29 मार्च 2013

बम संकर टन गनेस : पिकुलियर है जो है सो कि


समीक्षा: सुभम स्री 
किताब - बम संकर टन गनेस
लेखक – सिरी राकेस कुमार सिंघ
परकासक – हिन्दी जुग्म, नई दिल्ली, 2013

शुभम स्री
उ कहते हैं न कि नय आम त अमचूरे सही, ओइसेहीं नय किताब त टाइटिले सही हो गया मामला । मार हल्ला गुदाल कि बम संकर टन गनेस काहे है टाइटिल, कोई कह रहा है सूटेबुल नहीं है, कोई इसी को गर्दा बताए हुए है । मने किताब पढ़ने के पहिले टाइटिले पर माथा फोड़ौव्वल । बाकी टइटिलवे पर चर्चा करना है त स्टाइलिस्टिक्स माने शैली विज्ञान के हिसाब देखिए न भाई । बम संकर टन गनेस का कोई दुसरा टाइटिल भी हो सकता था जैसे राकेस सिंघ कहिन तरियानी छपरा । अउर भी नाम सब रहा होगा लेखक के दिमाग में लेकिन बम संकर टन गनेस जैसा गंजेड़ी नारा जेतना सॉलिड ढंग से तरियानी छपरा का हुलिया बताता है, बता सकेगा कोई ओर? माने कि नाम पहढ़े औ समझ गए कि छपरिया माल होगा भरपूर। इ जो रजिस्टर है माइकल हैलिडे के हिसाब से, उ खाली संस्किरतिए नहीं बता रहा है, तरियानी छपरा का एटीट्यूड भी बता रहा है । विकास उकास बोल के जो मिटिंग सिटिंग होते रहता है उसका भी पेट का बात बकार कर दे रहा है । दुनिया चाहे जिधर जाए, तरियानी बम संकर टन गनेस है, मस्त है एकदम जो है सो कि । एही बतवा पर तो राकेस सिंघ गर्दा उड़ा दिए ।
हमारे बिहार के साथ क्या हुआ कि रेणु जी ठहरे कवि दृष्टि वाले लेखक, अलबत्त संवेदनसील प्रानी । बहुत ममता के साथ लिखे पुरैनिया का कथा । इधर रामवृक्ष बेनीपुरी हुए बेनीपुर में, उ भी बहुत प्रेम से रेखाचित्र खीचे । अच्छा, गोदान का सिमरी बेलारी भी नानिहरे-ददिहर है हिन्दी वाला सब के लिए । बस क्या हुआ कि गांव का नाम आए बस ले कन्ना रोहट मचा दे सब एक लाइन से । ग्राम्य जीवन पर दू चार गो कविता उविता भी है एकदम सेंटी टाइप । बस जैसेहीं गांव का नाम आया कि सेंटी हुए जा रहे हैं, नास्टैल्जिया में तैर रहे हैं । अच्छा, रेणु को गीत नाद खूब आता था, ढेर बारहमासा, चैता, समदाउन जानते थे तो लिखे । रेणु जैसा लिख दिए, उ सोइटर का डिजाइन हो गया । कॉपी कर कर के ढेंगरा दिया उसको सब । उसके बाद जो तनी मनी लिखाया होगा कुछ कुछ, फिर तो पच्छिमे का हवा चल गया । उ तो कहिए दलित साहित्य आया कि गांव जवार पर बात होने लगा नहीं तो लग रहा था खाली दिल्लिए-बंबई-कलकत्ता में लोग रह रहा है, बाकी जगह मुरदघट्टी है । गांव पर संस्मरण टाइप भी लिखाया है, ए गो तो एम एन श्रीनिवास लिखे यादों से रचा गांव, ए गो और बिसनाथ तिरपाठी लिखे नंगातलाई का गांव । बम संकर टन गनेस का टाइटल पढ़ के किताब उलटिएगा ना त राकेस सिंघ के परिचय के बगल में परफेसर साहीद अमीन बताए हैं इ सब किताब के बारे में ।
अच्छा धरफराइए मत, अस्थीर से गप कीजिए, राकेस सिंघ बहुत धरफड़ा दिए हैं पहलेही ।
हां तो क्या हुआ कि जैसेहीं किताब का नाम पढ़े, कहे - अरे साला, इ तो सॉलिड माल बुझा रहा है । सेंटी, कवि टाइप नहीं न लगा इसीलिए । गांव पर लिखता है कोई तो करेजा काटने लगता है न, मारे जीवन, स्मृति, शैशव, स्नेह । अ राकेस सिंघ क्या किए हैं कि एकदम नॉर्मल हैं, कंट्रोल किए हुए हैं । थोड़ा लजाता भी है आदमी । जैसे क्या देखिएगा हमारे तरफ कि लाइन कटेगा तो रात भर बैठ के पत्नी को पंखा होकेंगे, दू बजे उठ के पोल से लग्घी लगा के पंखा चलवाएंगे लेकिन आइ लव यू नहीं बोलेंगे । समझने वाला समझिए न जाता है हो । अब यहां हे तरियानी, मातृभूमि टाइप गप नहीं है उतना लेकिन तीन पेज में सुकरिया किए है सब को, किकलू बेटू से लेके डिट्टु, सिंटू, खदन भैया सब्भे को । भुटकुनो का नाम छपाइस है । जो कहिए, बहुत प्रेम से किताब लिखिन राकेस सिंघ । यहां तो इ हाल है कि घर मीठापुर में रहे कि दानापुर-फतुहा में, बोलता है सब पटना । अइसे में तरियानी छपरा का इतिहास-पुरान बजाप्ते सिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपूर के साथ लिखे हैं पूरा, इस बात पर बोलिए एक बार जोर से बम संकर टन गनेस ।
सबसे पहले खोलिएगा न तो महमूद फ़ारुक़ी ए गो पेश-ए-लफ्ज़ लिखे हैं । नहीं समझे, वही जो दास्तानगोई करते हैं, 1857 पर एगो किताब लिखे हैं, पढ़िएगा कभी । गजब स्टैंडर उर्दू में लिखे हैं पेस लफ्ज, वर्ड उर्ड नहीं बुझाएगा कुछ कुछ लेकिन समझ जाइएगा क्या कह रहे हैं । उसके बाद जो है सो कि राकेस सिंघ बैटिंग किए है जम के, स्लॉग ओभर में खूब छक्का-चौका उड़ाए हैं ।
लेकिन वही न है कि सोन त कान नय, कान त सोन नय । भरपूर कच्चा माल सपलाई किया तरियानी छपरा लेकिन उसको ठीक से समेटने नहीं सके । असल हुआ क्या कि गिरिजानंदन सिंह का खिस्सा तो बज्जिका में जैसे था डिट्टो लिख दिए राकेस लेकिन जब अपने गप करने लगे तो बुझा गया कि ओरिजनल छपरिया नहीं, माइग्रेंट छपरिया बोल रहा है । पूरा मैं-तुम टाइप सुद्ध हिंदी । रेणु के यहां याद पारिए रेणु कै बार बोले हैं, पूरा मैला आंचल का कथा कहने वाला सूत्रधार मेरीगंज का ही आदमी है, लेखक तेखक नहीं है । लेकिन बम संकर में मामला जरा दूसरा हो गया है ।
असल में कोनो विधा नहीं है इसमें । क्या है कि रियल लाइफ में जैसे होता है उसको डिट्टो लिख दिए हैं राकेस । जैसे मान लीजिए आप उतरे तरियानी छपरा तो राकेस आपको रिसीभ करने आए । फिर आप दू चार दिन रहिएगा तो तरियानी घुमाएंगे पूरा । यहां वही बात है, आंख से देखा के नहीं, किताब में पढ़ा के घुमा रहे हैं राकेस । सिनेमा का टेकनीक है, कैमरा घूम रहा है, नैरेटर बता रहा है- इ देखिए अनुपिया, इ है दूरा, इ है बगीचा, इधर इस्कूल, उधर तरियानी चौक, अवधेश सिंह का बजार । मतलब आप पाहुन के तरह चल रहे हैं साथ में, राकेस आपको घुमा रहे हैं । लेकिन इस घुमाने में अंतर क्या है कि डिट्टु, सिंटू नहीं न घुमा रहा है । राजू भैया के साथ घुमिएगा तो उ बेचारे अपने दिल्ली से आते हैं कभी कभी, राजू घिरस हैं और आप सोचिएगा कि एक्के एक खिस्सा गप बताएं तो नहीं न चलेगा । उ अपने दर्शक हैं, घरबइया को जेतना पता रहता है, कर कुटुम कहां से जानेगा उतना । अब जो बाहर चल गया उ कुटुमे न हुआ । अच्छा राजू घिरस बच्चा में रहे जेतना दिन, उसके बाद बाहरे बाहर । पुरनियां में पढ़े, फिर मुजफ्फरपूर, उसके बाद दिल्ली । होस्टलिया बुतरु पंदरह दिन के छुट्टी में आता है तो अइसेहीं दुलार बनल रहता है । उसको क्या मालूम भीतरे भीतर केतना पालटिक्स होता है । ओतना छौ पांच नहीं न है, जो है सब सीधा सपट्टा बता दिए । अब आप चाहिएगा कि चौकड़ी जमा के रस ले लेके तरियानी का खिस्सा सुनें तो राजू घिरस को कहिए उपनियास लिखेंगे । नहीं तो रहते अस्थीर से महीना दू महीना तब देखते, एतना हड़बड़ी में राजू घिरस घुमा दिए सब जगह उ कम है क्या । फिर खनखन कीजिएगा कि बिसनाथ जो बिस्कोहर का खिस्सा सुनाए थे वैसा... बिसनाथ बिस्कोहर नहीं न घुमाए हो, लख्खा बुआ, बल्दी बनिया, जनदुलारी इन्हीं लोग का खिस्सा कहे । आराम से रुक रुक के, पूरा चरित्र चित्रण के साथ, इतिहास बताते हुए चले इसलिए आपको याद रह गया । बिस्कोहर रहना हुआ न बहुत दिन इसीलिए । तरियानी बहुत दिन बाद आए हैं न इसलिए पहले न्यूज ले लीजिएगा तब न विस्तार से कथा सुनिएगा । केतना आदमी मरा-हेराया, बियाह-गौना, सराध-मुंडन हुआ, मकान-दोकान बना यही सब न बताता है पहले आदमी । इ जानने के बाद बीच में राजू घिरस अपने टाइम के तरियानी को भी याद करते चलते हैं और अभी के तरियानी से तुलना भी । आप पहड़िएगा तो लगेगा एकदम ऑडीनरी बात बोल रहे हैं लेकिन ओतना ऑडीनरी है नहीं, डेप्थ है बहुत । खाली याद करना और घूमना-देखना नहीं हैं । देगची में भात सिझा कि नहीं इसके लिए खाली एक दाना चावल निकाल के, दबा के देखा जाता है । उसी से बुझा जाता है । इसी तरह तरियानी सिर्फ चावल का एक दाना है जो देस का दूसरा तरियानी जैसा जो गांव सब है, उसका भी कथा है ।
जरा सिरियसली गप करते हैं, तब तक एक राउंड खैनी-सुरती-बीड़ी-तिरंगा-शिखर हो जाए । उसके बाद एकां एकी एनेलायीसिस  होगा ।
गांव-घर, जात-पात, समय-समाज
देखिए, सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि बम संकर टन गनेस को क्यों पढ़ना चाहिए ? शीर्षक जितना प्रभावशाली है, अध्यायों के नाम जितने रोचक हैं, कंटेंट इतना रचनात्मक नहीं है । यह सवाल भाषा का या रूपवादी होने या सौंदर्यशास्त्र का नहीं है, सवाल है अभिव्यक्ति का । एक औसत कृति और किसी नायाब रचना में फर्क सिर्फ संतुलित होने और मुकम्मल होने का होता है । अखबारी लेखन, ब्लॉग में शॉर्टकट से काम चलाया जा सकता है लेकिन जब एक समाज की कथा कहने बैठेंगे तो मेहनत करनी होगी । बम संकर किसी उपन्यास के लिए लिए गए उस नोट्स की तरह है जिसमें एक महान कृति के बीज तो हैं लेकिन उसे गढ़ा नहीं गया । शायद लिखते वक्त राकेश ने ये सब सोचा नहीं होगा । ये एक अनायास शुरु हुई रचना है, नॉस्टैल्जिया से निकल कर यथार्थ से दो दो हाथ करती हुई  । पहले प्रूफ जैसी, जिसे कसे हुए संपादन की जरूरत है, वाक्यों की चूलें कसने की जरूरत है, वर्तनी की गलतियां सुधारना बाकी है और भी बहुत कुछ ।
हालांकि अपरिष्कृत होना भी एक तरह से अच्छा ही हुआ । एक गांव की कथा में ही यथार्थ के कई रूप सामने आ गए हैं । इसमें जातियों के बदलते समीकरण हैं, धर्म है, तकनीक है, हिंसा है, माओवाद है । इसे समाजशास्त्रीय अध्ययन कहें, एथनोग्राफी कहें, जीवित इतिहास कहें, सारे विकल्प खुले हैं । यह बड़ी बात है कि साहित्यिकता का दावा न करते हुए भी इस किताब ने नीरस समाजशास्त्रीय ब्यौरों के उलट स्मृति आख्यान की शैली में सामाजिक बदलावों की गहराई से छानबीन की है ।
असल में बम संकर को समझना एक संस्कृति को समझना है। जिसे वाचिक परंपरा कहते हैं वह इतिहास को इसी तरह बरतती है । व्यक्तियों, परिवारों, समूहों के किसी एक की कथा कहते कहते अचानक किसी दूसरे की कथा आ जाती है । हर पात्र कथा में अपने इतिहास के साथ प्रवेश करता है । भारतीय आख्यान इसी शैली में लिखे गए । भारतीय लोकमानस में यही शैली प्रचलित है । यह संवाद का तरीका है । जैसे परभरनियों की बात हो रही है और मंजूआ का जिक्र आया तो अब आपको मंजूआ के शादी-गौने का पूर वृतांत सुनना होगा फिर कथा आगे बढ़ेगी । आप राह चल रहे है, नवल डॉक्टर का घर दिखा तो नवल डॉक्टर के मारे जाने का इतिहास भी आपको बताया जाएगा । इसलिए पूरी किताब में सैकड़ों लोग हैं, सैकड़ों लोगों का हाल चाल लिखा है, उनके साथ हुई घटनाएं-दुर्घटनाएं लिखी हैं ।
राकेश का बोलना भी एक खास रजिस्टर के अंतर्गत आता है । बिहार के गांवों, कस्बों में पढ़े लिखे या बाहर रह रहे लोगों का एक खास तरीका है बातचीत का । काफी कुछ यहां आया है लेकिन हिन्दी के टिपिकल लेखन के प्रभाव से राकेश खुद को मुक्त नहीं कर सके हैं इसलिए किंतु, परंतु, यद्यपि, इत्यादि कितनी आसानी से आपके कहे का गुड़ होबर कर सकते हैं, इस ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया है ।
