ राज्य सरकार को क़ैदी की सज़ा की समीक्षा और समय-पूर्व रिहा करने के आदेश हासिल करने के लिए भेजा जाता है। इसमें जेल में क़ैदी के व्यवहार की रिपोर्ट और उन छूटों का हिसाब होता है जिनके लिए वह योग्य है। इसमें जेल, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की अनुशंसाएँ भी होती हैं। चूंकि, सरकार के समय-पूर्व रिहाई के नियम काफ़ी जटिल हैं, इसलिए कोई क़ैदी विरले ही आकलन कर पाता है कि अंततः उसके लिखान में क्या होगा।
मंत्रालय को निर्णय लेने में सालों लग जाते हैं। तब तक आप कुछ अंदाज़ा लगाते हैं कि आप अंततः कब अपनी रिहाई की अपेक्षा कर रहे हैं। और तब आप उल्टी गिनती शुरू करते हैं, घर जाने के बचे हुए दिनों में निशान लगाने लगते हैं।
+++
इन सबके बाद, जबकि आप अपना संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं, उम्मीद और निराशा का अटल प्रतीक है, लाल गेट, अर्थात लाल निकास दरवाज़ा। यह गप्पबाज़ियों में, मामूली बातचीत में, मज़ाक़ में और, यक़ीनन, सपनों में भी बार-बार प्रकट होता है। यह एक अवरोध है जो आपको अंदर बांधे रखता है और आपको बाहर की ओर ले जाने के रास्ते खोलता है। इसका राज़ ये होता है कि आपको अवरोधों को नज़रअंदाज़ करना होता है और सिर्फ़ दरवाज़ा देखना होता है। इससे सामान्य ज़िंदगी के कुछ आभास को बनाए रखने में मदद मिलती है।
लेकिन कुछ लोगों के लिए, जेल-जीवन के वो लंबे साल बाहरी दुनिया से थोड़े-से संपर्क या संचार के बग़ैर ही होते हैं। ग़रीबी उन्हें उतने पैसों के इंतज़ाम करने में भी बाधा बनती है जितना कि एक क़ैदी को छुट्टी या पैरोल पर भेजने के लिए राज्य को ज़मानतदारी में चाहिए होता है।
इसके अलावे, कई परिवार ऐसे होते हैं जो महीने की मुलाक़ात के लिए जेल आने का ख़र्च नहीं उठा सकते। निरक्षरता या पारिवारिक संबंधों के विघटन का मतलब होता है कि चिट्ठी-पत्री तक नहीं भेजी जा सकती। जैसे जैसे तन्हाई के ये साल बढ़ते जाते हैं, वैसे वैसे इन क़ैदियों को निष्ठुरता (और पागलपन) से अलग करने वाली रेखा तेज़ी से धुंधलाने लगती है।
तिरसठ-साल-के-बूढ़े किथूलाल एक ऐसे ही व्यक्ति थे। सामान्य ज़िंदगी की कुछ झलकियों के लिए वे समय को ठेंगा दिखाते रहे। वे ख़ुद को समझाते रहते थे कि उन्होंने अपना समय पूरा कर लिया है और कि भली सरकार जल्द ही एक विशेष छूट की घोषणा करने जा रही है जिससे उनकी रिहाई हो जाएगी। गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस के तीन-चार महीने बारीक़ी से उम्मीद की फ़सल बोए जाने का दौर होते थे; जो भी इन पर ग़ौर करने की परवाह करता, उससे कहा जाता था कि सरकार एक असाधारण स्थगनादेश की घोषणा करेगी और उसे इस महान दिवस को लाल गेट से बाहर जाने दिया जाएगा।
जैसे ही दिन आते और चले जाते, वैसे ही इस बारे में सबसे ज़्यादा उत्साही क़ैदियों पर एक असामान्य ख़ामोशी तारी हो जाती थी।
फिर उन्हें अन्य तरीक़े ईजाद करने होते थे। वे स्पष्टतः अतार्किक गतिविधियों के झोंके में बह जाते थे, मानो कि पर्याप्त मात्रा में बिखरी हुई मिठाई दर्द को दूर भगाने वाली हो। उपवास और अन्य रिवाज़ों के सामान्य मुग़ालते बड़े आयामों को समेटे हुए होते हैं।   
थोड़े समय बाद, वे अपनी रिहाई की अगली तारीख़ पर अपनी उम्मीद सहेजना शुरू कर देते थे।
+++
क़ानून का ख़याल रखते हुए, मैंने अगस्त 2007 में ज़मानत की अर्ज़ी दी। हालांकि, मुझे यह महसूस हो गया था कि भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में तेज़ी से मुक़दमों का निपटारा एक विलासिता थे। एक मुक़दमे को पूरा होने में औसतन तीन से पाँच साल लगते हैं। तक़रीबन डेढ़ साल तक हथियारबंद पुलिसकर्मियों के साथ पुलिस वाहन में बैठकर मैं लगभग रोज़ाना नागपुर से गोंदिया या चंद्रपुर तक सात घंटे की यात्रा करता रहा।       
