29 अप्रैल 2013

'कबीर कला मंच' के कलाकारों की रिहाई के लिए


'कबीर कला मंच' के कलाकारों की रिहाई के लिए संस्कृतिकर्मियों-बुद्धिजीवियों का
प्रतिवाद मार्च
2 मई 2013, 2 बजे दिन, श्रीराम सेंटर (मंडी हाउस) से महाराष्ट्र सदन


शीतल साठे और सचिन माली को रिहा करो!                                            
संस्कृतिकर्मियों पर राज्य दमन बंद करो!!


साथियो,

पुणे (महाराष्ट्र) की चर्चित सांस्कृतिक संस्था कबीर कला मंचके संस्कृतिकर्मियों पर पिछले दो वर्षों से राज्य दमन जारी है। मई 2011 में एटीएस (आतंकवाद निरोधक दस्ता) ने कबीर कला मंच के सदस्य दीपक डेंगले और सिद्धार्थ भोसले को दमनकारी कानून यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया था। दीपक डांगले और सिद्धार्थ भोसले पर आरोप लगाया गया कि वे माओवादी हैं और जाति उत्पीड़न और सामाजिक-आर्थिक विषमता के मुद्दे उठाते हैं। इस आरोप को साबित करने के लिए उनके द्वारा कुछ किताबें पेश की गईं और यह कहा गया कि कबीर कला मंच के कलाकार समाज की खामियों को दर्शाते हैं और अपने गीत-संगीत और नाटकों के जरिए उसे बदलने की जरूरत बताते हैं। राज्य के इस दमनकारी रुख के खिलाफ प्रगतिशील-लोकतांत्रिक लोगों की ओर से दबाव बनाने के बाद गिरफ्तार कलाकारों को जमानत मिली। लेकिन प्रशासन के दमनकारी रुख के कारण कबीर कला मंच के अन्य सदस्यों को छिपने के लिए विवश होना पड़ा था, जिन्हें फरारघोषित कर दिया गया था। विगत 2 अप्रैल को कबीर कला मंच की मुख्य कलाकार शीतल साठे और सचिन माली को महाराष्ट्र विधानसभा के समक्ष सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद गर्भवती शीतल साठे को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया और सचिन माली को पहले एटीएस के सौंपा गया, बाद में न्‍यायिक हिरासत में भेज दिया गया। उन पर भी वही आरोप हैं, जिन आरापों के मामले में दीपक डेंगले और सिद्धार्थ भोसले को जमानत मिल चुकी है।
साथियो, इस देश में साम्राज्यवादी एजेंसियां और सरकारी एजेंसियां संस्कृतिकर्म के नाम पर जनविरोधी तमाशे करती हैं। वे संस्‍कृतिकर्मियों को खैरात बांटकर उन्‍हें शासकवर्ग का चारण बनाने की कोशिश करती हैं। ऐसे में गरीब-मेहनतकशों के बीच से उभरे कलाकार जब सामाजिक भेदभाव, उत्पीड़न, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और राज्‍य-दमन के खिलाफ जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में प्रतिरोध की संस्कृति रचते हैं, तो उन्हें अपराधी करार दिया जाता है। कबीर कला मंच के कलाकार भी इसीलिए गुनाहगार ठहराए गए हैं।
शीतल और सचिन ने एटीएस के आरोपों से इनकार किया है कि वे छिपकर माओवादियों की बैठकों में शामिल होते हैं या आदिवासियों को माओवादी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। दोनों का कहना है कि वे डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर, अण्णा भाऊ साठे और ज्योतिबा फुले के विचारों को लोकगीतों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं। सवाल यह है कि क्या इस देश में अंबेडकर या फुले के विचारों को लोगों तक पहुंचाना गुनाह है? क्या भगतसिंह के सपनों को साकार करने वाला गीत गाना गुनाह है?
संभव है शीतल साठे और सचिन माली को भी जमानत मिल जाए, पर हम सिर्फ जमानत से संतुष्ट नहीं है, हम मांग करते हैं कि कबीर कला मंच के कलाकारों पर लादे गए फर्जी मुकदमे अविलंब खत्म किए जाएं और उन्हें तुरंत रिहा किया जाए, संस्कृतिकर्मियों पर आतंकवादी या माओवादी होने का आरोप लगाकर उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को बाधित न किया जाए तथा उनके परिजनों के रोजगार और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी की जाए।
महाराष्ट्र में इसके पहले भी भगतसिंह की किताबें बेचने के कारण बुद्धिजीवियों को पुलिस द्वारा परेशान करने की घटनाएं घटी हैं। 2011 में मराठी पत्रिका विद्रोहीके संपादक सुधीर ढवले को भी कबीर कला मंच के कलाकारों की तरह अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रेवेंशन एक्टके तहत गिरफ्तार किया गया। इसी तरह झारखंड में जीतन मरांडी लगातार राज्य और पुलिस प्रशासन के निशाने पर हैं। हम पूरे देश में संस्कृतिकर्मियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं और मांग करते हैं कि उन पर राज्‍य दमन अविलंब बंद किया जाए।
साथियो, बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों-छात्रों ने अपने आंदोलनों के बल विनायक सेन से लेकर सीमा आजाद तक को रिहा करने के लिए सरकारों और अदालतों पर जन-दबाव बनाने में सफलता हासिल की। जसम-आइसा ने पटना, इलाहाबाद, गोरखपुर, रांची समेत देश के विभिन्न हिस्सों में शीतल साठे और सचिन माली तथा सुधीर ढवले व जीतन मरांडी की गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज उठायी है। महाराष्ट्र सरकार और पुलिस-प्रशासन के जनविरोधी रुख के खिलाफ आइए हम एक मजबूत प्रतिवाद दर्ज करें और अपने संस्कृतिकर्मी-बुद्धिजीवी साथियों के अविलंब रिहाई के आंदोलन को तेज करें।
निवेदक
संगवारी, संगठन, द ग्रुप (जन संस्कृति मंच)
ऑल इंडिया स्टूडेण्ट्स एसोसिएशन (आइसा)

25 अप्रैल 2013

फारबिसगंज की पुलिस क्रूरता और जनसंघर्ष के बीच नीतीश का छ्द्म सेकुलरवाद


सरोज कुमार
बिहार का राजनैतिक खेल देश की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। भाजपा के साथ जदयू गठबंधन की गहरी दोस्ती में चल रही उठापटक ने माहौल गरमा दिया। मोदी के रथ पर सवार होने की कोशिश कर रही भाजपा को अपने सहयोगियों के ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी में शामिल है सुशासन बाबू की जदयू। कहा तो ये भी जा रहा है कि नीतीश को आगे करने में भाजपा का ही एक धड़ा सक्रिय है। लेकिन फिलहाल इस ओर ना भी जाएं और पूरे घटनाक्रम को सामान्य तरीके से देखें तो भी नीतीश के सेकुलर तिकड़म और सुशासन का खेल साफ नजर आ जाएगा। नीतीश कुमार जिस सेकुलर छवि व मुसलमानों के प्रति प्रेम को जाहिर कर रहे हैं वह फारबिसगंज जैसे मामले में हवा हो जाती है। पिछले दो सालों से अररिया जिले के फारबिसगंज गोलीकांड के पीड़ित इंसाफ व अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सुशासन बाबू की पुलिस-प्रशासन ने दोषियों की बजाय पीडि़तों के दमन में ही लगातार जुटी हुई है। अब पुलिस ने गोलीकांड में पुलिस की गोली से मारे गए 3 लोगों और मर चुके 3 अन्य लोगों समेत 50 ग्रामीणों पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है कि फारबिसगंज के भजनपुरा गांव के सारे पुरुष भागे फिर रहे हैं। और ये सारे गरीब मुसलमान ग्रामीण हैं। मुसलमानों की बड़ी आबादी वाला जिला अररिया  बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में है जहां गरीबी बहुत ही ज्यादा है। लोगों को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पाती।

कैसे भूला जा सकता है मर रहे नौजवान पर कूदती सुशासन की पुलिस को...