फिर भी यह एक नया प्रयोग है कहने की शैली, ब्यौरे, घटनाएं सबके स्तर पर । यूं कहिए कि साहित्यिक लेखन के अंतर्गत जिस तरह लिखा जाता है उसके उलट यह वाचिक को लिपिबद्ध किए जाने जैसा है । इस वजह से विधा को लेकर तरह तरह के सवाल उठ रहे हैं । कई बाते हैं मसलन ये कि लेखक की टिप्पणियां जिनमें विश्लेषण है, वो गैरजरूरी हैं । अनुपिया, शंकर मंडल, खोपीवाली, कैलाश जैसे चरित्र खुद ही उस व्यवस्था की असलियत बयान करते हैं, लेखक का सामाजिक विश्लेषण उन्हें कमजोर बनाता है । इस चुनौती से निबटना मुश्किल होता है । सीधी बात है कि या तो आप जाति व्यवस्था पर लेख लिखें, विश्लेषण करें, शोध पत्र लिखें । अगर आप ये सब नहीं कर के रचनात्मक ढंग से अपनी यादों को लिख रहे हैं, अपने गांव के बारे में बता रहे हैं तो उस मुहावरे में बात कीजिए । जाति का विश्लेषण करते वक्त यह मुश्किलें सामने आती हैं । दलित चरित्रों के लिए जिस सम्मान के साथ आप का प्रयोग हुआ है, उसके साथ उनके पुराने नाम जैसे अनुपिया भी साथ चल रहे हैं । उनका नाम शायद अनूपा होगा, विवरण नहीं दिया गया है । जाहिर है यहां राजू घिरस उस पैराडाइम शिफ्ट को प्रतिबिंबित कर रहे हैं जो दलित विमर्श ने पैदा किया है । इसलिए घिरस लेखक की निगाह जन-मजदूर की ओर टिकी हुई है, टिकी ही नहीं हुई है बल्कि राजू घिरस तरियानी की जमीन पर जन-मजदूरों के पक्ष में खड़े होकर बात कर रहे हैं । इसका स्वागत किया जाना चाहिए खासकर तब जब साहित्य की राजनीति ने दलितों की स्थिति के बारे में लिखने को नेपथ्य में डाल कर सारा विवाद दलित-गैरदलित मुद्दे पर केंद्रित कर दिया है ।
माफ कीजिएगा, बात हो रही थी बम संकर को पढ़ने की । बहुत सारे कमजोर मजबूत बिंदुओं के साथ यह किताब भारी किल्लत में बरसे पानी की तरह है । बाल्टी, डोलची, गिलास जो है सब में पानी भर लेने की तत्परता की तरह भूमंडलीकरण, नव उदारवाद, माओवाद, विकास, गांव की राजनीतिक अर्थव्यवस्था, धर्म, ठेकेदारी, रंगदारी, गुंडागर्दी का इतिहास, जातियों के समीकरण, चुनाव सब का विश्लेषण करने के लिए उपलब्ध एक प्रामाणिक दस्तावेज की तरह । और ये किताब की सबसे बड़ी खूबी है कि जाने अनजाने यह उन जटिल बिंदुओं को छूती चलती है । बिहार की राजनीति, हिंसा युग का सूत्रपात, माओवाद, दलित जातियों की स्थिति  और वो संस्कृति जहां गंडसटऊल गप, विचित्र मोबाइल यूजर मैनुअल बहानचोद-मतारी के एकसाथ मौजूद हैं । उत्तर बिहार के एक पिछड़े गांव की ये अजीबोगरीब दास्तान इस लिहाज से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है । इसलिए जरूरी है कि अभिव्यक्ति, विधा, नॉस्टैल्जिया जैसे मुद्दों से थोड़ा आगे बढ़ कर उन बुनियादी बदलावों पर बात की जाए जिनका जमीनी स्तर पर कोई ठोस लिखित प्रमाण नहीं था ।
तरियानी छपरा का राजनीतिक अर्थशास्त्र
तरियानी छपरा का राजनीतिक अर्थशास्त्र जब बदलता है तो कैसे रिश्ते बदल जाते हैं, परंपराएं टूटती हैं, घिरस और मजदूर का संबंध बदल जाता है, यह सब देखा जा सकता है । जब तक तरियानी के भूमिहीन दलित आर्थिक रूप से अपने घिरस के ऊपर निर्भर थे, उनके बच्चे मोटरी-गठरी पहुंचाने, चरवाही करने में लगे रहे और घिरस के बच्चे श्री फुल्गेन मध्य विद्यालय में पढ़ते रहे । इसलिए आरक्षण को लेकर हो रही तमाम राजनीति के बावजूद तरियानी के दलित इस कड़वे सच को सामने लाते हैं कि एक खास तबके को ही आरक्षण जैसी सुविधाओं का फायदा मिला । खासकर उन्हें जो गांव के इस राजनीतिक आर्थशास्त्र से अलग कमाने चले गए या जहां जिनके पास जमीन आई या शहरों में रहे । इसलिए तरियानी के दलित युवाओं में आरक्षण पाने की योग्यता तक पहुंचने का संघर्ष भी तब शुरु होता है जब उनके परिवार के लोग गांव छोड़ कर मजदूरी करने बाहर जाते हैं और नगद आमदनी का एक स्रोत बनता है ।
अनुपिया के तीनों बेटों का परिवार अलग-अलग हो गया है । आंगन भी तीन हो गए हैं । असर्फी के छह बेटों में से दो तीन कमाने के लिए बाहर जाने लगे हैं । चौथे नंबर का बेटा श्री रामजानकी उच्च विद्यालय, तरियानी छपरा से मैट्रिक पास करने के बाद तरियानी चौक पर ठाकुर जुगुल किशोर सिंह महाविद्यालय में इंटर की पढ़ाई कर रहा है । वह अपने परिवार का पहला व्यक्ति है जिसने जाति प्रमाणपत्र के आधार पर नौकरी पाने का सपना देखना शुरू कर दिया है । (अनुपिया, पृ 39)
इसलिए जाति के बंधन किसी सामाजिक चमत्कार या उंची जातियों के हृदय परिवर्तन से नहीं, इस बदले हुए अर्थशास्त्र से ढीले हुए । मनीऑर्डर पर टिकी अर्थव्यवस्था ने गांवों में हर घर को चापाकल की सुविधा दी और घिरस के घरों की पनभरनियां विदा हो गईं ।
तरियानी अभी विकास की उस अवस्था तक नहीं पहुंचा है जहां उंची जातियां जमीन छोड़ कर जीविका के दूसरे साधनों पर निर्भर हो गई हों । नौकरीपेशा होते हुए भी उनका जमीन से बराबर संपर्क बना हुआ है । इसे एक तरह का संक्रमण काल कह सकते हैं । इस स्थिति में धानुक टोली के लोग राजपूत घिरस के बटाईदार तो हैं लेकिन बटाईदारों को जमीन बेचने की शुरुआत तरियानी छपरा में नहीं हुई है । संपन्नता का मतलब है दाल-भात-तरकारी, इससे इतर सवर्ण अभाव में ही सही लेकिन पेट भर पाने  की हालत में हैं और दलित मजदूरी में नाममात्र का अनाज पाकर भूखों मरने को अभिशप्त । सवर्ण जहां दुकानें खोलने, ठेकेदारी करने के कामों में लगे हैं वहीं दलित बाहर मजदूरी कर के कमा रहे हैं ।
इस स्थिति में होने के कारण ही सवर्णों में गांव से दाल-चावल-सब्जी लाकर खाने का रिवाज कायम है, सामान ही नहीं बनाने वाले भी ।
नव-शहरीकरण के दौर में गांव से अनाज, दूध और सब्जी लाकर शहर में पकाने का रिवाज ही शुरू नहीं हुआ बल्कि पकाने वाले भी गांव से लाए जाने लगे । निश्चिक रूप से ये खाना पकाने वाले या बच्चा खेलाने वाले स्वजातीय नही थे, न बाभन थे । थे वैसे गरीब जिनका पानी चलताथा । (बम संकर टन गनेस, पृ 102)
दलित और पानी चलने वाली जातियां तरियानी के इस संक्रमण काल में रह रही हैं जहां
कई बार साबित हो चुका है कि राजपूतों के वोट के दम पर पंचायत की मुखियागिरी तक मुमकिन नहीं है, विधानसभा तो बहुत बड़ी चीज है । (डाकपिन साहेब, पृ 58)
लेकिन वोट बैंक समझे जाने वाले दलितों के वोट की ठेकेदारी जरूर मुमकिन है तरियानी छपरा में गांव के दबंग राजपूतों द्वारा । इसलिए नेता वोट के ठेकेदारों पर ज्यादा समय खर्च करते हैं और ये ठेकेदार ही तय करते हैं कि किसे जीतना चाहिए । बिहार की राजनीति में दबंगों का उदय जाति के  वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ही नहीं, उस कठिन प्रतिस्पर्धा से भी उपजा जो चुनावी राजनीति में मध्यम जातियों द्वारा दी जा रही थी । इसलिए जातिवार दबंगों की बड़ी फसल तैयार हुई जो अपनी अपनी जाति को मानसिक रूप से आश्वस्त करने और सुरक्षा का अहसास कराने के काम आते रहे ।
इसलिए राणा रणधीर सिंह का चुनाव जीतना तरियानी के राजपूतों के लिए विकास का मसला नहीं है, वह राजपूतों के शक्ति प्रदर्शन के लिए जरूरी है ।
रणधीर दबंग है । कलक्टर-एसपी, सबके हेंकड़ी गुम हो जाता है उसके सामने । xxx राजपूत कैंडिडेट इस बार नहीं जीतेगा त राजपूत के लड़िका सs के बाहर-भीतर निकलना बंद हो जाएगा । राजपूत लोग के भविष्य खतरा में पड़ जाएगा ।(भोट, पृ 190)
इसलिए अपना पक्ष चुन सकने वाले दलित दबंगई के बूते वोट डालने से वंचित किए जाते हैं । सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में वंचित दलितों को डॉ. अंबेडकर के प्रयासों से जो राजनीतिक अधिकार मिले, वो उसका भी प्रयोग करने की हालत में नहीं है । हालांकि तरियानी के बहुजन दलितों से उलट स्थिति में हैं । उन्होंने वोट बारगेनिंग सीख ली है, इसलिए उनपर प्रत्याशियों का स्नेह बना रहता है और उनके वोट महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
गोअरटोली के वोट चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं, इसलिए उस मौसम में प्रत्याशियों का इस पर विशेष स्नेह बना रहता है । (जो है सो कि, पृ 22)
बिहार की राजनीति में मध्यम जातियों की इस मजबूत स्थिति की वजह का लेखक ने गहराई से विश्लेषण नहीं किया है, न ही तरियानी के अर्थशास्त्र में उनकी चर्चा होती है लेकिन इतना तो जाहिर है कि राजपूतों के गढ़ में संख्या में बराबर होने के बावजूद दलित जो हासिल नहीं कर पाए हैं, वो यादवों ने हासिल किया है । इसलिए भी क्योंकि वहां जन-मजदूर आ सर-सोलकन के जौरे खाने का टाइम नहीं आया है अभी ।” (ई दिल्ली थोड़े है, पृ 150)
फिर भी चीजें बदल रही हैं । दलित बाहर कमा रहे हैं और गांव में रह रहे परिवारों के पास नगद पैसे आ रहे हैं, वे अधिया पर खेती कर रहे हैं और ठेकेदारी, डिलरई में भी उतर रहे हैं । आजादी के बाद के भारत में खासकर नई उदारवादी दौर में जहां भी दलित आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं, वे हिंसा का शिकार बन रहे हैं और राष्ट्रीय मानचित्र पर अदृश्य तरियानी छपरा में यह काम हो रहा है । यहां जमीन विवाद का मुद्दा मुख्य मुद्दा नहीं है क्योंकि जमीनें सवर्णों के पास हैं और थोडी बहुत बटाईदारी के बावजूद दलित भूमिहीन हैं । विवाद उनके उन क्षेत्रों में प्रवेश को लेकर है जो सवर्णों के वर्चस्व का क्षेत्र माना जाता है । पैसे के बाहरी स्रोतों ने उन्हें जन मजदूर से बटाईदारी की अवस्था तक पहुंचाया है लेकिन दबंग माने जाने वाले ठेकेदारी और डिलरई के कारोबार में आने के दुस्साहस ने जाति के तनावों को बारूद के ढेर पर रख दिया है । इसलिए गांव में बहाल सामान्य अवस्था असामान्य हो रही है ।
तरियानी छपरा की असामान्य स्थिति का राजनीतिक अर्थशास्त्र से जितना लेना देना है, उससे ज्यादा दूसरे कारकों से । ये दूसरे कारक जरा संवेदनशील किस्म के हैं, इन पर भी एक राउंड ।
मोआबाद
किताब की भूमिका में राकेश ने बम संकर टन गनेस की सटीक परिभाषा दी है- वर्तमान का ताज़ा-तरीन इतिहास ! एकदम टटका ! बम संकर टन गनेस !” टटका इतिहास कुछ यूं है-
मल्लाह और दुसाध बहुल डोरा टोला के बारे में आजकल सुनने में आता है, मोआबाद के अड्डा हई डोरा । मार मिटिंग-सिटिंग होईत रहई छई । बड़का-बड़का माओबादी सs रहई छई डोरा पर ।(जो है सो कि, पृ 16)  मध्य बिहार के भोजपुर, जहानाबाद जैसे क्षेत्रों की तरह उत्तर बिहार में नक्सली संघर्ष की जमीन कभी बहुत मजबूत नहीं रही । लिबरेशन और पार्टी युनिटी के प्रभाव क्षेत्र से दूर उत्तर बिहार के अति पिछड़े इलाके जो साल में तीन महीने बाढ़ की वजह से दुनिया से कटे रहते हैं, सरकारी रेकॉर्ड में अति संवेदनशील घोषित हैं । माओवाद प्रभावित इलाका होने की बात कुछ वैसी ही रहस्यात्मक है जैसी पीपल का जिन्न । रहस्य की यह स्थिति इकलौते तरियानी में नहीं है, राष्ट्रीय स्तर पर माओवाद को लेकर जिस तरह की अस्पष्टता और रहस्य का माहौल है, वही हाल तरियानी का भी है । राकेश ने इस रहस्य को छिन्न भिन्न करने की ज्यादा कोशिश भी नहीं की है । इसलिए तरियानी छपरा में पार्टी बंद का आह्वान करती है, पर्चे मिलते हैं लेकिन पार्टी कौन सी है, उसका काम क्या है, उसका तरियानी छपरा में आगमन कैसे हुआ, ये सब अदृश्य है । बिग ब्रदर इज वाचिंग यू की तर्ज पर मोआबाद की गिरफ्त में रह रही तरियानी छपरा की दलित बस्तियां (यह भी सुनी सुनाई बात ही है) और उनसे इतर की जनता को किसी डरावने साये की तरह एक रहस्य का अनुमान तो है लेकिन ठीक ठीक जानकारी नहीं । कम से कम बम संकर पढ़ कर तो ये पता लगाना मुश्किल है ।
रहस्य का आलम ये है कि दस बारह सालों से इलाके को माओवाद का गढ़ बन जाना बताया जा रहा है । यह भी कि तरियानी छपरा हिट लिस्ट में है । तरियानी छपरा और आसपास के कुछ मुसहर और चमार लड़के-लड़कियां खतरनाक माओवादी घोषित कर सीतामढ़ी जेल में कैद हैं ।” (हनुमान मंदिर, पृ 171)