अदालत पहुँचने पर मुझे पता लगता कि मुझे देरी से लाया गया है या फिर न्यायाधीश महोदय छुट्टी पर होते थे। मेरे वक़ीलों और मेरी यात्राएँ अक्सर बेकार हो जाती थीं, क्योंकि अभियोजन पक्ष के गवाह ही हाज़िर नहीं होते थे।
एक ख़ास मामला तीन सालों तक खिंचता रहा और अंततः सिर्फ़ एक गवाह के बयान के बाद मुझे बरी किए जाने के साथ ख़त्म हो गया। मुझे क़ैद करने वाले क़ानून की मुनासिब प्रक्रियाओं का इस्तेमाल लोग  मुझे दंडित करने के लिए कर रहे थे। मेरी एकमात्र उम्मीद हरेक मामले को बड़े धीरज से पूरा करने और अंततः रिहा होने में लगी हुई थी।
+++
जेल में अपने पहले साल के दौरान, अंडा बैरक के अकेलेपन में, मेरे सह-आरोपी और मुझे दूसरे अन्य क़ैदियों से दूर रखा जाता था क्योंकि जेल प्रशासन हमें बहुत ख़तरनाक मानता था इसलिए उनके साथ [मिलने-जुलने की अनुमति] नहीं देता था।     
यह इशारा करने के लिए कि हम औरों से जुदा थे, सभी कथित नक्सली क़ैदियों को जेल के लिबास के साथ बाँह में हरी पट्टी बाँधने को मज़बूर किया जाता था। अप्रैल 2008 में, हममें से सभी 13 लोग एक अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए। हमारी माँगें थीं: हमें अलग-थलग, अकेले में नहीं रखा जाए, सामाजिक कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी कहकर उनकी गिरफ़्तारी बंद की जाए, और अंडरट्रायल्स को यूनीफ़ॉर्म पहनने के लिए मज़बूर न किया जाए।
हमें तोड़ने के लिए, अलग अलग बैरकों में हमें फेंक दिया गया। मुझे फांसी यार्ड में स्थानांतरित कर दिया गया। (फांसी यार्ड मौत की कतार में खड़े क़ैदियों का होता है।)
हमारी हड़ताल 27 दिनों तक चली। हमारी कोई एक माँग पूरी नहीं की गई। बदले में, इस मामले की जाँच कर रहे पुलिस अफ़सर ने जेल अधिकारियों को सलाह दी कि हमें विभिन्न जेलों में अलग अलग भेज देना चाहिए। हमारे ख़िलाफ़ एक और आपराधिक मामला दर्ज़ कर लिया गया—आत्महत्या की कोशिश का मामला। यह नौवाँ मामला था जिससे मुझे निपटना था।
+++
सितंबर 2011 में, अदालतों ने अंततः मेरे ख़िलाफ़ लगाए गए अंतिम नौ मामलों को ख़ारिज़ कर दिया। जेल का सहज ज्ञान कहता है कि जेल के कुछ शुरुआती और कुछ आख़िरी महीने सर्वाधिक ख़ौफ़नाक़ होते हैं। जैसे-जैसे आज़ादी क़रीब आती जाती थी, वैसे ही दिन लंबे और रातें बग़ैर नींद की होती जा रहीं थीं। अदालत में पेश करने की तारीख़ें भी कम होती जा रही थीं। सारा पढ़ना और लिखना बेहद बोझिल होता जा रहा था। मैंने लाल गेट से आगे की ज़िंदगी की योजनाएँ बनानी शुरू कर दी थीं।
27 सितंबर को मैंने जेल छोड़ा। मैं अपने माता-पिता को बाहर खड़े देख सकता था। पत्रकारों और मेरे वक़ीलों के साथ वे मुझे देख ही रहे थे कि सादे कपड़ों में पुलिस के एक दल ने मुझे बिना किसी नंबर वाले वाहन में धकेला और कहीं दूर ले गए। पुलिस ने मेरे ऊपर दो और नक्सल संबंधी मामले थोप दिए, और मुझे वापस जेल भेज दिया।
यातना, ज़मानत अर्ज़ी और मुक़दमे की तारीख़ों के अंतहीन इंतज़ार के फिर उसी [पीड़ित] दौर से गुज़रने के बारे में सोचकर मैं ढह गया। लेकिन इस बार, शुक्र था, कि यह जल्दी निपट गया। जेल के बाहर, देश-दुनिया से लोगों की एक सशक्त आवाज़ और मेरे वक़ीलों के हुनर ने मेरा साथ दिया।
4 जनवरी 2012 को आख़िरी बचे मामले में मैं ज़मानत पर रिहा हुआ। चार साल, आठ महीनों के बाद, मैं एक आज़ाद व्यक्ति बन लाल गेट के बाहर आ गया।

01 जुलाई 2012

जेल डायरी: अरूण फरेरा.