अररिया जिले के फारबिसगंज के भजनपुरा गांव में 3 जून 2011 को लोकतंत्र के उस क्रूर प्रदर्शन को कैसे भूला सकता है। कैसे भूल सकते हैं हम कि पुलिस की गोलियों का शिकार हो घायल मुसलिम नौजवान पर नीतीश कुमार की पुलिस का जवान कूद-कूद कर उसे पैरों से रौंद रहा था? आखिर जिसपर जनता की सुरक्षा की जिम्मा हो वह कैसे इतना क्रूर अट्टाहस कर सकता है। इस दर्दनाक वीडियो देख साफ जाहिर होता है कि बिहार पुलिस का वह जवान किस तरह घृणा के वशीभूत अट्टाहस करते हुए गालियां बक रहा था और युवक को रौंद रहा था। यह उसी सामंती , सांप्रदायिक घृणा व हिंसा का ही नमूना था।
हम कैसे भूल सकते हैं कि अपने पति के लिए खाना  लेकर जा रही यासमीन को भी पुलिस की छह गोलियां      लगी थीं। वह सात महीने की गर्भवती थी। और उस आठ महीने के मासूम नौशाद का भी क्या कसूर था जिसे पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। इनके अलावा एक और युवक यानि की कुल चार मुसलमान ग्रामीणों को पुलिस ने मार डाला था। मरने वाले दो यवुकों में एक 18 साल का मुख्तार अंसारी व 20 साल का मुश्ताक अंसारी थे।
और पुलिस ने ये घोर दमनकारी कार्रवाई केवल इसलिए की क्योंकि भजनपुरा गांव के ग्रामीण अपने आम रास्ता को बंद किए जाने का विरोध कर रहे थे जिसका प्रयोग वे शहर जाने के लिए करते थे। उस सड़क की जमीन को ऑरो सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी को दे दिया गया था जिसके शेयर हॉल्डरों में सत्तासीन भाजपा के नेता भी हैं। साफ है कि सत्ता व शासन के इशारे पर यह लोमहर्षक कार्रवाई की गई थी। यह पूरी कार्रवाई एसपी गरिमा मल्लिक व अन्य उच्चाधिकारियों की मौजूदगी में हुई। पर किसी ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की। वह तो किसी ने इस घटना के वीडियो को इंटरनेट पर डाल दिया जिससे की पूरी दुनिया में यह कार्रवाई पता चल गई।

अब पीड़ितों समेत शिकायत करने वाले 50 ग्रामीणों पर ही जारी कर दिया गया वारंट...

इस पूरे वाकये को याद करना इसलिए जरुरी है कि इसके बावजूद नीतीश की पुलिस ने ग्रामीण गरीब मुसलमानों का दमन जारी रखा है। पिछले करीब दो हफ्ते पहले पुलिस ने दो साल पहले हुई इस घटना में मारे गए 3 लोगों, मर चुके 3 अन्य लोगों, पीड़ित परिवार के 14 लोगों और जांच आयोग में गवाही व कोर्ट में हुई शिकायत में हस्ताक्षर करने वाले 23 प्रत्यक्षदर्शियों को मिला कर कुल 50 ग्रामीणओं पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है कि भजनपुरा गांव के सारे पुरुष घर छोड़ कर भागे फिर रहे हैं। पुलिस लगातार गांव में जाकर घर की महिलाओं व बच्चों को परेशान कर रही है। वह रात को भी गांव में छापेमारी करने आ जाती है। साफ है कि सुशासन की पुलिस का रवैया वैसा ही बना हुआ है।

दो साल पहल घटना के बाद पुलिस ने ग्रामीणों पर ही तीन एफआईआर दर्ज कर दिया था कि उन्होंने पुलिस पर हथियारों से लैस होकर हमला बोल दिया था और इसी कारण गोली चलानी पड़ी। पुलिस ने 4000 लोगों पर एफआईआर दर्ज किया था। पुलिस ने 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। अब यह समझा जा सकता है कि मारा गया 8 माह का नौशाद या 7 महीने पेट से यासमीन कैसे हथियारो से पुलिस पर हमला बोल सकती थी? फारिबसगंज थाना में कांड संख्या 268/11, 273/11 और 273/11 में ग्रामीणों पर 307, 120, 427, 452, 436,379,149,148 व 147 जैसी धाराएं लगाई गई हैं। साफ है कि पुलिस कानून का उपयोग पीड़ितों के दमन में ही कैसे करती है।

जिनसे दूरी है मज़बूरी
वहीं दूसरी ओर देश-दुनिया में इसकी खबर फैल जाने से विरोध सामने आए थे। नीतीश कुमार पर बहुत दबाव बनाने की कोशिश हुई फिर भी केवल मर रहे ग्रामीण युवक पर कूदने वाले पुलिस के जवान सुनील कुमार यादव को छोड़ किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। केवल सुनील कुमार को गिरफ्तार किया गया था जिसे फिलहाल बेल मिल जाने की खबर है। वहीं घटना में शामिल एसपी व अन्य अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। बाद में एसपी का प्रोमोशन भी कर दिया गया।

इसके अलावा ग्रामीणों की ओर से कोई एफआईआर दर्ज करने से पुलिस ने इंकार कर दिया। इसके बाद वे अररिया कोर्ट में चार शिकायत दर्ज कराई पर उसका कोई संज्ञान नहीं लिया गया। बाद में सुप्रीम कोर्ट में इसकी सीबीआई जांच के लिए जनहित याचिका डाली गई जिसपर अभी सुनवाई ही चल रही है। जिसपर पिछले 4 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से 4 हफ्ते में पुलिस इंक्वायरी रिपोर्ट पेश करने कहा है।

जांच आयोग का बढ़ता कार्यकाल, न्याय की वही देरी और पीड़ितों-गवाहों को मिल रही धमकियां...

ग्रामीणों पर पुलिसिया वारंट तब जारी कर दिया गया है जबकि अभी इस गोलीकांड की न्यायिक जांच को बने आयोग ने रिपोर्ट सौंपी भी नहीं है। भारी दबाव के बीच नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने अपना दमनकारी चेहरा छिपाने के लिए एक सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग का गठन  कर दिया था। इसका गठन 22 जून 2011 को 6 माह के कार्यकाल के लिए किया गया था। इसकी सुनवाई भी अभी चल ही रही है। देखने वाली बात है कि इसने 6 महीने में कोई रिपोर्ट नहीं दिया फिर 22 दिसंबर 2011 को 6 माह की अवधि खत्म होने पर एक साल के लिए इसका कार्यकाल और बढ़ा दिया गया। उसके बाद फिर 22 दिसंबर 2012 को एक साल पूरा होने के कुछ ही दिन पहले इसका कार्यकाल तीसरी बार एक साल के लिए और बढा दिया गया। जाहिर है कि न्याय के लिए पड़ितों को पता नहीं कितना लंबा इंतजार करना पड़ेगा और उन्हें क्या न्याय हासिल होगा ये भी समझ नहीं आ रहा। फिलहाल जांच आयोग अररिया में इसकी सुनवाई कर रही है, जिसमें ग्रामीण व पीड़ित अपना बयान दर्ज करा रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर स्थानीय पुलिस-प्रशासन, सत्तासीन सरकार के नुमाइंदों-नेताओं और कंपनी की ओर से लगातार ग्रामीणों को डराया धमकाया जा रहा है। ऐसा ही एक मामला बताते हुए सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र ने बताया कि एक गवाह युवती तालमुन खातून को स्थानीय जदयू नेता व प्रशासन ने इतना डराया कि वह सुनवाई नहीं दे सकी। बाद में ग्रामीणों की शिकायत व विरोध के बाद दुबारा उसकी गवाही हुई। इसी तरह की धमिकयों का सिलिसला जारी है।
वहीं जांच आयोग को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र एक बात और बताते है कि आयोग में कंपनी की ओर से ही ज्यादा शपथपत्र दाखिल किए गए हैं यानि इनके पक्ष से कहीं ज्यादा गवाहियां होनी है। करीब 189 शपथपत्र दिए गए हैं जिनमें करीब 20 ही शपथपत्र पीड़ित पक्ष की ओर से हैं। वैसे एक थपथपत्र में कई लोगों के हस्ताक्षर हैं। वे ये भी बताते हैं कि सारे शपथपत्र एक ही फॉर्मेट में हैं।

पुलिस की झूठ पे झूठ....सारी कवायद ग्रामीणों को समझौता के लिए मजबूर करने की है....