टुकड़ों टुकड़ों में दी गई इन जानकारियों का अध्ययन अपने आप में दिलचस्प है । तरियानी छपरा में अफवाह के रूप में फैली हुई ये बातें भारतीय राज्य के दावों और आंतरिक आतंकवाद की व्याख्याओं को समझने में मदद करती हैं कि कैसे विकास से कोसों दूर, पिछड़े इलाके माओवाद प्रभावित हैं और दलित बच्चे खतरनाक माओवादी । समझ का आलम ये है कि इलाके के एकमात्र सीपीआई समर्थक परिवार राम इकबाल के बेटे को चुनाव के दौरान पुलिस ने माओवादी मान कर घंटो थाने में बिठाए रखा । तरियानी के जागरूक दलित सामाजिक कार्यकर्ता सत्यनारायण राम को लेकर भी मतभेद है । छपरियों का एक दल उन्हें बहुजन समाज पार्टी का कार्यकर्ता बताता है तो एक तबका तरियानी छपरा का पहला माओवादी ।
तरियानी छपरा की इस नई परिघटना के कारणों की पड़ताल राकेश ने मध्य बिहार के सशस्त्र संघर्ष से जोड़ कर की है लेकिन वो ये कहीं नहीं बताते कि लिबरेशन, पार्टी युनिटी या एमसीसी में से कौन से गुट ने उत्तर बिहार का रुख किया । पीपल्स वार और एमसीसी के विलय के बाद नव गठित सीपाआई (माओवादी) के कार्यक्षेत्र या प्रभाव का कहीं जिक्र नहीं है । ऐसे में उत्तर बिहार के दलितों और माओवाद के संबंध पर अंधेरा बरकरार रहता है । प्रामाणिक तथ्य या शोध के अभाव में रणवीर सेना के नरसंहारों का असर तरियानी छपरा तक होने को इन घटनाओं का कारण मानना भी संदेह के घेरे में है । फिर, तरियानी में प्रचलित कुछ बातें भी चौंकाने वाली हैं मसलन न कोनो काम हऊ त माओबादी बन जो, राइफल आ दस हजार रुपइया महीना मिलतऊ ।” (हिंसा युग, पृ 209)
तरियानी में खुल कर हुई सवर्ण-दलित हिंसा के कारण जितने अज्ञात हैं उतने ही हर हत्या के बाद पर्चे मिलने के भी । हिंसा की घटनाओं का माओवाद से सामंजस्य बिठाने की कोशिशें भी कुछ इसी तरह की हैं ।
माओवाद के रहस्यमय आवरण से तरियानी छपरा पर्दा हटाने की बजाय उसे और उलझा देता है । लेखक ने जिन घटनाओं का टुकड़ों में विवरण दिया है वे गंभीर विवेचन की नहीं तो कम से कम थोड़े और शोध की अपेक्षा रखती थीं । खासकर माओवाद से दलितों के संबंध को लेकर ।
इन सबके बावजूद तरियानी का टटका इतिहास इसी रहस्य से बुना हुआ है । वहां माओवाद को लेकर अटकलें और अफवाहें हैं, डर का माहौल है । तरियानी के लोगों को आंख से देखने और पता करने की जरूरत भी नहीं है, सरकार ने उन्हें बता दिया है । उसी तरह जैसे देश में भड़कने वाली हिंसा और वाम का मतलब सरकार बताती रहती है ।
दास्तान-ए-रंगबाजी उर्फ नलकटुआ पुराण
बम संकर ने रंगबाजी युगीन बिहार की संस्कृति की बारीकियों पर बहुत विस्तार से प्रकाश डाला है, इतना कि पैस्टिच हजार वाट के बल्ब जितने झक-झक कर रहे हैं । विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप के अतिरंजित सिनेमा के बरक्स यह ज्यादा ठोस और प्रामाणिक छवि है जिसमें ठेकेदारी, डिलरई ही नहीं, उसके साथ पनपी पूरी संस्कृति का दिलचस्प वर्णन है । बुलेट, राजदूत, हीरो होंडा, बसें और ठेकेदारी 80-90 और उसके बाद के बिहार को परिभाषित करने की कुंजियों की तरह इस्तेमाल की जा सकती हैं । भ्रष्टाचार के मारे हमेशा हलकान रहने वाले राज्य परिवहन निगम का भट्ठा बैठने के बाद इस व्यवसाय पर दबंग किस्म के ठेकेदार, डीलर या बाहुबलियों का प्रभुत्व कायम हुआ और बसें परिवहन के साधन से ज्यादा उस दबंग संस्कृति का प्रतीक बनीं । दबंग संस्कृति के विकास की प्रक्रिया का राकेश ने विस्तार से वर्णन किया है ।
उन दिनों बिहार में ठेकेदारी करने वालों के कंधों पर सफेद अंगोछे बहुत फबते थे । xxx ठेकेदारों के बुलेट को सलाम कर गौरवान्वित महसूस होने वाली पीढ़ी भी पनप चुकी थी । बेशक, किसी एक का नाम लेकर ठेकेदारी होती थी, परंतु ठेकेदारों का मुकम्मल ग्रुप होता था । उनके पास प्रशासनिक शस्त्रागारों की अपेक्षा ज्यादा असरदार और आधुनिक असलहे होते थे । जिनके परिचालन और रख रखाव के लिए उनके पास वैसे लड़कों का दस्ता होता था, जो नाक और ऊपरी होंठ के बीच के सख्त होते रोएं पर उंगलियां फेर कर खुश हुआ करते थे । जिनमें से कुछ शार्प शूटर बन जाते थे और कुछ हो जाते थे माहिर रणनीतिज्ञ । थोड़े समय बाद वे बाजार-उजार में रंगदारी टैक्स वसूलना भी शुरु कर देते थे । (जो है सो कि, पृ 18)
शार्प शूटरों की इस फसल नें बिहार में कई प्रकार के कामों में अविस्मरणीय भूमिका निभाई । रंगदारी के अपने मूल धंधे के अलावा अपहरण, टेंडर वार, दुश्मनी, बूथ कैप्चरिंग, चुनावी हिंसा सभी कार्यों में तत्परता से सहयोग दिया । कमर में कटुआ खोंस कर चलने का फैशन जो अभी तक बरकरार है और हीरो होंडा छिनाई, फिरौती वसूली के नए व्यवसायों को उर्जा प्रदान कर रहा है, उस सामंती और हिंसक बिहार का चेहरा है जहां विमर्श और कानून की भाषा नहीं चलती । इसलिए शार्प शूटरों को पालना अस्तित्व का प्रश्न बन जाता है । लठैतों की परंपरा तो पहले भी बिहार में रही है लेकिन बाहुबली नेताओं के चुनाव जीतने और संगठित दबंगई की शुरुआत के बाद ही हिंसा और हत्याओं का सिलसिला शुरु हुआ । इन हत्याओं के बाद माओवाद की भूमिका के बारे में अटकलें लगाने का दौर भी चलता रहा । हालांकि इन दोनों परिघटनाओं को अलगाया जाना जरूरी था क्योंकि चुनावी राजनीति में शक्ति प्रदर्शन करने वाले बाहुबली नेताओं द्वारा पोषित हथियारबंद युवाओं की फौज का का सांस्कृतिक इतिहास माओवादी हिंसा से अलग रहा है । दुश्मनी की वजहें रंगदारी न देना, आपसी गैंगवार, दूसरे ठेकेदार को टेंडर मिल जाने से लेकर बेवजह हत्या तक के कामों के प्रोपराइटर ऐसे गुट रहते थे । नेताओं का वरदहस्त प्राप्त इन अपराधी गुटों और माओवादियों द्वारा की गई हत्या जिसमें पुलिस का मुखबिर होने या सामंत, बुर्जुआ होने जैसे कारण शामिल रहा करते थे, अंतर है जिसे स्पष्ट करने की जरूरत थी ।
बोलेरो और शार्पशूटरधारी सत्तासीन राजनीतिज्ञों की हिंसा ने शौर्य और पराक्रम को बिहार की संस्कृति के संदर्भ में नए सिरे से परिभाषित किया । रंगबाज होना सम्मान की बात होने लगी । इस संस्कृति के चमकदार प्रतीक बुलेट, इंगलिस (भाषा नहीं शराब) और गाली को भी पुरानी संस्कृति की लंपट परिभाषा के उलट भारी इज्जत मिली । यह सब किया उसी उच्च वर्ग और जाति के समाज ने जो एक तरफ इन्हें शराफत के लिए खतरा बताता रहा और दूसरी तरफ इनकी मदद लेता रहा ।
लेकिन इन सबसे इतर यह ऐसी संस्कृति थी जिसने भयानक असुरक्षा बोध पैदा किया । दलितों, औरतों और उन सभी के लिए जो दबंग नहीं थे या दबंगों से रिश्ते नहीं रखते थे, यह कल्पनीय डर में जीने का काल था जिसमें कानून जैसी चीज को धता बताते हुए जी खोल कर अपराध किए गए ।
यह दबंग संस्कृति, मर्दानगी के बॉलीवुडीय आदर्शों से ओत-प्रोत थी जिसमें मुख्य भूमिका घर-परिवार के माहौल की होती थी । इससे टकराने का साहस अखबार पढने वाले ड्राइवर रामप्रवेश सहनी जैसे अपवाद ही कर सकते थे जिनके बारे में प्रचलित था कि उनका माओवादियों में उठना-बैठना है ।
गड़ी तेल से चलता है, पानी से नहीं । पइसा देना होगा । पइसा जेबी में नहीं है तो उतर जाइए बस से । फोकट का सेवा इहां नहीं होता है । आ रंगबाजी कर रहे हैं त जान जाइए कि आपसे बड़का रंगबाज हम अपने हैं ।आपसे बड़का रंगबाज हम अपने हैं, बिहार की संस्कृति बन चुका है । जममानस या मास साइकि इससे निर्धारित होती है । उबल पड़ने और फट पड़ने को तैयार मानसिकता का सटीक उदाहरण । यह सिर्फ तरियानी छपरा तक सीमित नहीं है, गांव, शहर हर जगह गैंगवार, मार-पीट, कई बार सिर्फ खौफ के लिए और ज्यादातर इसलिए ताकि दबदबा बना रहे । दबदबे की सामाजिक स्वीकार्यता ने हिंसा और मर्दवाद के मजबूत गठजोड़ को नया जीवन दिया । ऐसे दर्जनों प्रसंग किताब में हैं जो इस संस्कृति को दर्शाते हैं, चाहे वो लौंडा नाच हो या बात बात में गोली मारने की प्रवृत्ति । इस संस्कृति को और गहराई से देखना हो तो बम संकर टन गनेस के एक स्त्रीवादी पाठ की जरूरत पड़ेगी । रंगबाजी-नलकटुआ संस्कृति का उद्गम स्थल भी तो आखिर वही सामंती, पितृसत्तात्मक मानसिकता है जो सर्वत्र प्रकट हुई है ।
तरियानी छपरा की लड़कियां
जो भी हो, जानते तो तरियानी छपरा को हम राजू घिरस की नजर से ही हैं । जितना राजू घिरस ने देखा-जाना उतना ही और उस हिसाब से तरियानी छपरा आश्चर्यजनक रूप से पुरुष प्रधान नजर आता है जबकि लेखक के अनुसारगांव में औरतों की संख्या मर्दों की अपेक्षा कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा होगी
हाल ये है कि पुराने की तो बात छोड़िए, प्रेम का कखग सीखने को आतुर नए रंगरूट भी संभावित प्रेयसी को छौंड़ी संबोधित करते हैं । छौंड़ी बज्जिका में वही अर्थ रखती है जो हिंदी में लौंडिया या छोकरी । तरियानी के पुरुषों को इसे बदलने की जरूरत मालूम नहीं होती । उन्हें पता है कि आप और तुम का प्रयोग कहां करना है । इसलिए अनुपिया, एतबारी देवी जैसी दलित स्त्रियों के लिए सचेत रूप से आप का प्रयोग करते हुए और उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए भी (जो निश्चय ही माइग्रेंट छपरिया की पहचान है) असल छपरियों का मानस छुपता नहीं । दिल्ली कमाने गए सोवंश को वहां की लौगर छौंरी के सिवा और कुछ अच्छा नहीं लगता । यहां छपरा के हाईस्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों का हाल ये है कि- किसी लड़के की हिम्मत नहीं होती थी हमारी बहनों से बात करने की भी (जो है सो कि, पृ 20) इन बहनों का हाईस्कूलोपरांत कॉलेजीय जीवन नाम लिखवाने और परीक्षा देने के बाद जिस तरह बीतता है उसका वर्णन लेखक के शब्दों में-
अनीता दीदी और सुषमा दीदी अपने अपने ससुराल में परिवार संभाल रही हैं । सुबोध भैया की बेटी साधना भी ससुराल में खुशी खुशी रह रही है ।
पूरी किताब में भले घर की शरीफ लड़कियां ससुराल में घर संभाल रही हैं, उनकी शादी हो रही है या शादी की बात चल रही है या फिर भाई के लिए सामा चकेवा और झिझिया खेल रही हैं । लेखक को दुख है कि मिथिला और तिरहुत में खेला जाने वाला सामा चकेवा जैसा खूबसूरत खेल तरियानी छपरा में नहीं खेला जाता । खेला भी जाए तो क्या फर्क पड़ेगा, लफा-सुटिंग तो बदस्तूर जारी रहेगी । आपसी सहमति से बनाए गए शारीरिक संबंध यानी लफा-सुटिंग के अलावे जबरन बनाए गए संबंधों का विवरण नहीं दिया गया है ।
तरियानी छपरा की बड़ी आधी आबादी में मात्र एक औरत ने वकालत की पढ़ाई की और वह कीर्तिमान आज तक सुरक्षित है । लेकिन इससे ज्यादा आश्चर्यजनक उम्रदराज बुआ का बुढ़ापे में डीलरई का कारोबार करना है । उसी तरह बच्चा दर्जी की बहन हैं जो श्रृंगार प्रसाधन बेचती हैं । मुखिया चुनाव लड़ने वाली दलित महिला एतबारी देवी के परिवार की स्थिति अपने आप में पूरा विमर्श है ।
एतबारी छपरा के जागरूक नागरिकों में से एक हैं । कर्मठ और संवेदनशील ! उन्हें तरियानी छपरा की वैसी प्रथम दलित मां होने का गौरव प्राप्त है जिनकी सारी संताने पढ़ी-लिखी हैं और जिनके बेटों ने आरक्षण का लाभ लेने की योग्यता जीत ली है ।(जो है सो कि, पृ 22)
 इन अपवादों को छोड़ दें तो तरियानी की आम औरतें यानी गरीब पत्ता बुहारने वालियां जबर्दस्ती का शिकार होती हैं और तरियानी छपरा के पुरुष निर्द्वंद्व भाव से मां-बहन की गालियां बरसाते हैं ।
एक तरफ रिंगटोन गायब हो जाने पर मोबाइल वाइब्रेशन मोड में डाल कर थाली पर रखा जाता है तो दूसरी ओर कपिल सिंह जैसे लोगों की गालियां तोरा मतरिया के बूर में लाठी न पेल देबऊ रे मरलाहा के समांग जिनमें रेप कल्चर की शिनाख्त की जा सकती है ।

