26 जून 2013

हम यह जानते हैं कि यह पृथ्वी मनुष्यों की नहीं है.

सारी जनता के लिए सीएटल के मुखिया  का पत्र

“सिएटल का मुखिया” (1870 से 7 जून 1866) अमेरिका की द्वामिष/सुकामिश जनजाति का मुखिया था जिसे सील्थ ,सीथ्ले ,सीथल व सी-अहथ नाम से भी जाना जाता है । संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन मे स्थित सिएटल शहर का नामकरण इसी के नाम पर हुआ.। अमेरिकी मूलनिवासियों के जमीन के अधिकार व परिस्थितिकी जिम्मेदारियों के संबंध में  विस्तृत रूप से प्रचारित तर्कपूर्ण  भाषण का श्रेय इसे ही दिया जाता है । हालांकि इसके पत्र और भाषण के संबंध में विवाद है कि  वह बाद में अन्य व्यक्तियों द्वारा संपादित हैं।
ऐसा कहा जाता है कि सीएटल का मुखिया ,जोकि सुकामिश अमेरिकी मूलनिवासियों का प्रमुख था ने 1800 में अमेरिकी सरकार को यह पत्र लिखा- इस पत्र में  उसने सभी विद्यमान वस्तुओं की सर्वजनीनता व मनुष्य व प्रकृति के अंतर-सम्बन्धों की अत्यंत गहन समझ प्रस्तुत किया । यहाँ यह पत्र दिया जा रहा है जिससे विश्व के हर देश के माँ-बाप और बच्चों के मस्तिष्क व हृदय को शिक्षित किया जाना चाहिए : अनुवाद: प्रेम प्रकाश