दूसरा भाग
हम बदनसीब थे कि जेल में अलग से आए, लेकिन संयोग से अगर कोई क़ैदी किसी वरिष्ठ जेल अफ़सरों के आने या जाने के समय दरवाज़े पर तलाशी का इंतज़ार कर रहा है तो वह औपनिवेशिक कालीन समारोह का गवाह बनने का विशेषाधिकारी होता है। वरिष्ठ जेलर और अधीक्षक से दरवाज़े से घुसने के लिए नीचे झुकने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अतः इन साहबों को सिर ऊँचा ताने गुज़रने के लिए मुख्य दरवाज़ा झूलते हुए खुलेगा। जब वे दूर से ही दिख जाते हैं तो दरवाज़े पर तैनात सुरक्षाकर्मी चेतावनी का फ़रमान चीख़ेगा: “सावधान सभी!” सारे कर्मचारी सावधान मुद्रा में खड़े हो जाएँगे और सभी छोटी, मामूली ज़िंदगियाँ निगाहों से दूर कोनों में दुबक जाएँगी या (नहीं छुपने पर) उनकी पीठों और पिछवाड़ों पर लात-घूसों की बौछारें शुरू हो जाएँगी।
अधिकतर नए अहमदों को फिर एक दरवाज़े से सटी बैरक में ले जाया जाता है, जहाँ उन्हें किसी निर्धारित बैरक में भेजे जाने से पहले एक या दो रातें गुज़ारनी होती है। इंतज़ार का यह दौर जेल कर्मचारियों, सज़ायाफ़्ता वार्डरों, भीतरी लुटेरों के गैंगों और अन्य हमलावरों को नवीनतम गिरफ़्त में आए व्यक्ति से, वे जो कुछ लूट-खसोट सकते हैं वह लूटने की अनुमति देता है। मध्य और ऊच्च वर्ग के प्रवेशक आसान निशाना होते हैं। उन्हें जेल-ज़िंदगी के ख़ौफ़ों की काली कहानियों से और धमकियों को-ज़ाहिर-न-करने के लिए पुचकारा जाता है। नौजवान लड़के मुफ़्त श्रम का और बतौर यौन खिलौना निशाना बनते हैं। संपर्क बनाए जाते हैं और नियमित बैरक में जाने पर बढ़िया सुविधाएँ सुनिश्चित करने के लिए सौदेबाज़ी की जाती है।
अगला चरण मुलाइजा या छानबीन-की-प्रक्रिया होती है। नए क़ैदियों को किसी सज़ायाफ़्ता वार्डर या जेलर द्वारा जेल अनुशासन के मूल्यों पर भाषण पिलाया जाता है। हर क़ैदी के पहचान-चिह्न को दर्ज़ किया जाता है और अधीक्षक के नेतृत्व वाले जेल-देवताओं के जत्थे के सामने पेश करने से पहले उनकी तौल, माप ली जाती है और एक डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक द्वारा उनका परीक्षण किया जाता है। हर क़ैदी को शरीर में लटकाए रखने के लिए एक तमग़ा दिया जाता है जिसमें उसका क़ैदी नंबर और उसके ख़िलाफ़ दर्ज़ मामलों की सूची होती है। अपराध का वर्गीकरण कैसे किया जाएगा, और जेल में उसके साथ, कुछ हद तक, कैसे सलूक किए जाएँगे, ये तमग़ा इस बारे में आधार निर्मित करते हैं। 
क़ानून की घोषणा, कि आरोपी व्यक्ति तब तक निर्दोष होता है जब तक कि वह दोषी साबित न हो, के बावजूद क़ैदख़ाने की दीवारों के पीछे इन सुविचारों का कोई अर्थ नहीं होता। जेल अधिकारियों के लिए पुलिस के आरोप ही, मुक़दमे का इंतज़ार कर रहे लोगों को, सज़ा देने का पर्याप्त सबूत होते हैं। कथित बलात्कारी और होमोसेक्सुअल्स, जेल कर्मचारियों के प्रोत्साहन पर अन्य क़ैदियों और अधिकारियों के हमलों का निशाना बनते हैं। हत्या के आरोप में बंद लोगों को सज़ायाफ़्ता के यूनीफ़ॉर्म पहनने को विवश किया जाता है और उन्हें एक विशेष ‘हत्या बैरक’ में डाल दिया जाता है। अपनी देशक्भक्ति प्रदर्शित करने के लिए, कई जेल अधीक्षक व्यक्तिगत तौर पर आतंकवाद के आरोपी लोगों की पिटाई करते हैं। 