नव उदारवादी नीतियों के बाद का टटका यानी बम संकर टन गनेसतरियानी छपरा इसी तरह का है । भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण के बाद जो टेढ़ा-मेढ़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ है, उसने भारतीय गांवों के चरित्र को कई खांचों में बांट दिया है और ये सभी खांचे आपस में हंसी खुशी निभा रहे हैं । इसलिए हर घर में बाइक है, डीटीएच है, मोबाइल फोन है, मनचाहे ब्रांड की शराब की सुविधा है लेकिन हिंसक गालियां भी हैं, दलितों को चमार-दुसाध कहने का प्रचलन भी है ।
भारतीय समाज की संरचना ने औपनिवेशिक काल के परिवर्तनों से लेकर भूमंडलीकरण के दौर तक अगर कोई चीज सुरक्षित रखी तो अपनी विषमताएं । इसलिए भयानक गर्मी में पसीने से तर दूल्हे सूट से लैस होने लगे हैं, शर्बत की जगह कोकाकोला-पेप्सी आ गया है, गीत गाने की जगह शारदा सिन्हा के कैसेटों ने ले ली है लेकिन मल्लिक का जूठन उठाना जारी है !
यह सच है कि तरियानी छपरा में इफरात में असलहे हैं, मंदिरों का फलता फूलता कारोबार है, माओवाद का रहस्य है, हत्या, अपहरण, हिंसा सबकुछ है लेकिन इतना होने के बावजूद ताश विश्वविद्यालय का प्रशिक्षण है, झाड़ा उतरान में सहायक तिरंगा-शिखर हैं, बोतू की सवारी करने वाले बच्चे हैं, प्रमोदिया को तरकारी-भात खिलाने वाले किसोरी बाबा हैं और बम संकर टन गनेस तो हैं ही छपरिए जो है सो कि ।
बाइ-दि-बे, बम संकर के बहाने बिहार की संस्कृति पर एक राउंड जोरदार बहस हो सकती है जो है सो कि । हम तो कहते हैं कि बिगिनर्स गाइड के तरह नार्थ बिहार फॉर बिगिनर्स का एक ठो चिप्पी सटबा देना चाहिए राकेस सिंघ को किताब के उप्पर अगले संस्करन से । बाकी तो आप पहड़ के जानिए जाइएगा, सब बात हम्हीं काहे बताएं ?
कुछ ज्यादेही गप नहीं हो गया ? हम तो अपना पारी पुरा लिए, अब आप अपना राउंड सुरु किजिए ।