पुलिस की ओर से जारी किया गया वारंट हो या गवाहों को लगातार मिल रही धमकियां, ये सारी कवायद ग्रामीणों पर समझौता करने का दवाब बनाने के लिए की जा रही है। न्यायिक आयोग में चल रही सुनवाई हो या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका पर सुनवाई सत्ता-प्रशासन व कंपनी ग्रामीणों के संघर्ष व लड़ाई को दबाना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण लगातार इसके खिलाफ खड़े हैं। ग्रामीणों पर गवाही न देने का दबाव बनाया जाता रहा है। बिना नाम के दर्ज हुए एफआईआर में गिरफ्तार करने की धमकियां दी जाती रही हैं।
इससे पहले भी पुलिस ने लगातार झूठ पे झूठ का सहारा लिया है। तत्कालीन एसपी गरिमा मल्लिक ने ग्रामीणों को हिंसा पर उतारु व हथियारों से लैस हमलावर बताते हुए 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। लेकिन बाद में एक सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में यह झूठ निकल आया। गरिमा मल्लिक ने स्वयं समेत सारे घायलों का इलाज फारबिसगंज के रेफरल अस्पताल में होने की बात कही थी। लेकिन अस्पताल से बाद में मांगी गई सूचना में अस्पताल ने बताया कि वहां केवल दो लोगों (एसपी और एसडीओ) का इलाज करवाया गया था। जबकि एसपी की ओर से घायलों की दी गई सूची में एसडीओ का नाम ही नहीं था। वहीं सुप्रीम कोर्ट में मांगी गई स्टेटेस रिपोर्ट व जांच आयोग में दिए गए प्रतिवेदन में पुलिस की ओर से दी गई घायलों की सूची में घायल पुलिसकर्मियों का नाम अलग-अलग है। इतना ही नहीं बल्कि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में कहा गया कि घटना के तीन दिन पहले से डीएम के कंट्रोल रुम के वायरलेस सेट से कोई बातचीत नहीं हुई। वहीं एसपी कार्यालय में वायरलेस सेट न होने की बात कही गई।

बिहार की मीडिया ने नीतीश का अफीम सूंघ लिया है....

वहीं इस पूरे घटनाक्रम में भी बिहार की मीडिया का वहीं सरकारी भोंपू  के साथ विकास के नाम पर बरगलाने वाला चेहरा ही सामने आया है। गोलीकांड के बाद भी उस दौरान बिहार के अखबारों ने इसे जरुरी खबर तो क्या ठीक-ठाक छापी जाने लायक खबर तक नहीं समझा था। इसे बिल्कुल ही नजरअंदाज कर दिया था। इसे मुद्दा बनने ही नहीं दिया। जैसे कि बिहार से सबसे बड़ा अखबार दैनिक हिन्दुस्तान  ने इस पूरी तरह ब्लैक आउट कर दिया। दैनिक जागरण व प्रभात खबर का रुख भी इसी के जैसा रहा। दिलीप मंडल ने अपने एक अध्ययन व रिपोर्ट में जो कि मोहल्ला लाइव व कथादेश में छपी थी दिखाया कि मीडिया ने बिहार में लोगों के लिए इस मुद्दे को मुद्दा नहीं बनने दिया। 5 जून से 11 जून तक की पटना संस्करण के पहले पन्ने की खबरों के अध्ययन में देखें तो दैनिक हिन्दुस्तान ने इसे पूरी तरह नहीं छापा। जबकि दिल्ली में बाबा राम देव मसले की खबरें, 'बचना है तो पेड़ लगाएं', 'संदेश बढाने फिर नीतीश पहुंचे धरहरा' या 'समंदर से निकला शुगर का रामबाण इलाज' जैसी खबरें पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपती रहीं। वहीं दैनिक जागरण ने फारबिसगंज पर इसी दौरान पहले पन्ने पर केवल दो दिन खबरें चलाई जिनका फ्लेवर सरकार के पक्ष में ही जाता था। 6 जून को एक कॉलम की खबर 'आरोपी होमगार्ड पर चलेगा हत्या का मुकदमा' और 11 जून को दो कॉलम की खबर 'मारे गए बच्चे परिजन को तीन लाख' की खबरें छपीं। वहीं प्रभात खबर का भी हाल ऐसा ही रहा। साफ था कि अगर बिहार के तीनों प्रमुख अखबारे फारबिसगंज को मुद्दा न बनने देने पर तुल गए थे तो इसका मुद्दा बन पाना आसान नहीं था। और ये सारा तिकड़म सरकार के इशारे पर ही चल रहा था। जिसमें विज्ञापन से लेकर कंपनी में सत्ताधारी नेताओं की भागीदारी व सांप्रदायिक व गरीब विरोधी रंग मिला-जुला था।

मोमबत्ती जलाकर सेक्युलर बने
इस बार भी अखबारों का हाल बिल्कुल वैसा ही रहा। दैनिक हिन्दुस्तान ने जहां इस 8 अप्रैल 2013 को ग्रामीणों पर वारंट की खबर को एक कॉलम, करीब 50 शब्दों में 15वें पन्ने पर छापा। तो 11अप्रैल को 15वें पन्ने पर ही दो कॉमल की खबर करीब 100 शब्दों में छापी। वहीं दैनिक ने भी 11 अप्रैल को अंदर के पन्ने पर ही करीब सौ-सवा सौ शब्दों की खबर छापी। 11 अप्रैल को ये खबर इसकारण भी छप भी गईं कि फारबिसगंज की पीड़ित परिवारों के परिजनों ने सामाजिक संगठनों क मदद से 10 अप्रैल को राजधानी पटना आकर संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया और अपनी आपबीती सुनाई। वरना यह माजरा पूरी तरह दबाया गया। संवाददाता सम्मेलन को एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट(एपीसीआर), फारबिसगंज एक्शन कमिटी, मोमिन कांफ्रेंस और नेशनल एलॉयंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट(एनएपीएम) ने आयोजित करने में पीड़ितों की मदद की।  फिर बाद में मीडिया नीतीश व मोदी के खेल में शामिल हो गई। बिहार की मीडिया का यह रुप लगातार देखने को मिला चाहे वह मधुबनी कांड हो, छठ हादसा हो या फिर शिक्षकों का सरकार की ओर से चलाया जा रहा दमनकारी अभियान। ये अखबार स्पष्ट रुप से सरकार के प्रवक्ता की तरह सामने आते रहते हैं। खासकर हिन्दुस्तान व प्रभात खबर की खबरों पर लगातार हम नजर रखें तो। संपादकीय लेख, टिप्पणियां व राजनीतिक संपादकों, ब्यूरों की खबरें सरकार के पक्ष में ही लिखी जाती रहती हैं और विरोधी खबरों को दबाया जाता है।

गैर-सेकुलर नीतीश का सेकुलरवाद.... कहां चला गया नीतीश का मुसलमान प्रेम व सुशासन....