मुलाइजा के पहले, प्रक्रिया के अनुसार नए प्रवेशकों को नहाना होता है। हालाँकि, साबुन और पानी की कमी इस नियम की महत्वपूर्ण प्रथा का उल्लंघन करती है। एवज़ में, अधिकतर नए अहमद नाई कमान के हाथों तुरत-फुरत-तैयार होने के लिए भागदौड़ करते हैं। नाई कमान क़ैदियों के एक समूह से ही बनती है। नए अहमदों का अगला विरामस्थल बड़ी गोल होता है। यह नागपुर जेल का वह क्षेत्र है जहाँ मुक़दमे का इंतज़ार कर रहे क़ैदी रहते हैं। प्रत्येक के लिए एक बैरक निर्धारित कर दी जाती है। सैद्धांतिक तौर पर, यही वह जगह है जिधर मुझे जाना था। लेकिन मेरे मामले में, सारी प्रक्रियाएँ भाड़ में झोंक दी गईं। पुलिस द्वारा उठाए जाने के बारह दिनों बाद, जल्दबाज़ी से मुझे अंडा बैरक में डाल दिया गया, क़ैदियों वाला लिबास दिया गया, और शाम 4 बजे खाने के लिए बेसन और रूखी-सूखी रोटियाँ देने के बाद मुंबई के लिए ट्रेन में बैठा दिया गया।
+++
फिर नार्को-टेस्ट से पहले (हिरासत में लिए गए व्यक्ति के) कई मेडिकल परीक्षण होते हैं। प्रत्यक्षतः तो यह परीक्षण यह पता लगाने के लिए होते हैं कि वे इन फ़ोरेंसिक प्रक्रियाओं से गुज़रने के लिए स्वस्थ हैं कि नहीं। हक़ीक़त में, ये परीक्षण क़ैदी के प्रतिरोधक स्तरों को तय करते हैं और अधिकारियों को ये हिसाब लगाने में मदद करते हैं कि आरोपी को पूरी तरह से नष्ट किए बग़ैर उसके शरीर में कितनी मात्रा में ड्रग, सोडियम पेंटोथाल, डाला जा सकता है। ये नार्को परीक्षण मुंबई के जेजे के ऑपरेशन थियेटर, सर्जरी सुविधा के बैकअप वाले एक सरकारी अस्पताल, में किए गए। यह इसलिए क्योंकि सोडियम पेंटोथाल हृदय-गति को—घातक तौर पर—धीमा कर सकता है।
ड्रग एक-एक बूँद, नियंत्रित गति से डाला जा रहा था ताकि मैं (एक लंबे) समय के लिए अर्ध-बेहोश रहा आऊँ। फ़ोरेंसिक मनोवैज्ञानिक ने सवाल पूछना शुरू किया और बातचीत की वीडियो रिकॉर्डिंग हो रही थी। हालाँकि, पुलिस को प्रयोगशाला में घुसने की इजाज़त नहीं थी, लेकिन फ़ोरेंसिक विशेषज्ञ ख़ुद-ब-ख़ुद पुलिसिया क्षमता से, मेडिकल मूल्यों का अनादर करते हुए और मेरे स्वास्थ्य को पूरी तरह ठेंगा दिखाते हुए, ड्रग का इस्तेमाल कर रहे थे। पुलिस ने मनोवैज्ञानिक के लिए मुझसे पूछे जाने सवालों की सूची तैयार की थी: कि मैंने हथियार और विस्फोटक कहाँ रखे हैं, कि क्या मैं संदेहास्पद संगठनों या लोगों से जुड़ा हुआ था। उनमें से कुछ सवाल मुझे बाद में याद आए। यह जगने के बाद कुछ कुछ सपने को याद करने जैसा था। सारे विवरणों को एकदम सटीक तौर पर मैं नहीं याद कर पाया, लेकिन मोटी मोटी बातों को मैं नहीं भूला। 