28 मार्च 2013

जेल से भेजी मारुती मजदूरों ने अपील


समर्थन में आज से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू 

मारुती कंपनी प्रबंधन, सरकार और प्रशासन के दमन के खिलाफ 24 मार्च से हरियाणा के कैथल जिले में चल रहा अनिश्चितकालीन धरना आज से आमरण अनशन में बदल गया है. संघर्षरत मज़दूरों ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के पक्ष में व्यापक समर्थन की अपील की है. इस मौके पर हम जेल में बंद 147 मजदूरों की और से जारी पत्र को प्रसारित कर रहे हैं...
हम मारुति सुजुकी के वो मजदूर है जिनको 18-7-2012 की दुर्घटना का इल्जाम लगाकर बिना किसी न्यायिक जांच के जेल में डाल दिया गया हैं. हम 147 मजदूर अभी भी गुडगाँव सेंट्रल जेल के सलाखों के पीछे बंध हैं. जुलाई के बाद लगभग 2500 पक्के और कच्चे कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया. पिछले 8 महीनों से हम हरियाणा और केन्द्रीय सरकार के बहुत सारे उच्च अधिकारियों, हरियाणा राज्य के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री जी को भी कई बार अपील कर चुके हैं.
लेकिन न तो हमारी कहीं सुनाई हो रही है, न ही हमें जमानत दी जा रही है. और तो और, जो हरियाणा पुलिस ने चार्जशीट कोर्ट में पेश की है, उसमें किसी गवाह का नाम नही है और वह आधी अधूरी है. हमारा लोकतान्त्रिक अधिकारो का हनन लगातार हो रहा हैं, और कानून को कंपनी मालिकों के स्वार्थ में व्यवहार किया जा रहा हैं. इस दौरान बहत से कर्मचारियों ने अपने परिवार के सदस्य के साथ-साथ बहत कुछ खो दिया है. काफी मजदूर ऐसे भी है जिनके माता-पिता नहीं हैं और पुरे परिवार का पालन पोषण का भार उन्ही पर है.
काफी ऐसे भी साथी हैं, जब उन्हें जेल में डाला गया, तब उनकी पत्नियाँ गर्भवती थी. उनकी डिलीवरी के समय भी कर्मचारियों को न तो जमानत दी गयी, न ही पे-रोल पे छुट्टी दी गयी और न ही पे-रोल कस्टडी में ही भेजा गया. परिवार में अकेली होने के कारण व पति के जेल में होने के कारण, पता नहीं किन परिस्थितियों में उनकी डिलीवरी हुई है. इसके हम निचे कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है:-
हमारे एक साथी सुमित S/O स्वर्गीय श्री छत्तर सिंह के घर में सुमित और उनकी पत्नी के अलावा कोई अन्य पारिवारिक सदस्य नहीं है. लेकिन फिर भी दिनांक 6.12.2012 को उनकी पत्नी की डिलीवरी गुडगाँव के एक अस्पताल में हुई और उनकी देखभाल के लिए सुमित को कोई भी राहत प्रदान नहीं की गई.
हमारे एक साथी विजेंद्र S/O स्वर्गीय श्री दलेल सिंह अपने परिवार का पालन पोषण करनेवाला अकेला सदस्य है. उसके घर में उसकी पत्नी व बिमार माँ है. उसकी पत्नी की डिलीवरी 10.01.2013 को झज्जर के एक अस्पताल में हुई. विजेंद्र के माँ के बिमार होने के कारण उसकी पत्नी कि डिलीवरी के समय देखभाल करनेवाला कोई नहीं था. लेकिन फिरभी विजेंद्र को पत्नी के देखभाल के लिए डिलीवरी के समय कोई राहत नहीं दी गई.
हमारे साथी रामबिलास S/O स्वर्गीय श्री सीलक राम की दादीमा 26.02.2013 को रामबिलास के वियोग में बिमार हो कर स्वर्ग सिधार गई, क्योकि वह उसकी दादीमा का बहुत लाडला था. और तो और उसे दाह-संस्कार में सामिल होने या दादीमा के अंतिम दर्शन करने के लिए पेरोल कस्टडी में भी नहीं ले जाया गया. कुछ ही दिनों के बाद जब उसकी पत्नी कि डिलीवरी होनी थी तो उसकी जमानत या छुट्टी के लिए याचिका लगाई गई तब भी उसे कोई राहत नहीं दी गई. इससे उसके ऊपर बड़ा मानसिक आघात हुआ है.
हमारे एक साथी प्रेमपाल S/O श्री छिद्दीलाल के उपर पुरे परिवार के पालन पोषण का भार है, वह जब जेल में आया था तब उसके परिवार की रोजी-रोटी उसी के बलबूते पर टिकी हुई थी. परन्तु उसके जेल में आने के बाद उसकी इकलौती बेटी जो मात्र दो साल की थी, जो अपने पापा के वियोग में बीमार होकर पापा-पापा करते हुए भगवान को प्यारी हो गई. ये जख्म अभी हरा ही था कि तभी कुछ दिन बाद प्रेमपाल की माँ बेटे के वियोग में व अपनी लाडली पोती के वियोग में बीमार होकर स्वर्ग सिधार गई. हद तो तब हो गई जब उसकी एक सप्ताह कि छुट्टी भी ख़ारिज कर दी गई व उसे मात्र एक घंटे के लिए दाह-संस्कार होने के अगले दिन पे-रोल कस्टडी में भेजा गया. जबकि गुडिया व माताजी के देहांत के दुःख में घर में अकेली उसकी पत्नी भी बीमार होने के कारण अस्पताल में दाखिल करवानी पड़ी जो अभी भी बिमार है तथा उसकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं है. और इस कारण प्रेमपाल बहुत अधिक मानसिक दबाव में है.
हमारे एक साथी राहुल S/O श्री विनोद रतन जो घर में अपने माँ-बाप का एक इकलौता बेटा है व उसकी एक ही बहन है. उसकी बहन कि शादी दिनांक 16.11.2012 को हुई. परन्तु उसे कस्टडी में भी अपनी बहन के शादी के कन्यादान के लिए नहीं भेजा गया जिसके कारण घर की इकलौती बेटी की शादी होते हुए भी घर में मातम जैसा माहौल रहा और राहुल मानसिक दबाव में है.
हमारे एक साथी सुभाष S/O श्री लाल चंद जो कि अपनी दादीमा का बहुत लाडला था. जब वह जेल में आया तो उसके वियोग में उसके दादीमा खाना-पीना छोड़ दिया व कुछ दिन में ही अपने पोते को याद करते हुए स्वर्ग सिधार गई. परन्तु सुभाष को दाहसंस्कार या अंतिम दर्शन के लिए पे-रोल कस्टडी में भी नहीं भेजा गया.
ऐसी और कितनी ही दुख भरी घटनाएँ है, जिन्हें लिखते लिखते एक पूरी किताब बन जाये .

