12 फ़रवरी 2013

‘हिन्दू फांसी’

 अनिल चमड़िया

13 दिसंबर 2001 को संसद भवन परिसर में हमले के आरोप में अफजल गुरू को फांसी की सजा को न्यायिक मापदंड और शर्तो की कसौटी पर देखें तो वह घटनाओं के सिलसिलेवार अध्ययन के बाद ‘राजनीतिक’ फैसला दिखता है. अफजल पहले पुलिस के लिए भी काम करता था. वह संसद भवन के परिसर में घुसे पांच हथियारबंदों के साथ नहीं था. सुप्रीम कोर्ट ने जब निचली अदालत द्वारा दी गई फांसी की सजा को बहाल रखा तो सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा कि उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं. उसे समाज की मनस्थिति को संतुष्ट करने के लिए फांसी की सजा को बहाल रखने पर जोर दिया. फांसी देने तक का घटनाक्रम भी ऐसा ही है. जैसे सबकुछ अचानक हुआ. उनके परिवार के सदस्यों तक को उसकी जानकारी नहीं दी गई. सरकार ने कहा कि कश्मीर घाटी के सोपोर में रहने वाले परिवार को स्पीड पोस्ट के जरिये ये सूचना भेजी गई थी कि फांसी की सजा को माफ किए जाने की उनकी अपील रद्द कर दी गई है. अफजल गुरू को फांसी पर लटकाने के बाद उसके शव को वही दफना दिया गया. पिछले बीसेक वर्षों में पूरी दुनिया में ताकतवर और ताकतवर बनने की चाह पैदा करने वाले शासकों में आक्रमकता इस रूप में बढ़ी है कि मारो भी और दफना दो. यह आक्रमकता अपने फैसले में न्यूनतम मानव अधिकार की भी जगह को स्वीकार नहीं करती है. पूरी दुनिया में फांसी की सजा को खत्म करने के आंदोलन चल रहे हैं. इसका एक कारण तो यह है कि सत्ता का काम नागरिकों की सुरक्षा और उनके जीवन की बेहतरी के लिए होती है. दूसरा कारण यह भी है कि फांसी की सजा को पाने वाले समाज के कमजोर वर्गों के सदस्य ही होते हैं. भारत में तो इक्की दुक्की घटनाओं को छोड़ दें तो फांसी की सजा समाज की कमजोर वर्गों के सदस्यों को ही अब तक दी गई है और दूसरी तरफ फांसी की सजा से माफी पाने वाले लोग समाज के प्रभावशाली लोगों में रहे हैं. क्या अफजल गुरू को फांसी से माफी के सारे कानून सम्मत रास्ते बंद हो चुके थे? ऐसा नहीं है. दरअसल अफजल को फांसी देने का फैसला राजनीतिक स्तर पर लिया जा चुका था, लिहाजा माफी के लिए समय और सूचना से ही महरूम कर दिया गया.

 अफजल गुरू को फांसी तब दी गई जब कश्मीर के मकबूल भट्ट को 1984 में दी गई फांसी की बरसी अगले दिन थी. मकबूल भट्ट को फांसी की सजा के बाद कश्मीर घाटी में इस कदर की बेचैनी विकसित हुई कि आज तक वह वहां से नहीं उबर पाई. कश्मीर घाटी का संसदीय राजनीति की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है. यानी वहां के मतदाताओं का रूख, केन्द्र की सरकार के बनने-बिगड़ने में कोई महत्व नहीं रखता है. संसदीय राजनीति के लिए महत्वपूर्ण वह है जो सत्ता के बनने बिगड़ने में अपनी दखल रखता है. लेकिन कश्मीर घाटी देश के मतदाताओं के बीच ससंदीय राजनीति के लिए खुराक रहा है. वह साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी साम्प्रदायिकता का व्यवहारिक स्तर पर सबसे ज्यादा काम आता रहा है. पिछले साठ वर्षों में कश्मीर घाटी और वहां की बहुसंख्यक आबादी पर आधारित राजनीति का खासतौर से उत्तर भारत की संसदीय राजनीति में लगातार विस्तार हुआ है. अब तो कश्मीर घाटी और वहां की बहुसंख्यक आबादी की कीमत पर हर पार्टी संसदीय राजनीति में कश्मीर से बाहर के मतदाताओं को जीतने के लिए होड़ में खड़ी है. 