लौटने के एक हफ़्ते बाद, मैं नक्सल हिंसा में शामिल होने के अन्य पाँच मामलों में फंसा दिया गया। पुलिस को अन्य बीस दिनों की हिरासत मिल गई। इसका मतलब था कि मैं गोंदिया जिले के पुलिस थाने में फिर पुलिस के हाथों सुपुर्द कर दिया गया। यह सुपुर्दगी और अधिक नींद हराम करने के लिए, और अधिक यातना देने तथा और अधिक पूछताछ के लिए थी। मैं ख़ुशक़िस्मत था कि अपेक्षाकृत कम में ही छूट गया। मेरे दो सह-आरोपियों के गुदा में पुलिस ने पेट्रोल डाल दिया, नतीजतन कई दिनों तक उनके गुदा से ख़ून बहता रहा। उन्होंने मेरे शरीर की नस नस मरोड़ी, चौड़ी पट्टी के बेल्ट, महाराष्ट्र पुलिस दुलार से जिसे “बाजीराव” कहती है, से कोड़े लगाए, और मेरे जबड़े तोड़ दिए। 
अब तक, मुंबई के नार्को-एनालिसिस परीक्षणों के नतीजे आ गए थे। पुलिस मामले के लिए वे कुछ वज़नदार चीज़ पाने में नाकाम हुए, अतः अधिकारियों ने बंगलौर की प्रयोगशाला से अन्य चरण के परीक्षण कराने के लिए अदालत से गुपचुप आदेश हासिल कर लिए। यहाँ के परीक्षण शातिर एस. मालिनी द्वारा किए गए, जिसे बाद में, जब यह पाया गया कि उसने काम पाने के लिए झूठे काग़ज़ात जमा किए थे, तो नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया गया। मालिनी को समूचे भारत में पुलिस बल ख़ूब आदर-भाव देता था। उसका दावा था कि उसने 2006 के मालेगांव धमाके, मक्का मस्जिद धमाके, और सिस्टर अभया के मामले की गुत्थी सुलझा दी है। बरसों बाद, यह प्रमाणित हुआ कि इन सभी मामलों की ग़लत जाँच की गई थी। नार्को के दौरान उसने मुझे चांटे मारे और गालियाँ दीं, मेरे कान में चिमटियाँ चुभोई, और मुझे और मेरे सह-आरोपी को बेहोश नहीं होने देने के लिए उसने बिजली के झटके तक दिए।
लेकिन यह भी कुछ ख़ास काम नहीं आया। अतः पुलिस ने मुझे दो और मामलों में फंसा दिया। उन्होंने मुझसे दो हफ़्ते और यातनादेह पूछताछ की। गिरफ़्तारी के बाद का मेरा पहला साल ऐसे पूरा हुआ। पुलिस मुझे नए मामलों में फंसाती रही, पूछताछ के लिए पुलिस हिरासत हासिल करती रही, मुझ पर यातना के भयानक तरीक़े आज़माती रही। इक़बालिया बयान हासिल करने में नाकाम रही। और अन्य मामले में सिर्फ़ फंसाने के लिए मुझे जेल वापस भेज देती। जब इन मामलों में पुलिस ने अंततः आरोप-पत्र दाख़िल किए सिर्फ़ तभी मेरी एक नई दिनचर्या शुरू हुई। इनमें से एक ये थी कि इन मामलों की सुनवाई के इंतज़ार में मुझे हफ़्ते या कई बार रोज़ाना अदालत के चक्कर लगाना होता था। अब मेरे पास ये सुविधा थी कि मैं जेल की ज़िंदगी के रागों को क़रीब से सुन सकता था।
जेल की सुबह टंकी या हौज़ के लिए पागलपन भरी आपा-धापी लेकर आती थी। 60×3 फ़िट के हौज़ के किनारे नहाने वाले चार सौ लोग खड़े होते थे, मतलब कि ठीक ठाक समय में भी उन्हें जल्दी-जल्दी पानी भर उलीचना होता था। गर्मियों में, जब कुएँ का पानी ख़त्म हो जाता और यह लगभग सूख जाता तो यह आपा-धापी और तेज़ हो जाती थी। जेल-विद्या लोगों को यह बताती थी कि कौन पर्याप्त तेज़ नहीं है, और कि बाजू वाले के शरीर से चू रही बूंदों से (अपने शरीर का) साबुन धोना होता है। दांतों की सफ़ाई, नहाना, और जांघिया धोना, ये सब कुल 10 मिनट के भीतर करना होता था, वरना किसी की नियति हौज़ की तलछटी में हाथ ही फेरते रहने की हो सकती थी।