इस पूरे मामले में नीतीश की पुलिस-प्रशासन व सत्ताधारी नेता, कहें तो नीतीश शासन फारबिसगंज के पीड़ितों के खिलाफ खड़ा है। स्थानीय पुलिस-प्रशासन व सरकारी नेता लगातार गरीब मुसलमानों पर दबाव बनाते रह रहे हैं। ठीक इसी समय नीतीश कुमार की नजर पीएम की कुर्सी पर है। जो इनके सहयोगी भी स्वीकार कर रहे हैं। इसके लिए नीतीश कुमार सांप्रदायिकता के खिलाफ बताते हुए मोदी के विरोध का स्वांग रच रहे हैं। जबकि वे भाजपा के रथ पर ही बिहार में सत्तासुख का भोग करते आ रहे हैं। वे मुसलमानों के प्रति प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं। नजर इस वोटबैकं पर है। वहीं उत्तरी बिहार में आतंकवाद के नाम पर एनआईए की टीम लगातार मुस्लिम युवकों को पकड़ रही है और अभी भी उनकी छापामारी लगातार पूरे जोर-शोर से जारी है। दूसरी ओर देखें तो फारबिसगंज के गरीब मुसलमानों के दमन में इसी नीतीश सरकार के  पुलिस-प्रशासन व नेता कोई कसर नहीं छोड़ रहे। दो साल बीत जाने पर भी इन गरीब मुसलमानों को न्याय के लिए भटकना ही नहीं पड़ रहा बल्कि उल्टे पुलिस ने अब इनपर ही वारंट जारी कर धड़-पकड़ कर रही है। रात को इनकी महिलाओं व बच्चों को पूछताछ के बहाने परेशान कर रही है। अब ये सब सरकार की शह पर नहीं हो रहा कैसे मान लिया जाए? अब ऐसे हाल में नीतीश किस मुंह के असांप्रदियक होकर मुसलमानों के हितैषी होने का दावा करते फिर रहे हैं। उस मारे गए आठ माह के नौशाद, सात माह की पेट से यासिमन व उन दो मुसलिम नौजवानों का हिसाब कौन देगा। भजनपुरा गांव में 90 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। गुजरात में मोदी की शह पर पुलिस-प्रशासन-नेता की मिलीभगत से जिन मुसलमानों को मारा गया, इसे भी हम वैसे क्यों ना देखें? इस तथाकथित सेकुलर नीतीश के पास न्याय कहां हैं? बहरहाल नीतीश के सेकुलर नारों व मोदी विरोध के बीच भजनपुरा के ग्रामीण सत्ता की शह पर दमन जारी है।

24 अप्रैल 2013

वर्चुअल दुनिया के लोग अपीयरेंस देने आते हैं!

चेतना भाटिया
किसी भी काम को पहली बार करने पर उससे बहुत-सी उत्सुकता, संभावनाएं, उम्मीदें और डर जुड़े होते हैं। इस लिहाज़ से पहली बार किसी विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का मेरा अनुभव बहुत अजीब रहा। अजीब सिर्फ इसलिए नहीं कि मुझे राजनीति और उससे जुड़े तत्वों के विमर्श से परहेज है बल्कि इसलिए भी कि मैंने जैसा सोचा था वहाँ उससे काफी कुछ अलग था । ‘क्रान्ति’ , ‘आज़ादी’ , ‘जनभावना’, ‘धरणा’ , ‘जनसैलाब’ और ऐसे ही कुछ अन्य शब्दों की प्रवृत्ति ध्यान आकर्षित करने वाली होती है और अगर बात युवाओं की करें, तो अन्ना और केजरीवाल से लेकर निर्भया केस तक समभवत: इसी शब्द ने लोगों को सड़कों पर खींचा था। मेरा अंदाज़ा है कि हमारी पीढ़ी के मन में ये शब्द ‘1857’ और ‘1947’ के आंदोलनों और कुर्बानियों की ऐसी छवियाँ याद दिलाते हैं जो उन्होने इससे जुड़ी किसी फिल्म या इतिहास की किताब या गूगल और विकिपीडिया पर देखी होंगी। हालांकि इस बात में कोई दोराय नहीं है कि देश –समाज के हर क्षेत्र में इस समय जो स्थिति है, उससे निबटने के लिए किसी क्रान्ति से कम में काम नहीं चलने वाला। लेकिन फिर भी ‘निर्भया’ और ‘गुड़िया’ के किस्से के बाद सड़कों और राजधानी समेत कई शहरों के महत्वपूर्ण चौराहों पर नारों और तख्तियों के साथ लोगों का उतरना इस ट्रेंड की पड़ताल की मांग करता है ।

टी॰वी॰ पर और अखबारों में 16 दिसंबर की घटना के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों की छवियाँ अभी भी दिमाग में जस की तस हैं। यहाँ ‘छवियाँ’ शब्द का प्रयोग किसी कारण से किया गया है। छवियाँ प्राकृतिक नहीं होती बल्कि दिमाग में गढ़ी जाती हैं – किसी बाहरी स्रोत से या खुद की धारणाओं से। इस तरह कुर्ता-जीन्स और हवाई चप्पल पहने झोला लटकाए – कभी लाल तो कभी भगवा रंग से जुड़े लोगों का पुलिस से भिड़ना और ज़मीन पर लेट–लेट कर नारेबाजी करना मुझे हमेशा से आकर्षित करता रहा है। विभिन्न संगठनों के सदस्यों के बीच होने वाली हेजेमनी या राष्ट्रवाद की बातें इनके बीच जाकर समय बिताने की इच्छा जागृत करती हैं। कुछ इसी तरह की इच्छा ने मुझे 20 अप्रैल का पूरा दिन नौकरी से छुट्टी लेकर आईटीओ जाने के लिए तड़पने के बाद 21 अप्रैल को इंडिया गेट जाने को प्रेरित किया। जो ये मानते हैं की इन प्रदर्शनों से कुछ नहीं होने वाला , उन्हें यह बताना चाहती हूँ कि जब कोई सार्वजनिक सेवा नियुक्त अधिकारी जनता के प्रति अपना कर्तव्य भूलकर समाज में दुराचारियों और दुष्कर्मों को बढ़ावा देता है, तब घर बैठे भी कुछ नहीं किया जा सकता। प्रदर्शनों और धरनों से कम से कम राज्य पर व्यवस्था सुधारने का कुछ दबाव तो बनाया ही जा सकता है, साथ ही आजू-बाजू जमा लोगों को कई बातें भाषण से समझाई जा सकती हैं।

ऐसा ही कुछ माहौल वहाँ भी था जब प्रदर्शनकारियों के आने से 40 मिनट पहले आरएएफ के कम से कम 30-35 जवानों समेत पुलिस के सिपाही एक कतार में हाथों में डंडे और आँसू गेस के गोले लिए खड़े थे। प्रदर्शन शुरू होने पर हमने उस संगठन से न जुड़े होने के कारण खुद को आखिरी पंक्ति में रखना ही बेहतर समझा। जैसे ही नारेबाजी के साथ तख्तियाँ हाथ में लिए प्रदर्शनकारी इंडिया गेट की ओर चलना शुरू हुए, कई राहगीर भी उस भीड़ में शामिल हो लिए । अनजाने लोगों के बीच भी कभी हम इतने बेखौफ होकर चल सकते हैं इससे पहले मुझे इसका कभी अंदाज़ा नहीं लगा था। लेकिन केमेरा वाले जितनी तेज़ी से साथ-साथ भाग रहे थे, उससे कई ज़्यादा तेज़ी से वो लोग भाग रहे थे जो कैमरा में ‘क्रान्ति लुक’ देना चाहते थे। हालांकि कई लोग ऐसे भी थे जो सचमुच इस घटना से आहत और गुस्से हुए थे , लेकिन लम्पट और अवसरवादियों की भी कोई कमी नहीं थी। शायद यही कारण था कि हम लोग खिसकते –खिसकते तीसरी पंक्ति में आ गए।