फोटो- पंकज दीक्षित
“वाशिंगटन से राष्ट्रपति ने हमें संदेश भेजा है कि वह हमारी जमीन खरीदना चाहते हैं। लेकिन आप धरती का; आसमान का; क्रय –विक्रय कैसे कर सकते हैं? यह विचार हमारे लिए अजीब व विस्मयकारक है । यदि हवा की ताजगी और पानी की चमक हमारी मिल्कियत नहीं है तो आप उसे कैसे खरीद सकते हैं ?
हमारे लोगों के लिए धरती का प्रत्येक भाग पावन है । चीड़ की हर चमकदार नुकीली हरी पत्ती, प्रत्येक समुद्री बलुआ किनारा ,गहरे घने जंगलों का कुहासा , घास का प्रत्येक मैदान,मक्खियों  की भिनभिनाहट ये सब हमारी स्मृति और अनुभव में पवित्र हैं ।
हम पेड़ों में बहते रसों के प्रवाह से ऐसे परिचित हैं जैसे हमारी रगों में बहता हमारा लहू । हम धरती के हिस्से हैं और यह धरती हमारा। सुगंधित पुष्प हमारी बहन है । भालू ,हिरन,महान गरुड़ ये सब हमारे भाई हैं । चट्टानी चोटियाँ ,घास के मैदान की शबनम ,छोटे घोड़ों की गरम शरीर और मनुष्य सब एक परिवार हैं ।
सोतों और नदियों में बहता चमकदार पानी केवल पानी नहीं है ,बल्कि यह हमारे पुरखों का रक्त है । यदि हम अपनी जमीन आपको देते हैं तो आपको याद रखना चाहिए की यह परमपावन है । झील के स्वच्छ पानी में प्रत्येक चमकदार परावर्तन हमारे लोगों की जिंदगी की घटनाओं और स्मृतियों की कहानी कहता है । पानी की कल-कल ध्वनि मेरे पूर्वजों की आवाज है ।
नदियां हमारे भाई हैं । वे हमारी प्यास बुझाती  हैं । वे हमारी डोंगी को खेती हैं और हमारे बच्चों का भरण करती हैं । अतः आपको नदियों से वैसी ही उदारता रखनी चाहिए जैसी आप अपने भाई से रखते हैं ।
यदि हम आपको अपनी धरती देंगे तो याद रखिए कि वायु हमारे लिए अनमोल है, वायु अपनी आत्मा उन सभी ज़िंदगियों में बांटती है जिसे यह सहारा देती है । वायु जिसने हमारे दादा को पहली श्वास दिया उसने ही उनकी अंतिम आह भी ग्रहण किया । हवा ने ही हमारे बच्चों को जीवन का जोश दिया । अतः यदि हम आपको अपनी धरती देते हैं तो उसे इस तरह से पृथक और पवित्र रखना कि वह एक ऐसी जगह हो जहां लोग जा सकें और मैदानों के पुष्पों से मधुसिक्त हवा का स्वाद ले सकें । 
क्या आप अपने बच्चों को वह सिखयेंगे जो हमने अपने बच्चों को सिखाया है? यह कि धरती हमारी माँ है । जो कुछ भी  पृथ्वी के साथ बुरा होता है वह पृथ्वी के सभी संतानों के साथ होता है । 
हम यह जानते हैं कि यह पृथ्वी मनुष्यों की नहीं है बल्कि मनुष्य धरती के हैं । सभी चीजें रक्त की तरह जुड़ी है और हम सभी को एकताबद्ध करती हैं । मनुष्य ने जीवन का जाल नहीं बुना था ,वह मात्र इसका एक रेशा है । जो कुछ भी यह इस जाल के लिए करता है वह उसे स्वयं के लिए करता है । 
हम मात्र इतना जानते है कि हमारा ईश्वर ही आपका ईश्वर है । धरती उसके लिए अनमोल है और धरती को नुकसान पहुंचाना इसके सृजन-कर्ता का सबसे बड़ा तिरस्कार है ।
आपका भाग्य हमारे लिए रहस्य है । क्या होगा जब भैंसों का बध कर दिया जाएगा? जंगली घोड़ों को पालतू बना लिया जाएगा ? क्या होगा जब जंगल के अज्ञात कोने बहुत से आदमियों की गंध से भर जाएंगे और फलदार पहाड़ियों का दृश्य तारों को ले जाने के लिए नष्ट कर दिये जाएंगे? पेड़ों व झाड़ियों के झुरमुट कहाँ विलुप्त हो जाएंगे? गरुड़ कहाँ चले जाएंगे? और तेज रफ्तार छोटे घोड़ों को क्या अलविदा कहा जाएगा, फिर शिकार किया जाएगा? जीवन का अंत और जिंदा रहने के संघर्ष की शुरुआत । 
जब अंतिम रेड मूल-निवासी इस तरह की मरुभूमि द्वारा खत्म किया जा चुका है और उसकी स्मृतियाँ प्रेयरी प्रदेश के ऊपर घूमते बादल की छाया मात्र है , क्या ये समुद्री तट और जंगल यहाँ रहेंगे ? क्या यहाँ मेरे लोगों की आत्मा का एक भी अंश बचेगा ?
हम इस धरती को वैसे ही प्यार करते हैं जैसे एक नवजात अपनी माँ की धड़कन से प्यार करता है । अतः ,यदि हम अपनी जमीन आपको देंगे तो उसे वैसे ही प्यार करिए जैसे हमने इसे प्यार किया है। इसका वैसे ही खयाल रखिए  जैसे हमने इसका खयाल रखा । अपने मस्तिष्क में इस जगह की वैसी ही स्मृतियाँ सहेजिए  जैसी की यह अब हैं जब इसे आप प्राप्त कर रहे हैं। सभी बच्चों के लिए धरती की हिफाजत करिए और इसे प्यार करिए  जैसे ईश्वर हमसे प्यार करता है।  
जैसे हम धरती के हिस्से है उसी तरह आप भी धरती के हिस्से हो । पृथ्वी हमारे लिए अनमोल है । यह आपके लिए भी अनमोल है ।
  हम एक बात जानते हैं –केवल एक ही ईश्वर है । कोई भी –चाहे वह रेड-मैन हो या ह्वाइट–मैन इसका एक अंग है । आखिरकार हम सभी भाई हैं”। 



वरवर राव से बातचीत तीसरा भाग.



माओवादियों के वार्ताकार होने के आधार पर आप तब कैसा महसूस करते हैं जब मीडिया माओवाद को ‘आंतरिक आतंकवाद’ और ‘देश के लिए बड़े खतरे’ जैसा कहता है?