पैख़ाने और नहाने के लिए सुबह की भीड़ से मोल-भाव करने में सिर्फ़ तेज़ी ही नहीं, अक़्ल की भी ज़रूरत पड़ती है। यह ख़ासतौर से उन बैरकों के लिए महत्वपूर्ण होता है जिनमें अंडरट्रायल्स की बड़ी संख्या हो, और जिन्हें अदालत में हाज़िर होने के लिए जल्दी तैयार होना होता है। दो घंटे से भी कम समय में, 6.45 पर बैरक के खुलने से लेकर और अदालत में 8.30 बजे तक हाज़िर होने तक, उन्हें न सिर्फ़ नहाना और पूरी तरह तैयार होना होता था बल्कि हाज़िरी के लिए पंक्ति में खड़ा होना पड़ता था, और तब 7 बजे चाय लेनी होती थी, 7.30 बजे नाश्ता करना होता था, और 8 से 8.30 के बीच दोपहर का खाना खाना होता था।  
नाश्ते लेने के महज आधे घंटे के भीतर दोपहर का खाना खाने के बेतुकेपन से तालमेल बिठाना मेरे शरीर के लिए कत्तई आसान न था। जल्दी खाना देना, जैसा कि अन्य जेलों में भी था, बिल्कुल क्रूर उपेक्षा का नतीजा था। अंडरट्रायल्स का सुबह 8.30 बजे से शाम 6.30 बजे तक का समय अक्सर अदालत के रास्ते में, अदालत में, और वापस जेल आने में बीतता है, लेकिन जेल के अफ़सरान उनके लिए बाद में दोपहर को खाने के लिए खाना पैक कराना उचित नहीं समझते हैं। उच्च न्यायालय के आदेश कि ऐसा किया जाना चाहिए की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। लेकिन जब से जेल की नियम-संहिता, जो कि जेल की सारी गतिविधियों को दिशा-निर्देश देता है, में यह ज़िक्र हुआ कि क़ैदियों को क्या खाने दिए जाने चाहिए तो अफ़सरान अंडरट्रायल्स को दोपहर का खाना सुबह 8 बजे बाँटकर अपनी ख़ानापूर्ति कर लेते हैं। लेकिन कम संसाधनों के पीछे भागने वाले कई सैकड़े लोगों में से जब आप एक होते हैं, तो सामान्यतः कुछ चीज़े आप तक आते आते चुक ही जाती हैं—या तो आप शौच कर पाएँगे या नहा पाएँगे, या तो नाश्ता कर पाएँगे या फिर दोपहर का खाना।
खाने का बँटवारा ऊर्जावाना तापा कमान द्वारा किया जाता है। यह क़ैदियों के कई समूहों में से एक कमान है जो जेल को कार्यरत रखने में एक अहम भूमिका निभाती है। तापा कमान सुबह 6.45 पर बैरक खुलने से लेकर, 5 बजे, अपने बाड़े में बंद किए जाने तक, खाने के बड़े-बड़े बर्तनों—तापाओं, जिससे कि उन्हें यह नाम दिया गया है, को लेकर इधर-उधर भागते हुए काफ़ी व्यस्त रहते हैं। अपने बचे हुए हिस्सों की मांग करते दो हज़ार पेट एक तनाव भरे लम्हे पैदा पर सकते हैं, और तापा श्रमिक काफ़ी जल्दी में होते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि नियमावली में निर्धारित प्रत्येक सामग्री समुचित मात्रा में हर बैरक तक पहुँचे और सुबह की गिनती में मौजूद हर क़ैदी को निश्चित निर्धारित मात्रा में मिले।