एक बेरिकेड के सामने सड़क पर बैठने के बाद भाषणों का दौर शुरू हुआ । लेकिन जब आसपास नज़र दौड़ाई तो देखा कि शामिल होने वालों की संख्या 20-25 से बढ़कर लगभग 50 -60 हो गयी थी। उसमें कुछ वर्चुअल दुनिया में सक्रिय ऐसे बुद्धिजीवी भी थे जो एक कोने में खड़े होकर बीड़ी सुलगाते हुए थोड़ी देर का गेस्ट अपीयरेंस देने आए थे। कुछ ऐसे थे जो जन्म-जन्मांतर से टी वी बाइटों के लिए तड़प रहे थे और कुछ ठेले वाले , गुब्बारे वाले और मेहँदी वाले अपनी आम्दनी की आस लगाए घेरा बनाकर खड़े थे। लेकिन प्रदर्शन की इस पोलिटिकल- इकोनोमी में सबसे अधिक संख्या में राहगीर दिख रहे थे जिनकी आँखों में और चेहरों पर वही शातिर पुरुषवादी और शिकार तलाशते भाव थे जिनकी आलोचना की जा रही थी। एक तरह से उनका वहाँ होना अच्छी बात इसलिए हो सकती थी की उन्ही को समझाने के लिए ये सब कहा जा रहा था। लेकिन ऐसी सोच के लोगों का भीड़ में पता न लगा पाने के खतरे की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता था।

मीडिया का केमरे में छवियाँ कैद करने का पागलपन उनकी संस्थाओं की व्यावसायिक मजबूरी से समझा जा सकता है । इसीलिए 30 लोगों को 300 दिखाने के लिए उन्हें बेरिकेड पर चढ़ –चढ़ के लौंग शॉट लेने की ज़रूरत पड़ रही थी। लेकिन नेताओं के बयानों के ज़िक्र के दौरान राष्ट्रिय महिला आयोग की अध्यक्षा ममता शर्मा का किस्सा छोड़ देना और विरोध के गीत गाने वालों का बाद में पीछे खड़े होकर हंसने का भाव मेरी समझ से परे था। साथ ही कई सवालों ने दिमाग को घेर लिया था मसलन मीडिया वालों के वहाँ से जाने के बाद आधे से अधिक लोग उठकर क्यूँ चले गए? क्या जिस मुद्दे के लिए आवाज़ उठाने आए थे, वह समस्या सुलझ चुकी थी? इससे ज़्यादा बुरा हाल भगवा संगठनों के धरणे में था जहां संगठन में शामिल कुछ तत्व लड़कियों की चोटियाँ खींच रहे थे।

बेशक जनता महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध या भ्रष्टाचार से तंग आ गई है और छात्र संगठनों ने लोगों को महत्वपूर्ण मुद्दों पर आवाज़ उठाने का मंच दिया है लेकिन जागरूकता लाने और दबाव बनाने की इस कोशिश में इस तरह के असंवेदनशील , अवसरवादी और सरोकारहीन तत्व लोगों को इन सभाओं से दूर करने का ही काम करते हैं। हालांकि बलात्कार और इसके जैसी कई प्रकार की हिंसाओं से महिलाओं को बचाने के लिए घर से ही इलाज शुरू करना होगा, लेकिन पिछले दो सालों में लोगों में गैर-जिम्मेदार राज्य और व्यवस्था से लड़ने के लिए पैदा हुआ जोश कम ना हो , इसके लिए धारणा आयोजित करने वाले संगठनों का इन सभाओं से असामाजिक तत्वों को बाहर रखना ज़रूरी है।

08 अप्रैल 2013

दैनिक भास्कर समूह: धंधा अखबार तक महदूद नहीं है

-दिलीप खान
(मूल रूप से शोध पत्रिका जन मीडिया के वर्ष-2, अंक-13 में प्रकाशित। पीडीएफ में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।)

अमेरिका और यूरोप के ज़्यादातर देशों की तरह भारत में क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर पाबंदी नहीं है। [1] नतीजतन कोई मीडिया कंपनी धीरे-धीरे चीनी का व्यवसाय शुरू कर देती है [2] और कोई ऊर्जा उत्पादन और तेल के धंधे में पैर पसार लेती है। [3] इसके उलट कई बार चिट फंड और रियल एस्टेट जैसी गैर-मीडिया कंपनियां भी अख़बार और टीवी चैनल खोलकर लोगों से मुखातिब हो जाती हैं। [4] पिछले एक दशक में मीडिया कारोबार में यह चलन बड़े स्तर पर सामने आया है। लोगों के बीच अपने मुताबिक सामग्री प्रस्तुत करने का जो विकल्प अख़बार या फिर टीवी चैनल खोल लेने के बाद कंपनियों को हासिल होता है वो किसी भी हद तक छूट मिलने के बावज़ूद विज्ञापन से हासिल नहीं किया जा सकता। इस तरह अगर एक कंपनी के पास अख़बार भी है, टीवी चैनल भी, रेडियो भी, पत्रिका भी और वेबसाइट-पोर्टल भी तो अपने दूसरे धंधों से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग में वो उस हद तक सतर्कता बरतने का प्रयास करती है जिससे उसका मुनाफा बुलंद रहे। कई मामलों में यह प्रयास सतर्कता से आगे पहुंच जाता है और अख़बार अपने समूह के दूसरे व्यवसाय से जुड़ी खबरों को इस तरह पेश करता है कि पाठक के सामने उसके सामाजिक तौर पर जिम्मेदार समूह की छवि उभर कर सामने आए। यह किसी एक समूह तक सिमटा मसला नहीं है, बल्कि सतही निरीक्षण से ही इस तथ्य को नियमित अंतराल पर उजागर किया जा सकता है। 
टाइम्स ऑफ इंडिया के समीर जैन की तरह रमेश चंद्र अग्रवाल ने विदेश में पढ़ाई नहीं की है। भास्कर का
 विस्तार उसने 'स्वदेशी' तरीके से किया है।

1958 में क्षेत्रीय स्तर पर अखबार शुरू करने वाले दैनिक भास्कर समूह, जोकि पिछले तीन दशक में अकूत विस्तार पाकर 13 राज्यों में फैल चुका है और अब डीबी कॉर्प प्राइवेट लिमिटेड नाम से शेयर बाजार में सूचीबद्ध है, ने हाल ही में नई दिल्ली में 'तीसरा पावर विजन कॉनक्लेव' का आयोजन किया। [5] 28 मार्च को यह कार्यक्रम हुआ लेकिन उससे पहले के एक हफ्ते में इससे जुड़ी खबर डीबी कॉर्प समूह के मुख्य अखबार दैनिक भास्कर में तीन बार पहले पृष्ठ पर छपी। [6] एक बार एक कॉलम में और दो बार दो-दो कॉलम में।

तीनों खबर में एक ही बात बताई गई कि 28 तारीख को 'तीसरा पावर विजन कॉनक्लेव' नई दिल्ली में होना है जिसमें 'फोकस स्टेट' मध्य प्रदेश होगा। खबर के लिहाज से देखें तो तीन बार दोहराए जाने के पैमाने पर यह खरा नहीं उतरती। [7] लेकिन दैनिक भास्कर में न सिर्फ यह तीन बार छपी बल्कि हर बार इस खबर को पहले पन्ने पर जगह मिली। यह अपने समूह द्वारा होने वाले आयोजन का एक तरह से प्रचार था जिसे अखबार का मंच मुफ्त में उपलब्ध होने की वजह से बार-बार खबर बनाकर प्रस्तुत किया गया। लेकिन मजेदार यह है कि एक भी मौके पर दैनिक भास्कर में यह जानकारी नहीं दी गई कि इस समूह का पावर (ऊर्जा) के क्षेत्र के साथ आर्थिक हित जुड़े हैं। 

पाठकों को ये जरूर बताया गया कि इस कॉनक्लेव के प्रायोजक में सुकैम, जिंदल पावर, बंगाल ऐमटा, वेदांता और पहाड़पुर पावर शामिल हैं, लेकिन यह जानकारी छुपा ली गई कि दैनिक भास्कर समूह की डिलीजेंट पावर प्राइवेट लिमिटेड (इसको डीबी पावर प्राइवेट लिमिटेड भी कहा जाता है।) तापीय ऊर्जा के क्षेत्र में सक्रिय कंपनी है। इस तरह खबर को पढ़ने के बाद पाठकों को एकबारगी यही लगेगा कि भास्कर समूह देश की ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए काफी हद तक चिंतिंत होने की वजह से यह आयोजन जनता के हित में कर रहा है। 