हमारे बारे में: परिचय, परिवार, नौकरी

हम सभी किसान या मजदूरों के बच्चे हैं. माँ-बाप ने हमे बड़ी मेहनत से खून-पसीना एक करके 10वी-12वी या ITI शिक्षा दिलवाई व इस लायक बनाया कि इस जीवन में कुछ बन सके व अपने परिवार का सहारा बन सके.
हम सभी ने कंपनी द्वारा भर्ती प्रक्रिया में लिखित व् मौखिक परीक्षायों को पास करके व् कंपनी की जो जो भी नियम व शर्ते थी, उनपर खरे उतर कर मारुति कंपनी को ज्वाइन किया. जोइनिंग करने से पहले, कंपनी ने सभी प्रकार से हमारी जांच करवाई थी, जैसे- घर की थाने तहसील की व क्रीमिनल जांच करवाई गई थी! पिछले समय का हमारा कोई क्रिमिनल रिकार्ड नहीं हैं.
जब हमने कंपनी को ज्वाइन किया तब, कंपनी का मानेसर प्लांट निर्माणाधीन था. हमने अपने कड़ी मेहनत व लगन से अपने भविष्य को देखते हुए, कंपनी को एक नयी उचाई पर ले गए. जब पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी छायी हुई थी, तब हमने प्रतिदिन दो घंटे एक्स्ट्रा टाइम देकर साल में 10.5 लाख गाड़ियों का निर्माण किया था. कंपनी की लगातार बढ़ते मुनाफा का हम ही पैदावार रहे हैं, जबकि आज हमे अपराधी और खूनी ठहराया जा रहा हैं.
हम लगभग सभी मजदूर गरीब मजदूर-किसान परिवारों से हैं जिनकी जीविका हमारी नौकरी पर ही निर्भर हैं. हमनें अपने व अपने परिवार के भविष्य के सपने बुन रखे थे, कि हमारा भी अपना घर होगा. भाई-बहन व बच्चो को अच्छी शिक्षा दिलाएंगे, ताकि उनका भविष्य भी उज्जवल हो सके व माता-पिता जिन्होंने इतने कष्ट उठाकर हमें इस लायक बनाया कि हम अपने पैरों पे खड़े हो सकें, उनका जीवन आरामदायक बनायेंगे.

कंपनी में हमारा हर प्रकार से शोषण हो रहा था, जैसे कि-

किसीको भी तबियत ख़राब होने पर डिस्पेंसरी न जाने देना व बिमारी की हालत में भी पूरा काम करवाना.

यहाँ तक कि टॉयलेट भी नहीं जाने दिया जाता था. केवल लांच या टि-टाइम में ही जाने दिया जाता था.

अधिकारीयों का कर्मचारियों के साथ भद्दा व्यवहार व गालिया देना और कभी कभी तो दंड देने के लिए थप्पड़ मारना व मुर्गा बना देना.

यदि किसी कर्मचारी के साथ या उसके परिवार के किसी सदस्य के साथ दुर्घटना या कोई समस्या होने पर या यहाँ तक की किसी सम्बन्धी की मृत्यु होने पर यदि कर्मचारी दो या चार दिन की छुट्टी लेता था, तो उसकी सेलरी का आधा भाग, लगभग नौ हज़ार रुपये काट लिया जाता था.

इस प्रकार शोषण के कारण कर्मचारियों को यूनियन कि जरूरत महसूस हुई. कंपनी यूनियन के खिलाफ थी, जिनके कारण हमारी साल 2011 में तीन हड़ताल हुई, जिसमे हमारे तीस साथियों को नौकरी से निकाल दिया गया. लेकिन आख़िरकार हमने फरवरी 2012 में यूनियन का रजि. करवाया, जिसमे हमारी मदद एच.आर. मैनेजर स्वर्गीय श्री अवनिश कुमार देव ने कि थी. हमारी मदद करने के कारण कंपनी देव जी से बहुत खफा हो गई थी, जिसके चलते देव जी ने नौकरी से अपना इस्तीफा दे दिया था. कंपनी ने पोल खुलने के डर से उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया था. यूनियन को तोडवाने व देव जी को रास्ते से हटाने के लिए एक योजनाबंध तरीके से बाउन्सरों व गुंडों को बुलाकर 18 जुलाई 2012 की ‘दुर्घटना’ को अंजाम दिया.

अबकी स्थिति

हम 147 मजदूरों को बिना किसी न्यायिक जाँच किये जेल में डाल दिया गया. हमारा जेल में बंध रहते 8 महीनें से ज्यादा समय हो चुका है. यहाँ जेल में हम बहुत मानसिक दबाव झेल रहे है. कई लोगों को टी. बी., पिलिया व किसीको दौरे पड़ रहे है. और बहुत सारे कर्मचारियों को अन्य काफी बिमारियों का सामना करना पड़ रहा है.

हमारे लगभग सभी परिवारों में कमाने वाले केवल हम थे जो जेल में बंध हैं. जिसके कारण परिवारों को भूखे मरने की नोबत आ गई है. औरोतों और बच्चों कि शिक्षा तक भी छुट गई है जो कि उनका मौलिक अधिकार है. हमारा और हमारे परिवार का भविष्य अंधकार हो गया है. हमारे परिवार के सभी सदस्य भी मानसिक तौर पर बहुत परेशान है. हमे डर हैं कि वो परेशानी के कारण कोई गलत कदम न उठाये.

जेल से बाहर कर्मचारियों कि मौजूदा स्थिति 

147 कर्मचारियों को जेल में डालने के साथ साथ कंपनी ने लगभग 2500 कच्चे और पक्के कर्मचारियों की बिना किसी न्यायिक जाँच के नौकरी से निकाल दिया और वह बेरोजगार हो गए. उनकी परिवारों की स्थिति भी गंभीर है. यहा तक कि उनके पास कोई एक्सपीरियंस डोकुमेंट प्रूफ नहीं है और उनका पूरा कैरियर बर्बाद हो चूका है और उनमे से जो भी कोई हमारी पैरवी करने के लिए आगे आता है, उसे भी उठाकर जेल में डाल दिया जाता है (जैसे साथी ईमान खान के साथ किया गया, जिसका नाम कोई एफ.आई.आर., चार्जशीट या एस.आई.टी. रपट में नहीं था; 65 मजदूरों के ऊपर अभी भी गैर-जमानती वारंट जारी हैं). जेल में बंध कर्मचारियों और बाहर बेरोजगार कर्मचारियों के पास अपनी जीविका चलाने का कोई भी साधन नहीं है, जिसके चलते सभी मानसिक दबाव में है. लेकिन इन हालातों के बीच भी जेल के बहार के हमारे साथी जो न्याय के लिए संघर्ष जारी रखे हैं, उससे हमे इन सलाखों के पीछे भी आशा और उर्जा मिलती हैं. आठ महीने के उपर चल रहे इस संघर्ष में हमे देश के अलग अलग प्रान्त से मजदूर, मेहनतकश और आम जनता के समर्थन के खबरे आती रही हैं, जो भी हमे उम्मीद देती रही हैं.

हम अपनी जाँच की मांगों को लेकर सरकार के लगभग सभी मंत्रियों से मिल चुके हैं. राज्य उद्योग मंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री से भी न्याय की गुहार लगा चुके हैं, लेकिन सरकार हरियाणा के मजदूर-कर्मचारियों की बजाये कंपनी मालिकों की ही तरफ झुकी हुई है. हम अंतिम बार सरकार से अपील करते है कि मरने या मारने के इस मुकाम तक पहुचने से पहले हमारे साथ न्याय हों. साभार- जनज्वार.

फांसी तो हो गई किन्तु यह तो पता चले कि संसद पर हमला किया किसने था?