इस इकाई के भीतर, तापा कमांडर का पद काफ़ी फ़ायदे का सौदा हो सकता है। कमांडर सामान्यतः एक सज़ायाफ़्ता वार्डर, एक लंबे समय से कार्यरत क़ैदी होता है जिसे अन्य श्रमिक क़ैदियों पर निगरानी रखने का काम दिया गया होता है। इसके लिए उसे 35 रुपए रोज़ाना का भुगतान किया जाता है। लेकिन वह अपने नियंत्रण के संसाधनों को बेचकर बाजू से अच्छी ख़ासी रक़म वसूल कर सकता है। बँटवारे में हेर-फेर कर, चीज़ों को खुले बाज़ार में बेचकर वह एक अतिरिक्त मूल्य संचित कर लेता है। जो भाई उसे पैसे देते हैं उन्हें अच्छा और ज़्यादा खाना मिलता है। लेकिन जेल-अधिकारियों और जेल की रसोई के लिए राशन आपूर्ति करने वाले ठेकेदारों के बीच होने वाले समझौतों के आगे तापा कमांडर के विशेषाधिकार फीके पड़ जाते हैं। जेल के कई कर्मचारी जेल आपूर्तियों से चीज़ें अपने परिवार का पेट भरने के लिए अपने घर ले जाने में सक्षम होते हैं। ऐसी चोरियों का नतीजा क़ैदियों को परोसे जाने वाले भोजन में कटौती होती है। जेल-संहिता में निर्देशित वज़न शर्तों को पूरा करने के सब्ज़ियों के सबसे सड़े-गले भाग तक क़ैदियों की थाली में जगह पाते हैं—इसमें यहाँ तक कि वह रस्सी भी शामिल होती है, जिससे आपूर्ति करने वाले लोग सब्ज़ियाँ बाँधते हैं।
परिणामतः, हमने अक्सर स्थितियों को बेहतर बनाने की कोशिशें की। इसका एक तरीक़ा खाने को जेल-कैंटीन से ख़रीदे हुए मिर्च-लहसुन के पॉवडर और अचार-मसालों से दुबारा पकाने का था। इसे हांडी की प्रक्रिया कहते थे। अल्युमिनियम की थाली को खाना बनाने के बर्तन की तरह इस्तेमाल किया जाता। ईंटों के सहारे या अल्युनिमियम के अन्य बर्तन से चूल्हा बनाया जाता। ईंधन के लिए अख़बारों और सूखी रोटी के टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता, लेकिन कई बार प्लास्टिक के टुकड़े, टहनियाँ, पुराने कपड़े, जेल से चुराए गए बिस्तर और यहाँ तक कि क़ानूनी काग़ज़ातों की कॉपियाँ भी आग के हवाले कर दी जातीं।
‘हांडी’ शब्द का इस्तेमाल क़ैदियों के उस समूह के लिए भी किया जाता था जो साथ-साथ अपना भोजन करते थे। वे कैंटीन से ख़रीदी गई चीज़ों को आपस में बाँट लेते थे और अन्य बातों से बेफ़िक़्र रहते थे। बैरक में, हांडी समूह के सभी सदस्य एक ही जगह पर सोते थे। हालाँकि, कोठरी में मेरे जैसे आदमी के लिए हांडी समूह [में शामिल होना] संभव नहीं था—हमें अपनी कोठरी में अकेले बंद कर दिया जाता था, अतः हम रात का खाना साथ में नहीं खा सकते थे। फिर भी, हमने ऐसा तरीक़ा ईजाद किया कि एक कोठरी में बनाया गया खाना दूसरी कोठरियों तक पहुँचाया जा सके। एक रणनीति के ज़रिए इसका प्रबंधन किया गया, जिसे गाड़ी कहा जाता था। कपड़े के टुकड़ों पर खाना रखा जाता था और ज़मीन के सहारे कपड़े को खिसकाते हुए, सूती से बने स्लेज़ के जैसे, एक कोठरी से दूसरी कोठरी में खींचा लिया था।  
मांसाहार भोजन पर महाराष्ट्र सरकार की लगभग संपूर्ण पाबंदी भी क़ैदियों के गुणों और दक्षता को चुनौती देती है। गिलहरियों, पक्षियों, छुछूंदरों को फांसने, उनका शिकार करने और इसी क़िस्म के अन्य छोटे खेल एक गंभीर पेशा होते हैं। यहाँ तक कि टिड्डे और जेल में कभी कभार झुंड के झुंड आने वाले अन्य कीड़े भी इकट्ठे किए जाते और उन्हें धूप में भूनकर खाया जाता या चटनी बनाई जाती थी। कई बार पक्षियों को फांसने के लिए कपड़े की जालियाँ काम आती थीं। लोग गुलेल भी बनाते थे। वे निकास नालियों और अन्य निकासों में लगाए गए जालों से कई बार छुछूंदर को फांस लेते। लेकिन गिलहरी और चूहे, दोनों के लिए सबसे लोकप्रिय तरीक़ा हाथ-और-छड़ी से शिकार का होता था। अगर किसी एक ने देखा, तो सभी को चिल्लाते हुए आवाज़ दी जाती और शिकारी शिकार को किनारे लगा देते।