दैनिक भास्कर की फादर कंपनी डीबी कॉर्प प्राइवेट लिमिटेड द्वारा आयोजित यह तीसरा कॉनक्लेव था। सबसे पहले साल 2011 में समूह ने जो आयोजन किया था उसमें 'फोकस स्टेट' के तौर पर छत्तीसगढ़ और राजस्थान को शामिल किया गया फिर इसके बाद 2012 में हरियाणा पर केंद्रित करते हुए कार्यक्रम हुआ। [8] डीबी पावर लिमिटेड का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। पांच साल से कम उम्र की इस कंपनी को उत्पादन के लिए तैयार करने के बाद दैनिक भास्कर समूह की गतिविधियों पर नज़र रखी जानी चाहिए। गौरतलब है कि पावर क्षेत्र में कंपनी की शुरुआत करने के बाद ही दैनिक भास्कर समूह ने 'पावर कॉनक्लेव' का आयोजन भी शुरू किया। पहले कॉनक्लेव के 'फोकस स्टेट' छत्तीसगढ़ में कार्यक्रम से पहले ही इस कंपनी ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे और 2011 के उस कॉनक्लेव के बाद छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले में मौजूद इसके प्लांट में काम की गति तेज हो गई।
मध्यप्रदेश: जहां नया प्लांट बनना है

आज छत्तीसगढ़ में डीबी पावर के पास 1200 मेगावाट का प्लांट है। [9] छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार की सिफारिश पर केंद्र ने कंपनी को दो कोयला ब्लॉक आवंटित किया था जिन्हें इसी पावर प्लांट के लिए इस्तेमाल में लाया जाना है। कोयला ब्लॉक आवंटन के चर्चित मुद्दे पर दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग पर गौर करे तो ये साफ लगेगा कि उस दौर में भास्कर ने बेहद चयनित होकर और भरपूर सावधानी से पूरे मसले को अपने पन्नों में जगह दी। कोयला ब्लॉक मामले में दैनिक भास्कर (जोकि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार है) के अलावा महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला लोकमत समूह भी शामिल था। [10] महाराष्ट्र में मनोज जायसवाल के साथ मिलकर राजेंद्र दर्डा और उनके भाई, कांग्रेस सांसद एवं लोकमत मीडिया समूह के मालिक विजय दर्डा ने जस इन्फ्रास्ट्रक्चर कैपिटल प्राइवेट लिमिटेड में दांव खेला था।

मामले की तहकीकात के दौरान सीबीआई ने विजय दर्डा के बेटे देवेन्द्र दर्डा से भी पूछ-ताछ की थी। इसके अलावा प्रभात खबर की फादर कंपनी ऊषा मार्टिन को भी कोयले का पट्टा हासिल हुआ था। [11] इन तीनों अखबारों में कोयला ब्लॉक आवंटन मुद्दे की रिपोर्टिंग अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए दूसरी (प्रतिद्वंद्वी) कंपनियों पर निशाना साधने की कोशिश ज्यादा साफ दिखती है। कहने का मतलब ये कि ऐसी मीडिया कंपनियां जो दूसरे धंधों में उतरी हुई हैं वे उन्हें वैधता देने के लिए अपने मीडिया मंच का इस्तेमाल करती हैं। 

छत्तीसगढ़ को फोकस स्टेट रखने के तुरंत बाद दैनिक भास्कर समूह की कंपनी डीबी पावर ने वहां पर प्लांट बनाया और यह महज संयोग नहीं है कि मध्य प्रदेश में जब इस समय डीबी पावर (डिलीजेंट पावर) 1,320 मेगावाट का बिजली संयंत्र लगाने की योजना पर काम कर रही है तो 'पावर कॉनक्लेव' में फोकस स्टेट मध्य प्रदेश है। [12] जाहिर है फोकस स्टेट के चुनाव में दैनिक भास्कर अपनी सिस्टर कंपनियों की हित को ध्यान में रखकर कॉनक्लेव का आयोजन करता है। लेकिन यह हित पाठकों के सामने उजागर न हो इसके लिए पूरी रिपोर्टिंग में कहीं भी भास्कर यह तथ्य जाहिर नहीं करता कि तापीय ऊर्जा के साथ उसके आर्थिक हित नत्थी हैं। 

छत्तीसगढ़ में अपनी सिस्टर कंपनी डीबी पावर के काम शुरू करने के बाद छत्तीसगढ़ की ऊर्जा जरूरतों पर जब दैनिक भास्कर बात कर रहा था तो जाहिर है कि उसमें अधिकाधिक तापीय ऊर्जा निर्माण पर ही जोर दिया जा रहा था। राज्य के जांजगीर-चांपा जिले के प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण के दौरान कंपनी को स्थानीय स्तर पर बहुतेरे विरोध-प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा लेकिन राज्य में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले इस अखबार से वो खबरें नदारद रहीं। [13] डभरा विकासखंड के तहत आने वाले गांव टुण्ड्री के स्थानीय लोगों ने भास्कर से रवैये पर काफी ऐतराज जताया था। अगर किसी कंपनी के पास कोई अखबार हो तो जाहिर है उसे अपने खिलाफ दिखने वालीं खबरें दबाने में काफी सहूलियत होती है। 
पावर प्लांट के लिए विकसित किया जा रहा जलाशय

व्यावसायिक चिकनाई को बरकरार रखने की राह में यह काफी मददगार साबित होते हैं। यही कारण है कि जब छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में डीबी पावर प्राइवेट लिमिटेड को नौ करोड़ 16 लाख टन क्षमता वाला कोयला ब्लॉक मिला और अपनी बिजली परियोजना पर इसने काम करना शुरू किया उसी के आस-पास दैनिक भास्कर का रायगढ़ संस्करण भी लॉन्च किया गया। [14] दैनिक भास्कर अब मध्य भारत के खनिज प्रधान हर राज्य में प्रमुखता से फैल रहा है। झारखंड में बेहद आक्रामता से इसने बाजार पर कब्जा किया और खनन में संलग्न एक दूसरी कंपनी ऊषा मार्टिन के अखबार प्रभात खबर के जमे-जमाए पाठक वर्ग को लुभावने सब्सक्रिप्सन ऑफर से झकझोर दिया। 

छत्तीसगढ़ में मीडिया का यह तेवर महज भास्कर के मामले तक महदूद नहीं है बल्कि राज्य के दूसरे सबसे बड़े अखबार हरिभूमि की फादर कंपनी आर्यन कोल बेनीफिशिएशन है जो एक ट्रांसपोर्ट कंपनी और 30 मेगावाट क्षमता वाला एक पावर प्लांट चलाती है। [15] यानी खनन, रियल एस्टेट, बिजली उत्पादन जैसे क्षेत्रों की कंपनियां या तो मीडिया की तरफ रुख कर रही हैं या फिर मीडिया की कंपनियां इन क्षेत्रों की तरफ। जाहिर है अगर कोई ठोस आर्थिक मुनाफे का मामला नहीं होता तो यह चलना इतना आम नहीं होता। 