डॉ संदीप पाण्डेय 
(नोटः हाल ही में लियाकत शाह के मामले से साफ हो गया है कि किस तरह पुलिस श्रेय लेने के लिए आत्मसमर्पण किए हुए उग्रवादियों को फर्जी मामलों में फंसा कर आतंकवादी के रूप में पेश करती है। यदि जम्मू-कश्मीर पुलिस और मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्लाह ने खुल कर लियाकत के पक्ष में भूमिका नहीं ली होती तो सारा देश यही मानता कि लियाकत होली के समय दिल्ली में विस्फोट करने आया था। यह भी सवाल उठता है कि पुरानी दिल्ली में बरामद हथियार-बारूद किसने रखे थे? हमारा मानना है कि अफजल गुरु का मामला लियाकत जैसा ही था। एस.टी.एफ. और दिल्ली पुलिस के विशेष सेल ने उसे बलि का बकरा बना दिया। इस देश में पुलिस अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए अन्य मामलों में भी निर्दोष लोगों को फंसाती रही है।)

अफजल गुरु को फांसी हो गई। अफजल को फांसी की सजा इसलिए दी गई थी कि राष्ट्र की सामूहिक चेतना संतुष्ट हो सके। राष्ट्र की सामूहिक चेतना संतुष्ट हो गई होगी। राष्ट्रवादी लोगों ने नाच-गा कर, एक-दूसरे को मिठाई खिला कर, पटाखे चला कर खुशियां मनाईं। शायद सजा सुनाने के पीछे उद्देश्य भी यही था कि एक अध्याय पूरा हो।
किंतु एक सवाल अनुत्तरित रह जाता है। संसद पर हमले की साजिश आखिर रची किसने थी? जो पांच कड़ी सुरक्षा भेद कर संसद भवन तक पहुंच गए थे वे तो मौके पर ही मारे गए। जांच एजेंसियों के अनुसार साजिशकर्ता हैं मसूद अज़हर, गांजी बाबा और तारिक अहमद जो पाकिस्तान में हैं। जाहिर है कि इन्हें अभी तक गिरफ्तार नहीं किया जा सका है।
फिर अफजल कौन था और संसद हमले में उसकी क्या भूमिका थी? आइए देखें उसका और उसकी पत्नी का पक्ष जो पत्र रूप में उसकी सजा से पहले सार्वजनिक हो चुका था।
अफजल गुरु को फांसी की सजा हुई मात्र उस इकबालिया बयान के आधार पर जो उसने विशेष पुलिस सहायक पुलिस आयुक्त राजबीर सिंह के दबाव में मीडिया के सामने दिया। उसे यह धमकी दी गई थी कि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसके परिणाम उसकी पत्नी और बच्चों के लिए सही नहीं होंगे।
अफजल गुरु जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की ओर 1990 में आकर्षित हुआ और प्रशिक्षण के लिए पाकिस्तान गया। किन्तु तीन माह ही रहने के बाद वह लौट आया क्योंकि उसे इन संगठन के नेताओं की बातें, खासकर पाकिस्तान के पक्ष में, पसंद नहीं आईं। उसने लौटकर सीमा सुरक्षा बल के सामने आत्मसमर्पण किया। उसे जल्दी ही समझ में आया कि आत्मसमर्पित उग्रवादी के रूप में रहना आसान नहीं। उसे समय समय पर सेना, बी.एस.एफ. व एस.टी.एफ. जैसी सुरक्षा एजेंसियां परेशान करती रहती थीं। उसका परिवार सुरक्षित रहे इसलिए अफजल गुरु जैसे आत्मसमर्पण किए हुए उग्रवादी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा बताए गए सही या गलत काम करने को मजबूर थे। जो पैसे दे सकते थे उन्हें परेशान नहीं किया जाता। यानी यहां भी भ्रष्टाचार। एक बार पारमपोर पुलिस स्टेशन के पुलिसकर्मी अकबर ने उससे पांच हजार रुपए मांगे थे और फिरौती न मिलने की सूरत में उसे नकली दवाएं व चिकित्सीय उपकरण बेचने के आरोप में गिरफ्तार किए जाने की धमकी दी गई। अफजल के मुदकमे के दौरान अकबर भी गवाह के रूप में न्यायालय में पेश हुआ और अफजल के खिलाफ बयान दिया। अफजल ने 1997-98 में दवाओं और उपकरणों का व्यापार कमीशन के आधार पर शुरू किया था चूकिं आत्मसमर्पित उग्रवादियों को नौकरी नहीं मिल सकती थी। इससे अफजल की चार-पांच हजार प्रति माह की कमाई हो जाती थी। वर्ना एस.टी.एफ. के साथ विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में काम करना पड़ता जिसमें आतंकवादियों के हाथ मारे जाने का खतरा रहता था। अफजल को एस.पी.ओ. को भी 300-500 रुपए घूस देनी पड़ती थी ताकि वे उसे परेशान न करें।
एक दिन सुबह 10 बजे जब वह दो माह पुराने स्कूटर से जा रहा था तो एस.टी.एफ. उसे पकड़ कर पलहल्लन शिविर ले गई। यहां उसे काफी प्रताड़ित किया गया। फिर उसे हमहामा शिविर ले गए। यहां भी यातनाओं का दौर चलता रहा। एस.टी.एफ. उससे रुपयों की मांग कर रही थी जिसके लिए उसे अंततः उसे अपनी पत्नी के जेवर बेचने पड़े। कुल मिलाकर 80 हजार रुपए नकद और अपनी नई स्कूटर से उसे हाथ धोना पड़ा। हरेक प्रताड़ना के बाद स्थिति ये होती थी कि कई दिनों तक इलाज कराना पड़ता था।
1990 से 1996 के दौरान अफजल ने दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई की थी और उस दौरान ट्यूशन भी पढ़ाता था। बड़गाम के एस.एस.पी. अशफाक हुसैन के साले अल्ताफ हुसैन ने उसे अपने दो बच्चों को पढ़ाने के लिए कहा। एक दिल अल्ताफ अफजल को डी.एस.पी. दरविंदर सिंह के पास ले गया। उससे कहा गया कि उसे मोहम्मद नामक एक आदमी, जो गैर-कश्मीरी था, को दिल्ली ले जाना है और उसे वहां किराए का घर दिलवाना है। वहां कार खरीदवाने से लेकर उसने मोहम्मद की सभी प्रकार से मदद की। एक दिन मोहम्मद ने उसे पैंतीस हजार रुपए देकर कश्मीर वापस जाने के लिए मुक्त कर दिया। इस बीच अफजल ने दिल्ली में आकर अपनी पत्नी और चार वर्ष के बेटे गालिब के साथ रहने के फैसले के साथ एक कमरा भी इंदिरा विहार में किराए पर ले लिया। उसने चाभियां मकान मालकिन को सौंपते हुए उनसे कहा कि वह शीघ्र परिवार के साथ लौटेगा।
संसद हमले के बाद कश्मीर पहुँच कर जब अगले दिन वह सोपोर की बस पकड़ने के लिए बस स्टैण्ड पर खड़ा था तो श्रीनगर पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया और पारमपोरा पुलिस थाने ले गई। उससे पैंतीय हजार रुपए ले लिए गए। एस.टी.एफ. मुख्यालय ले गए। वहां से दिल्ली ले जाया गया। विशेष सेल ने यहां उसको प्रताड़ि़त करना शुरू किया।
विशेष सेल द्वारा आयोजित प्रेस वार्ता में जब उसने यह कह दिया कि सैयद अब्दुर रहमान गिलानी निर्दोष हैं तो ए.सी.पी. राजबीर सिंह मीडिया के सामने उसपर बहुत नाराज हुए और मिडिया को उस बयान को न दिखाने या छापने का आग्रह किया।
अफजल को यह समझाया गया कि एस.टी.एफ. का सहयोग करने में ही उसकी भलाई है। दिल्ली में उसे उन जगहों पर ले जाया गया जहां से मोहम्मद ने तमाम चीजें खरीदी थीं। फिर उसे कश्मीर ले गए और वहां से वापस दिल्ली। उससे कई सादे कागजों पर हस्ताक्षर कराए गए।
अफजल को न्यायालय में अपनी बात कहने का मौका नहीं मिला। न्यायाधीश ने उससे कहा कि अंत में उसे मौका दिया जाएगा लेकिन अदालत ने उसके बयान दर्ज नहीं किए और न ही दर्ज किए बयानों को उसे दिखाया गया। यदि सिर्फ उसे किए गए फोन कॉल का ही रिकॉर्ड निकाला जाता तो पता चल जाता कि एस.टी.एफ. ने उसे कितने फोन किए। उच्च न्यायालय का फैसला आने तक उसके मुकदमे की कैसी सुनवाई हो रही है उसे इसका कोई अंदाजा ही नहीं था।
हो सकता है अफजल ने अपने को बचाने के लिए उपर्यक्त बात कही हों। किन्तु यदि ये बातें सही हैं तो बड़ी गम्भीर हैं। एक तो अफजल का संसद हमले से सिर्फ इतना सम्बंध था कि उसने मोहम्मद नामक एक आदमी की मदद की जिसकी कोई भूमिका संसद हमले में प्रतीत होती है। यह मोहम्म्द कौन है? सबसे गम्भीर बात यह है कि उसने मोहम्मद की मदद एस.टी.एफ. के कहने पर की जिस बात को न्यायालय ने नहीं माना। क्या यह न्यायोचित नहीं है कि यदि अफजल ने यह बात कही है तो इस कोण की भी जांच हो कि संसद हमले में एस.टी.एफ. की कोई भूमिका थी या नहीं? एस.टी.एफ. की भी जिम्मेदारी है कि एक निष्पक्ष जांच के उपरांत अपनी भूमिका साफ करे।
यदि हम ऐसा नहीं करते तो संसद हमले की साजिश की तह तक कभी नहीं पहुचेंगे और इस तरह के हमलों का खतरा बना रहेगा। अपनी सुरक्षा के लिए यह सच पता लगाना जरूरी है कि संसद पर हमले की साजिश किसने की?

लेखक, मगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं.  ईमेल: ashaashram@yahoo.com

17 मार्च 2013

अफजल गुरु की याद में

भारत के फासीवादी राज्य द्वारा मो. अफजल गुरु की कानूनी हत्या के बाद आई प्रतिक्रियाओं में सबसे ज्यादा पढ़ी गई प्रतिक्रियाएं अरुंधति राय की हैं. उन्होंने लगातार इस मुद्दे पर अपना विरोध दर्ज कराया है. और सबसे मजबूत दलीलों के साथ दर्ज कराया है. 2006 में संसद पर हमले के मामले के विभिन्न पहलुओं पर लेखों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ था- 13 दिसंबर: ए रीडर. उसमें एक लेख और उसकी प्रस्तावना अरुंधति ने ही लिखी थी. यह संग्रह अपने नए रूप में और कुछ नई सामग्री के रूप में फिर से प्रकाशित हो रहा है. इसके लिए अरुंधति ने एक नई प्रस्तावना लिखी है. इसका अनुवाद जितेन्द्र कुमार ने किया है, जिसे हाशिया पर संपादित करके पोस्ट किया जा रहा है.