मीडिया तो वैसे ही बनाता है। ये नहीं कि मनमोहन सिंह ने कहा है इसीलिए मैं...। रोजाना मीडिया वही प्रचार कर रहा है और उसे मानने के लिए भी मिडिल शासक तैयार हैं। ऐसी स्थिति बनी है, इसीलिए समस्या हो रही है लेकिन अब एक अंतर आ गया है। ग्रास-रूट लेवल पर जो संघर्ष कर रहे हैं, आदिवासी लोग हैं, दलित लोग हैं, किसान-मजदूर लोग हैं, वे अपने लिए, अपने साथ रहकर काम करने वाले माओवादी क्या कर रहे हैं, ये समझ गए हैं। वे मीडिया पर निर्भर नहीं हैं उनके बारे में समझने के लिए। जो टाउन्स में, अर्बन्स में रहने वाले मिडिल-क्लास लोग हैं, उनको तो सही पहचान माओवादियों के बारे में नहीं हो रही है, यह एक बड़ी समस्या है क्योंकि 1857 से लेकर आज तक हम देखते हैं कि संघर्ष करने वाले किसान-मजदूरों को बुद्धिजीवियों का समर्थन मिल रहा था क्योंकि उसे मालूम होता था कि ग्रास-रूट लेवल पर क्या हो रहा है। आज ऐसा नहीं है। अगर है भी तो दूसरी बात है कि आज बुद्धिजीवियों को खरीद लिया गया है। कॉरपोरेट सेक्टर ने उन्हें खरीद लिया है। पहले गाँव में जब टीचर होते थे, उनका बहुत ही कम वेतन हुआ करता था। वेतन न हो तो गाँव की जनता के ऊपर निर्भर होकर बच्चों को पढ़ाते थे। यानी, वे जनता के साथ रहते थे। आज स्थिति बदल गई है। आज टीचर को, प्रोफेसर को एक लाख रुपए वेतन मिलता है और पढ़ाने की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है। तो क्या अपेक्षा करते हैं? क्योंकि बात यहाँ तक आ गई बुद्धिजीवी के लिए कि अब वे चेतना से जनता के पक्ष को रख सकते हैं, स्थिति से जनता के पक्ष नहीं रख सकते। स्थिति बहुत बदल गई है, हमारी लाइफ़-स्टाइल बहुत बदल गई है। हर तरफ़ से टैक्स मिल रहा है। घर आकर कार देता है, बाद में इंस्टॉलमेंट में कीमत लेता है। टी.वी. देता है। सभी उपकरण जो मनोरंजन के, रहने के हैं, आपके घर में आ जाते हैं, इंस्टॉलमेंट में ले सकते हैं और सरकार भी बहुत बड़े पैमाने पर आपको वेतन देती है। यह सहूलियत सॉफ्टवेयर में है, यूनीवर्सिटीज में है, हर जगह है, आपको जनता से अलग करने के लिए। ऐसी स्थिति में आप जनता का पक्ष लेने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि आपकी वैसी स्थिति नहीं है। भूख को महसूस करने की स्थिति ही नहीं है आपकी। भूखी पीढ़ी का पक्ष कैसे रख सकते हैं? चेतना से रख सकते हैं, कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। अब कितने लोग हो सकते हैं जो अपनी चेतना को...। आज देखिए न, एक विरोधाभास है, आदिवासी लोग जंगल में रहते हैं और हमारी जो ये पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी है, ये तो नंबर से बनने वाली है। अब एक नंबर से बनने वाली पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी, जिसे मेजोरिटी डेमोक्रेसी कहते हैं। इस मेजोरिटी डेमोक्रेसी में आठ-दस प्रतिशत रहने वाले आदिवासियों की चेतना डिसाइड नहीं करती तो कौन-सी बात डिसाइड कर सकती है क्योंकि मैंने केरल जाकर देखा था, वहाँ चार प्रतिशत ही आदिवासी लोग हैं। 