दैनिक भास्कर इन दिनों जेपी मॉर्गन, आईडीएफसी और कार्लाइल समेत कई प्राइवेट इक्विटी कंपनियों से बातचीत कर रही है ताकि वो साल के अंत तक मध्य प्रदेश में बिजली संयत्र शुरू करने के लिए 800 करोड़ रुपए का फंड जमा कर सके। [16] इसी तरह पहले पावर कॉनक्लेव के बाद भास्कर ने 2011 में वारबर्ग पिनकस से पैसे जमा कर जांजगीर-चांपा में बिजली संयंत्र की शुरुआत की। [17] मध्य प्रदेश में डीबी पावर अपने विस्तार की नई संभावना तलाश रहा है और अपने मुताबिक नीति के लिए बेहद जरूरी है कि वहां के हुक्मरान तक अपने दस्तावेज पहुंचाए। 28 मार्च को नई दिल्ली में जो कार्यक्रम हुआ उसकी रिपोर्टिंग में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को दैनिक भास्कर ने आधी जगह दी। पहले पेज पर दो कॉलम की खबर में एक कॉलम और पृष्ठ संख्या आठ पर पांच कॉलम की खबर में दो कॉलम शिवराज सिंह चौहान के वक्तव्य पर आधारित हैं। [18] 

संयोग से इंडियन रीडरशिप सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद इसी दिन (29 मार्च को) दैनिक भास्कर ने पाठकों को ये भी सूचना दी कि भास्कर समूह देश का सबसे बड़ा अखबार समूह है। जाहिर है इस समय 13 राज्यों में समूह के 65 संस्करण अलग-अलग चार भाषाओं में निकल रहे हैं। लेकिन देश का सबसे बड़ा अखबार समूह अपने व्यवसाय की जानकारी देने में पाठकों से बच रहा है तो इसकी वजह शायद अब भी यही है कि पाठक पत्रकारिता को पवित्र और मिशनरी धंधा मानने के मुगालते में जीवित है। वाक्यों के बीच में पढ़ना अभी तक ठीक-ठीक तरीके से देश के पाठकों को आया नहीं है। जॉन पिल्गर ने अपने एक लेख में जिक्र किया कि स्टालिन के शासन के दौरान 1970 के दशक में वो चेकोस्लोवाकिया में एक फिल्म बना रहे थे जिसमें उस शासन से असंतुष्ट गुट के एक व्यक्ति और उपन्यासकार जेनर उर्बानेक ने जॉन को बताया कि वो देश के किसी भी मीडिया कंटेंट पर [आंख मूंदकर] भरोसा नहीं करते, बल्कि खबर पढ़ने के बाद उसके पंक्तियों के बीच छुपी असलियत को भांपने की कोशिश करते हैं। [19] भारत में भी मीडिया मालिकाना की संरचना और उसकी कार्यशैली को देखते हुए हर पाठक को अपने भीतर यह गुण विकसित करने की कोशिश शुरू कर देनी चाहिए। 
छत्तीसगढ़ में दैनिक भास्कर समूह का तैयार पावर प्लांट

दैनिक भास्कर के लिए रायगढ़ में संस्करण निकालना इसलिए जरूरी हो गया था क्योंकि छत्तीसगढ़ के सबसे पिछड़े जिलों में से एक जांजगीर-चांपा  में 6,640 करोड़ रुपए की लागत वाले पावर प्लांट के लिए हर साल 52 लाख 29 हजार टन कोयले की जरूरत थी और डीबी पावर को मांड-रायगढ़ कोल ब्लॉक से 20 लाख टन प्रति साल कोयला निकालने का पट्टा हासिल हुआ। [20] मामले का न सिर्फ स्थानीय स्तर पर विरोध हुआ था बल्कि राजनीतिक गलियारों में भी आवाजें गूंजी लेकिन अखबार के पन्ने इससे अनभिज्ञ रहे। जांजगीर-चांपा में संयंत्र के लिए कंपनी को 1,077 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करना था जो काम लगातार विरोध के बावजूद लगभग पूरा हो चुका है। [21] राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कहा कि जांजगीर-चांपा में बिजली संयंत्र बनने से वहां के फसलों की पैदावार नष्ट हो जाएगी। [22] जाहिर है भास्कर के लिए ऐसे बातों का काट प्रस्तुत करना जरूरी हो चला था। लिहाजा दैनिक भास्कर में इस तरह की खबरें लगातार छपी कि बिजली संयंत्र बनने से उस इलाके का कायाकल्प हो जाएगा!

मुख्य व्यवसाय के तौर पर यह समूह अभी भी मीडिया को आगे रख रहा है लेकिन दैनिक भास्कर समूह बिजली उत्पादन, कपड़ा उद्योग, अयस्क निष्कर्षण, खाद्य तेल रिफाइनिंग और रियल एस्टेट में भी उतरा हुआ है। [23] समूह की मुख्य कंपनी डीबी कॉर्प जोकि मीडिया की अगुवाई कर रही है उसका कुल राजस्व 1,246 करोड़ रुपए का है लेकिन इक्विटी के साथ मिलाकर डीबी पावर का राजस्व 6,640 करोड़ रुपए का है। [24] आप खुद समझ सकते हैं कि ज्यादा बड़ा आर्थिक हित कहां जुड़ा हुआ है। धीरे-धीरे कौन कंपनी सहायक बनती जा रही है और कौन सी प्रमुख। भास्कर समूह का लक्ष्य है कि 2017 तक वो अपने बिजली उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर 5,000 मेगावाट कर ले। [25] 

दिलचस्प ये है कि वो सिर्फ दो राज्यों की संभावना के आधार पर यह दावा कर रहा है। देश में फिलहाल बिजली उत्पादन में सबसे ज्यादा 53.7 प्रतिशत भागीदारी तापीय ऊर्जा क्षेत्र का है जो इस समय 167.3 गीगावाट से ज्यादा बिजली पैदा कर रही है। [26] भास्कर समूह इसमें बेहतर भविष्य देखते हुए निवेश कर रहा है और इस निवेश को वैचारिक मजबूती और वैधता देने के लिए अपने मीडिया उपकरणों का इस्तेमाल कर रहा है।

बहरहाल सवाल ये है कि दैनिक भास्कर अगर बिजली में निवेश कर भी रहा है तो आपत्ति की वजह क्या है? आपत्ति इसलिए है क्योंकि भास्कर ने जिस मुद्दे पर कॉनक्लेव आयोजित किया और जिस राज्य को उसने 'फोकस स्टेट' घोषित किया वहां पर कंपनी के ऊंचे आर्थिक हित दांव पर लगे हुए हैं लेकिन अखबार ने भाग लेने वाली बाकी सारी कंपनियों का जिक्र किया लेकिन खबर में अपनी कंपनी डीबी पावर या डिलीजेंट पावर का कहीं नाम तक नहीं आने दिया। यानी भास्कर समूह पाठकों को यह नहीं बताना चाहता कि कार्यक्रम के आयोजन के जरिए वो राज्य पर एक खास तरह का दबाव बनाना चाहता है कि ताकि उसके आर्थिक सड़क पर दौड़ने वाली गाड़ी की रफ्तार तेज हो जाए। दूसरी वजह यह हो सकती है कि पावर, टाऊनशिप, खनन या फिर रियल एस्टेट से जुड़े किसी भी धंधे के साथ दाग की एक ऐसी मुहर पिछले कई सालों से छप चुकी है कि सामान्य लोगों के जेहन में एकबारगी यहीं बात कौंधती है कि हेर-फेर से ही कंपनी ने कुछ किया होगा! भास्कर समूह पाठकों के बीच इस संतुलन को बनाए में लगातार सफल हो रहा है इसलिए अपनी पाठक संख्या में हर साल कुछ आंकड़े वो जोड़ ले जाता है। [27]

डीबी कॉर्प प्राइवेट लिमिटेड (मीडिया समूह) ने 2011-12 में 202 करोड़ रुपए का मुनाफा कमाया। [28] दिसंबर 2009 की स्थिति के मुताबिक देश में इस कंपनी के कुल 58,787 शेयरधारक हैं जो दिन-रात कंपनी की तरक्की में अपनी तरक्की की आस लगाए बैठे रहते होंगे। [29] इन आधे लाख से ज्यादा लोगों में दैनिक भास्कर के जितने भी पाठक होंगे उन्हें अखबार के कंटेंट की राजनीति और अर्थव्यवस्था से ज्यादा मतलब होगा कि इस समूह की कोई भी कंपनी कुलांचे मारकर आगे बढ़े ताकि उसके असर से डीबी कॉर्प के शेयर में उछाल आ सके और उसके असर तले शेयरधारकों की जेब का वजन कुछ बढ़ पाए। डीबी कॉर्प के 18 करोड़ 15 लाख शेयर में ही पत्रकारिता का सबकुछ छुपा है। [30] इसलिए दैनिक भास्कर को समझने के लिए उसके पन्नों के बराबर ही दलाल स्ट्रीट पर भी नजर रखने की जरूरत है।  
  