अफजल गुरु की याद में

नई दिल्ली के जेल में ग्यारह साल के बाद, जिसमें से ज्यादातर वक्त एकांत में कालकोठरी में मृत्यु दंड की प्रतीक्षा में बीता था, फरवरी की एक साफ सुथरी सुबह, अफजल गुरु को फांसी पर लटका दिया गया। भारत के एक पूर्व सॉलीसीटर जेनरल व सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता ने इसे हड़बड़ी में छुपाकर लिया गया फैसला बताया है; फांसी दिए जाने का यह ऐसा फैसला है, जिसकी वैधता पर गंभीर प्रश्न चिह्न लग गए हैं।

जिस व्यक्ति को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने तीन उम्र कैद और दो मृत्यु दंड की सजा तजवीज की हो, और जिसे लोकतांत्रिक सरकार ने फांसी पर लटकाया हो, उस प्रक्रिया पर वैधानिक प्रश्न कैसे लगाया जा सकता है? क्योंकि फांसी पर लटकाए जाने के सिर्फ दस महीने पहले, अप्रैल 2012 में सुप्रीम कोर्ट में वैसे कैदियों की याचिका पर कई बैठकों में सुनवाई पूरी हुई थी जिनमें कैदियों को बहुत ज्यादा समय तक जेल में रखा गया है। उन कई मुकदमों में एक मुकदमा अफजल गुरु का भी था जिसमें सुप्रीम कोर्ट के बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था। लेकिन अफजल गुरु को फैसला सुनाए जाने से पहले ही फांसी दे दी गई है।

सरकार ने अफजल के परिवार को उनका शरीर सौंपने से मना कर दिया है। उनका अंतिम संस्कार किए बगैर, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के संस्थापक मकबूल भट्ट की कब्र की बगल में दफना दिया गया, जो कश्मीर की आजादी के सबसे बड़े प्रतीक थे। और इस तरह तिहाड़ जेल के चहारदीवारी के भीतर ही दूसरे कश्मीरी की लाश अंतिम रस्म अदा किए जाने की प्रतीक्षा कर रही है। उधर कश्मीर में मजार-ए-शोहदा के कब्रिस्तान में एक कब्र लाश के इंतजार में खाली पड़ी है। जो लोग कश्मीर को जानते-समझते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि कैसे कल्पित, भूमिगत आदमकद कोटरों ने अतीत में कितने चरमपंथी हमलों को जन्म दिया है।

हिन्दुस्तान में, ‘कानून का राज कायम होने’ का ढ़िंढोरा पीटे जाने का जश्न थम गया है, सड़कों और गलियों में गुंडों द्वारा फांसी पर चढ़ाए जाने की खुशी में मिठाई बंटनी बंद हो गयी है (आप कितनी देर बिना चाय ब्रेक के मुर्दे के पोस्टर को फूंक सकते हैं?), कुछ लोगों को फांसी की सजा दिए जाने पर आपत्ति जताने और अफजल गुरु के मामले में निष्पक्ष सुनवाई (फेयर ट्रायल) हुई या नहीं, कहने की छूट दे दी गई। वह बेहतर और सामयिक भी था, एक बार फिर हमने ज़मीर से लबालब जनतंत्र देखा।
बस उन बहसों को नहीं देख सके जो छह साल पहले ही चार साल देर से शुरू हुई थीं। सबसे पहले यह किताब 2006 के दिसबंर में छपी थी जिसके पहले भाग के लेखों में विस्तार से सुनवाई के बारे में चर्चा हुई है। इसमें कानूनी विफलता, ट्रायल कोर्ट में उन्हें वकील नहीं मिलने की बात, कैसे सूत्रों के तह तक नहीं जाया गया और उस समय मीडिया ने कितनी घातक भूमिका निभायी।

इस नए संस्करण के दूसरे खंड में फांसी दिए जाने के बाद लिखे गए लेखों और विश्लेषणों का एक संकलन है। पहले संस्करण के प्राक्कथन में कहा गया है, 'इसलिए इस पुस्तक से एक आशा जगती है' जबकि यह संस्करण गुस्से में प्रस्तुत किया गया है।

इस प्रतिहिंसक समय में, अधीरता से कोई भी यह पूछ सकता है: विवरणों और कानूनी बारीकियों को छोड़िए। क्या वे दोषी थे या वे दोषी नहीं थे? क्या भारत सरकार ने एक निर्दोष व्यक्ति को फांसी पर लटका दिया है?

जो भी व्यक्ति इस किताब को पढ़ने का कष्ट करेगा, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि अफजल गुरु के ऊपर जो आरोप लगाए गए थे, उनके लिए वे दोषी साबित नहीं हुए थे- भारतीय संसद पर हमला रचने के षड्यंत्रकारी या फिर जिसे फैशन में 'भारतीय लोकतंत्र पर हमला' भी कहा जाता है, (जिन्हें मीडिया लगातार गलत तरीके से अपराधी ठहराता रहा है जबकि अभियोजन पक्ष द्वारा उन पर हमला करने का आरोप नहीं लगाया गया और न ही उन्हें किसी का हत्यारा कहा गया। उनके ऊपर हमलावरों का सहयोगी होने का आरोप था)। सुप्रीम कोर्ट ने इस अपराध के लिए उन्हें दोषी पाया और उन्हें फांसी की सजा दी। अपने उस विवादास्पद फैसले में, जिसमें ‘समाज के सामूहिक विवेक को तुष्ट करने के लिए’ किसी को फांसी पर लटका दिए जाने की बात कही गई है।  उनके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था, केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे।

आतंकवाद विशेषज्ञ और अन्य विश्लेषक गौरव के साथ बता रहे हैं कि ऐसे मामलों में 'पूरा सच' हमेशा ही मायावी होता है। संसद पर हमले के मामले में तो बिल्कुल  यही दिखता है। इसमें हम 'सच' तक नहीं पहुंच पाए हैं। तार्किक रूप से, न्यायिक सिद्धांत के अनुसार 'उचित संदेह' की बात उठनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक आदमी को जिसका अपराध महज ‘उचित संदेह से परे’ स्थापित नहीं हो पाया, फांसी पर लटका दिया गया।

चलिए हम मान लेते हैं कि भारतीय संसद पर हमला हमारे लोकतंत्र पर हमला है। तो क्या 1983 में तीन हजार ‘अवैध’ बांग्लादेशियों का नेली जनसंहार भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? या 1984 में दिल्ली की सड़कों पर तीन हजार से अधिक सिखों का जनसंहार क्या था? 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था क्या? 1993 में मुंबई में शिवसैनिकों के नेतृत्व में हजारों मुसलमानों की हत्या भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? गुजरात में 2002 में हुए हजारों मुसलमानों जनसंहार क्या था? वहां प्रत्यक्ष और परिस्थितिजन्य, दोनों प्रकार के सबूत हैं जिसमें बड़े पैमाने हुए जनसंहार में हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं के तार जुड़े हैं। लेकिन ग्यारह साल में क्या हमने कभी इसकी कल्पना तक की है कि उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है, फांसी पर चढ़ाने की बात को तो छोड़ ही दीजिए। खैर छोड़िए इसे। इसके विपरीत, उनमें से एक को- जो कभी किसी सार्वजनिक पद पर नहीं रहे- और जिनके मरने के बाद पूरे मुंबई को बंधक बना दिया था, उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। जबकि दूसरा व्यक्ति अगले आम चुनाव में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है।

इस सर्द, बुदजिली भरे रास्ते में, खाली, अतिरंजित इशारों की नकली प्रक्रिया के तहत भारतीय मार्का  फासीवाद हमारे उपर आ खड़ा हुआ है।

श्रीनगर के मजार-ए-शोहदा में, अफजल की समाधि के पत्थर पर (जिसे पुलिस ने हटा दिया था  और बाद में जनता के आक्रोश की वजह से फिर से रखने के लिए बाध्य हुई) लिखा है:

‘देश का शहीद, शहीद मोहम्मद अफजल, शहादत की तिथि 9 फरवरी 2013, शनिवार। इनका नश्वर शरीर भारत सरकार की हिरासत में है और अपने वतन वापसी का इंतजार कर रहा है।’

हम क्या कर रहे हैं, यह जानते हुए भी अफजल गुरु का एक पारंपरिक योद्धा के रूप में वर्णन करना काफी कठिन होगा। उनकी शहादत कश्मीरी युवकों के अनुभवों से आती है जिसके गवाह दसियों हजार साधारण युवा कश्मीरी रहे हैं। उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जाती है, उन्हें जलाया जाता है, पीटा जाता है, बिजली के झटके दिए जाते हैं , ब्लैकमेल किया जाता है और अंत में मार दिया जाता है।( उन्हें क्या-क्या यातनाएं दी गई उसका विवरण आप परिशिष्ट तीन में पढ़ सकते हैं)। जब अफजल गुरु को अति गोपनीय तरीके से फांसी पर लटका दिया गया, उन्हें फांसी पर लटकाए जाने की प्रक्रिया को बार-बार प्रहसन के रूप में पर्दे पर दिखाया गया। जब पर्दा नीचे सरका और रोशनी आयी तो दर्शकों ने उस प्रहसन की तारीफ की। समीक्षाएँ मिश्रित थी  लेकिन जो कृत्य किया गया था, वह सचमुच ही बहुत घटिया था।

'पूर्ण' सच यह है कि अब अफजल गुरु मर चुके हैं और अब शायद हम कभी नहीं जान पाएंगे कि भारतीय संसद पर हमला किसने किया था। भारतीय जनता पार्टी से उनके भयानक चुनावी नारे को छीन लिया गया है: 'देश अभी शर्मिंदा है, अफजल अभी भी जिंदा है' । अब भाजपा को एक नया नारा तलाशना होगा।

गिरफ्तारी से बहुत पहले अफजल गुरु एक इंसान के रूप में पूरी तरह टूट चुके थे। अब जब कि वे मर चुके हैं, उनकी लाश पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की जा रही है। लोगों के गुस्से को भड़काया जा रहा है। कुछ समय के बाद हमें उनकी चिट्ठियां मिलेगीं, जो उन्होंने कभी नहीं लिखीं, कोई किताब मिलेगी, जो उन्होंने नहीं लिखी । साथ ही, कुछ ऐसी बातें भी सुनने को मिलेंगी जो उन्होंने कभी नहीं कहीं। ये बदसूरत खेल बदस्तूर जारी रहेगा लेकिन इससे कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि जिस तरह वे जीते थे और जिस तरह वे मरे, वह कश्मीरी यादों में लोकप्रिय रहेगा, एक नायक के रूप में, मकबूल भट्ट के कंधे से कंधा मिलाकर और उनकी मिली-जुली आभा से हिल-मिल कर।

हम बाकी लोगों के लिए, उनकी कहानी तो बस ये है कि भारतीय लोकतंत्र पर वास्तविक हमला कश्मीर में सैनिकों के बल पर भारतीय साम्राज्य है।

मोहम्मद अफजल गुरु की रूह को सुकून मिले।