एक मोटी तगड़ी छुछूंदर— जो स्वाद में सुअर के मांस जैसे लगती है—मांस खाने वाले एक समूह के लिए अच्छी-ख़ासी दावत होती थी। जल्दी ही इसके बाल साफ़ किए जाते, काटा जाता और जेल कर्मचारियों और उनके मुख़बिरों की आँखों से दूर किसी कोने में पकाया जाता था। शौचालय के पीछे की जगह सुरक्षित मानी जाती थी। शौचालय साफ़ करने वाले डंडा कमान की देखरेख में यह सब किया जाता था, जो कि सर्वाहारी और शिकार को दौड़ाने और पकड़ने, दोनों में एक उत्साही भागीदार होते थे। ये दल जब भोज के लिए घेरे में बैठता, तो बातचीत अच्छे वक़्त की ओर मुड़ जाती थी। कोई जंगली सुअर की बात करता तो कोई ख़रगोश को याद करता। तब ऊँची दीवारें और लोहे की सलाखें पीछे छूटती हुई नज़र आती थीं। चीज़ें इतनी बुरी नहीं थीं, जितना कि वे दिखती थीं।   
+++
हर बैरक का अपना एक भाई होता था, कमज़ोर लोग जिसके क़रीब होने का दावा करते या या चाहत रखते थे। जो लोग सफल हो जाते वे, एक जोड़ी बिस्तर या सफ़ाई के सामान मिल जाने के रूप में, कुछ परेशानियों से निजात पाने की उम्मीद करते थे। यद्यपि, जेल की नियमावली कहती है कि दिए गए बिस्तर में एक दरी, एक चादर, सर्दियों में सूत-ऊन के दो कंबल और खोली के साथ एक तकिया शामिल रहना चाहिए। लेकिन नए अहमद अगर मैला-कुचैला एक कंबल भी पा जाते हैं तो ख़ुद को भाग्यशाली मानते हैं। 
जेल में, गहरी नींद सोने वालों को भी कभी कभी अपनी रात दूसरों के लिए समर्पित करनी पड़ती है। जब हर क़ैदी अपने निजी सपनों में खोए रहते हैं, बाजू में सो रहे लोगों के कमरे से सिसकियाँ, शोक और विलाप के स्वर लगातार आते हैं। जगे हुए लोग अक्सर रोने वाले को ख़ामोश करने के लिए चाटा जड़ देंगे। लेकिन सभी दुखी आत्माएँ इतनी आसानी से नहीं कुचली जा सकतीं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो ठहाकों से रात की सहम भरी चुप्पी को चीर देते हैं, ऐसे लोगों को ख़ामोश करने से पहले उन पर ज़्यादा शक्तिशाली हमले (उपचार) किए जाते हैं। चीख़ने-चिल्लाने वाला व्यक्ति, जिसे वास्तव में मनोवैज्ञानिक मदद की ज़रूरत होती है, मामूली सी सहानुभूति भी नहीं पाता। जब सारी बैरकों के लोग उठ जाते हैं तो कुछ बदमाश क़िस्म के लोग उसे पीटने और उसपर लात-घूसे बरसाने के लिए रात में तैनात सुरक्षाकर्मी के साथ हो लेते हैं। कई लोग मानते हैं कि उस आदमी को अपने आग़ोश में लेने वाले शैतान को उसके शरीर से भगाने का यही एकमात्र ज़रिया होता है। थोड़ी देर बाद, वह ख़ामोश हो जाता और पहले से ज़्यादा सन्नाटा उतर आता। जैसे [चुप कराया गया] क़ैदी अपने ख़ुद के शैतान से छिपने के लिए ख़ामोशी में दफ़न हो जाता है, नींद (वैसे ही) दुर्ग्राह्य हो जाती है। जब क्षण और मिनट कांटे की तरह गड़ रहे होते हैं, समय बताने के लिए कोई घड़ी नहीं है। ऐसे में, एक घंटा और ज़ब्त होता है, कभी नहीं लौटने के लिए।