पुनश्च-
दैनिक भास्कर ने 30 मार्च को पावर विजन नाम से आठ पेज का अलग से सप्लिमेंट जारी किया जिसमें देश और खासकर मध्य प्रदेश की ऊर्जा जरूरतों को कैसे मिटाया जाए उसकी रूपरेखा खींची गई थी।

संदर्भ

1. क्रॉस मीडिया ओनरशिप दो तरह के होते हैं। पहला, जब एक ही कंपनी अखबार, पत्रिका, रेडियो या फिर टीवी में से एकाधिक पर मालिकाना दिखाए तो वो वर्टिकल क्रॉस मीडिया ओनरशिप है। दूसरा, जब एक मीडिया कंपनी मीडिया से बाहर के क्षेत्र में निवेश कर मालिकाना हक हासिल करे। ये होरिजोंटल क्रॉस मीडिया ओनरशिप कहलाता है। अमेरिका सहित यूरोप के ज्यादातर देशों में इस पर पाबंदी है। 
2. दैनिक जागरण अखबार निकालने वाले दैनिक जागरण प्राइवेट लिमिटेड का सहारणपुर में चीनी का व्यवसाय है। 
3. दैनिक भास्कर का ऊर्जा उत्पादन और तेल का व्यवसाय भी है। 
4. आर्यन कोल बेनीफिशिएशन कंपनी ने जैसे हरिभूमि अखबार शुरू कर दिया। देश में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं।
5. दैनिक भास्कर, 29 मार्च 2013, राष्ट्रीय संस्करण, 
6. भास्कर में इससे जुड़ी खबरें 24, 25 और 27 मार्च को छपीं। 
7. चूंकि बाद की खबरों में कुछ भी नई घोषणा या फिर विस्तृत जानकारी नहीं दी गईं इसलिए एक ऐसे आयोजन की खबर जो आने वाले दिनों में होने जा रहा हो, बिना किसी नए अपडेट के बार-बार नहीं छापी जा सकती। 
8. दैनिक भास्कर, 27-03-2013, राष्ट्रीय संस्करण
9. http://diliigentpower.com/html/aboutus.html
10. कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट। इंडियन एक्सप्रेस की स्टोरी- http://www.indianexpress.com/news/coalgate-cbi-grills-amrs-arvind-jayaswal/1003757 
11. कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट। और देखें- http://www.hindustantimes.com/business-news/CorporateNews/DB-Power-may-lose-coal-block/Article1-922146.aspx
12. दैनिक भास्कर इस प्लांट को लेकर लगातार कोशिश कर रहा है और कई निजी इक्विटी कंपनियों से बात कर रहा है। इकनॉमिक टाइम्स ने इस पर कई स्टोरी की। यहां देखें- http://articles.economictimes.indiatimes.com/2013-02-06/news/36949657_1_power-projects-pe-investors-chhattisgarh-project 
13. आशीष खेतान, लूट की छूट, तहलका, 03.10.2013 वेब लिंक- http://www.tehelkahindi.com/rajyavar/%E0%A4%9B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A4%A2%E0%A4%BC/1432.html
14. Dainik Bhaskar: First newspaper printed at Raigarh; Chhattisgarh. वेब लिंक- http://www.dainikbhaskargroup.com/archives.php   
15.  http://www.edelweissfin.com/Portals/0/Documents/Investment_banking/part1_ACB_INDIA_LIMITED_31stMay.pdf 
16. देखें- इकनॉमिक टाइम्स। वेब लिंक- http://articles.economictimes.indiatimes.com/2013-02-06/news/36949657_1_power-projects-pe-investors-chhattisgarh-project
17. वही
18. दैनिक भास्कर, 29 मार्च 2013, राष्ट्रीय संस्करण
19. John Pilger, War by Media, वेब लिंक- http://www.informationclearinghouse.info/article13629.htm 
20. केयर रेटिंग्स (CARE Ratings) की डीबी पावर पर रिपोर्ट। वेब लिंक - http://www.careratings.com/Portals/0/CareAdmin/CompanyFiles/RR/DB%20Power%20Limited-06202011.pdf 
21. वही और आशीष खेतान, लूट की छूट, तहलका, 03.10.2013
22. आशीष खेतान, लूट की छूट, तहलका, 03.10.2013 
23. केयर रेटिंग्स की डी बी पावर पर रिपोर्ट। वेब लिंक- http://www.careratings.com/Portals/0/CareAdmin/CompanyFiles/RR/DB%20Power%20Limited-06202011.pdf और डीबी पावर विजन का आधिकारिक पेज - http://dbpowervision.com/about 
24. डी बी कॉर्प का फायनेंसियल हाइलाइट्स के तहत कंपनी का कुल मूल्य वित्त वर्ष 2011-12 में 1,246 करोड़ रुपए का था। केयर रेटिंग्स की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ के पावर प्लांट के लिए डीबी पावर प्राइवेट लिमिटेड ने इक्विटी कंपनियों की मदद से 6,640 करोड़ रुपए लगाए। 
25. http://diliigentpower.com/html/mission.html
26. केयर रेटिंग्स की रिपोर्ट। 
27. आईआरएस रिपोर्ट के मुताबिक भास्कर को 2012 की चौथी तिमाही में पढ़ने वाले लोगों की संख्या 1 करोड़ 44 लाख है। 
28. Statement of consolidated unaudited results of the quarter and nine months ended December 31, 2012
29. 31 दिसंबर 2009 तक की स्थिति के मुताबिक। Share holding patterns. वेब लिंक- http://investor.bhaskarnet.com/pages/shares.php?id=3 
30. वही। 



03 अप्रैल 2013

विकास संचार और मुक्त सूचना प्रवाह के अंतर्संबंध के राजनीतिक पहलू


दिलीप ख़ान 
1940 के दशक में संचार के क्षेत्र में एक साथ कई तरह के सिद्धांत एवं अवधारणाएं उभर कर सामने आईं। ज़्यादातर अवधारणाओं पर सुनियोजित ढंग से काम द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका में शुरू हुआ। इनमें से दो महत्वपूर्ण अवधारणाओं- विकास संचार और मुक्त सूचना प्रवाह- पर यहां चर्चा की जाएगी कि कैसे ये दोनों वैश्विक राजनीति में कभी साथ–साथ तो कभी एक-दूसरे के विरोध में नज़र आए और साथ-साथ रहने तथा विरोध में होने के असल कारण क्या थे। पश्चिमी पूंजीवादी देशों ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए इन अवधारणाओं को किस तरह पेश किया और दुनिया भर में इसके इस्तेमाल के किन नए तरीकों का ईजाद किया, साथ ही इस बात की भी पड़ताल की जाएगी कि तीसरी दुनिया के देशों के पास मुक्त सूचना प्रवाह के विकल्प के तौर पर ज़ोर-शोर से नई विश्वी सूचना और संचार व्यवस्था के पक्ष में गोलबंद होने के पीछे क्या कारण और तर्क थे तथा इस व्यवस्था का संचार के वैश्विक मंच पर क्या नतीजे निकलकर सामने आए? सूचना युग की सच्चाई और राजनीति भी चर्चा का हिस्सा होगी।
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(मूल रूप से जन मीडिया के वॉल्यूम-1, अंक-4 में प्रकाशित) 
नोट- लेख 2010 में लिखा गया था।