सभी छोटे राज्यों के प्रति लगभग ऐसा ही दृष्टिकोण है. इसे समझने के लिए केन्द्रीय मंत्री पी चिदंबरम का अफजल को फांसी के दो दिन पहले इस बयान को भी देखा जा सकता है. उन्होंने बताया कि सुरक्षा बलों को दिए गए विशेषाधिकार के कानून को इसीलिए वापस नहीं लिया जा सकता है क्योंकि सेना उसके विरोध है. संसद के लिए चुनाव का चरित्र अब कुंभ जैसा हो गया है. 1989 में कांग्रेस की कमान जब राजीव गांधी के हाथों में थी तब उन्होंने हिन्दू संदेश के साथ अयोध्या से अपना चुनाव प्रचार जारी किया था. अब राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस आ गई है तब यह प्रचार कश्मीर से शुरू हो रहा है लेकिन वह भी हिन्दू संदेश के साथ और आक्रमकता की एक सत्ता शैली की साथ. पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में मंडल आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार आरक्षण के फैसले के बाद हिन्दूत्व की राजनीति में एक विभाजक रेखा के खीचे जाने का आकलन किया गया था लेकिन हिन्दूत्ववादी राजनीति ने पिछड़ों को उसमें समाहित करने का कार्यक्रम बनाकर संसदीय चुनाव की धूरी पर खुद खड़ा कर लिया है. गुजरात में विधानसभा की जीत के बाद हिन्दूत्ववादी राजनीति का नेतृत्व करने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके चुनावी संगठन भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दूत्ववाद को संसद के चुनाव में एक बार फिर उतारने का मन बना लिया है. कांग्रेस में शुरू से ही हिन्दूत्ववादी राजनीति की तरफ झुकाव रखने वाला एक ताकतवर पक्ष रहा है. संघ और उसकी पार्टी भाजपा के मजबूत होने के साथ कांग्रेस के भीतर वह पक्ष भी लगातार और ताकतवर हुआ है. गुजरात में हारे जाने के बाद और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के अगले प्रधानमंत्री बनने की योजना के साथ ही कांग्रेस में राहुल गांधी के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह हिन्दूत्ववाद की प्रतिस्पर्धा में पीछे नहीं रह जाए. वैसे भी गैर भाजपा की पार्टियां शायद यह समझ रखती हैं कि मुस्लिम मतदाताओं के सामने उन्हें चुनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता है. हिन्दूओं के धार्मिक आयोजन कुंभ में भाजपा द्वारा अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने के लिए समर्थन की मांग से कांग्रेस में बेचैनी और बढ़ी है. देखा जाए तो कांग्रेस ने हर स्तर पर भाजपा से खुद को कमजोर नही दिखने का पूरा प्रयास किया है. भ्रष्टाचार, महंगाई, घोटाले के मामलों में उसने खुद के कटघरे के साथ अपने बगल में भाजपा के लिए भी कटघरा बनाया तो आर्थिक नीतियों को लागू करने के स्तर पर कांग्रेस ने भाजपा को कमजोर साबित किया है.

हिन्दूत्ववाद एक ऐसा मसला है, जिसे कांग्रेस किसी दूसरी भाषा में संबोधित कर सकती है. उसे धर्म निरपेक्ष भी दिखने का प्रयास करना है. खुद को घर्मनिरपेक्षवादी कहने वाले विचार राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के जरिये साम्प्रदायिकता की राजनीति की जरूरत को साधते हैं. अफजल की फांसी को लेकर भाजपा अपने कार्यकर्ताओं में गति पैदा करती रही है. कांग्रेस का यह अनुमान है कि अफजल को फांसी देकर कश्मीर के बाहर फैले हिन्दू मतदाताओं को संबोधित किया जा सकता है. वास्तव में अफजल को हिन्दू फांसी हुई है. संसदीय चुनाव के लिए सेना और साम्प्रदायिकता के आगे राजनीतिक सत्ता के समर्पण ने देश को एक गहरे संकट में खड़ा कर दिया है. इस स्थिति में कानून और उसकी व्यवस्था नागरिकों के लिए नहीं रह जाती है. विरोध के सारे अवसर खत्म हो जाते हैं, जैसा कि अफजल गुरू की फांसी की सजा के बाद विरोध करने वालों के साथ सरकारी मशीनरी और साम्प्रदायिक संगठनों की संयुक्त कार्रवाई देखी गई हैं. बचपन में हम फिल्मों में देखा करते थे कि न्यायाधीश फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद अपने कलम की नीब को तोड़ देता था. अब सड़कों पर फांसी दिए जाने के बाद लोगों की शक्ल में राजनीति और विचारों को मिठाईयां बांटते और पटाखे छोड़ते हिन्दूत्ववादी खुशियां देखते हैं. 

लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और शोध पत्रिका ‘जन मीडिया’ के संपादक हैं .साभार-रविवार.कॉम.

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