1970 से लेकर नब्बे के दशक तक जनता के लिए लिखने वाला, एक बड़ा मशहूर लोक-साहित्य का कवि, रामाकृष्णा मिनिस्टर बन गया। बहुत ही अच्छी तरह आदिवासियों के लिए लिखा। मैंने उनसे पूछा, ‘यह नेशनल पार्क क्यों बनवाया? आदिवासी महिला के ऊपर इतना क्यों हमला हो रहा है? यहाँ की जो जाति है, जिसका नाम कुछ है, जो एंटी नेशनल पार्क स्ट्रगल चलाया है।’ कहा, “नहीं-नहीं, जमाना बदल गया है।” “नहीं-नहीं, जमाना नहीं बदला, तुम बदल गये हो।” और एसेम्बली में बैठकर रेजोल्यूशन करते हैं एंटी-आदिवासी क्योंकि पूरे गैर-आदिवासी लोग हैं। वे डिसाइड कर रहे हैं। इसीलिए तो मेरा कहना है कि बात (आदिवासियों के संबंध में) ज्यादा लोग पूछ रहे हैं, ऐसा नहीं होता है। अब सोम पेटा हुआ है। वहाँ समस्या खासकर किसके लिए आ रही है? फिशरमैन (मछुआरों) के लिए आ रही है, किसानों के लिए आ रही है। श्रीकाकुलम जिले की आबादी में वे लोग माइनॉरिटी (अल्पसंख्यक) ही हो सकते हैं और उनकी जिंदगी खत्म हो रही है। ये संख्या से निश्चय करते हैं या न्याय-अन्याय से डिसाइड करते हैं? महाभारत में जब पांडव जंगल में जा रहे होते हैं तो द्रौपदी उनके साथ जाती है, कुन्ती नहीं जा पाती। तो कुन्ती द्रौपदी से एक बात कहती है – “सुनो! अब तो बारह साल के लिए इन लोगों की तुम्हीं देखभाल कर लेना। ये युधिष्ठिर है, बड़ा है, तुम्हारे मन में भी उसके लिए सम्मान है। पकाने और खिलाने के समय तुम यह बात मन में रखती हो, मुझे बताने की जरूरत नहीं। भीम है, वो तो छीन लेता है, उसके बारे में भी कुछ कहने की जरूरत नहीं। अर्जुन है, उसके लिए तुम्हारे मन में प्रेम है। इन तीनों के बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं पर ये जो नकुल-सहदेव हैं, छोटे बच्चे हैं। ये पूछते नहीं, ये मुँह से कहते नहीं हैं। इनके बारे में सोचो।” यानी oppressed of oppressed के बारे में, जिसे न्याय मिलना है, उसके बारे में सोचो। यानी आज की डेमोक्रेसी की एक परिभाषा यह होनी चाहिए कि एक्सप्रेशन मे कौन-से लोग Oppressed हैं? उनको क्या मिलना चाहिए? आदिवासियों में भी बंजारों को बहुत कुछ मिल रहा है लेकिन कोया, गोंड, इन लोगों को क्या मिल रहा है? दलितों में भी माला (मेहतर) जैसी जाति को मिल रहा है, लेकिन मादिगा (चमार), को क्या मिल रहा है? डक्करी को क्या मिल रहा है? सब-कास्ट को क्या मिल रहा है? यह सोचना ही डेमोक्रेसी होती है, न्याय होता है। ये सब चेतना से डिसाइड कर सकते हैं मगर मेजोरिटी-माइनॉरिटी, ये जो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी की बातें हैं, उससे तो नहीं हो सकता।

माओवाद-नक्सल आन्दोलन और आदिवासी उन्मूलन के सन्दर्भ में क्या भारतीय मीडिया का नजरिया बदलना चाहिए?

बदलना तो चाहिए ही लेकिन भारतीय मीडिया के सेल्फ इंटरेस्ट से तो समस्या आती है। उसका इंटरेस्ट तो है ही मगर उससे ज्यादा क्या चाहेगा? जन-आंदोलन को अपना मीडिया बनाना है, एक वैकल्पिक मीडिया बनाना चाहिए, जनता का मीडिया बनाना चाहिए और वह ग्रास-रूट लेवल से बनती आनी चाहिए क्योंकि समझिए, आपने एक ग्लास हाउस (शीशे का घर) बना लिया है। अब ग्लास हाउस के ऊपर पत्थर डालने वाले लोगों की हिफ़ाजत के लिए ग्लास हाउस में रहने वाले तो काम नहीं करते। तो ग्लास हाउस पर पत्थर डालने वाले लोगों के लिए एक अलग मीडिया बननी है। तो जैसा (सत्यजीत राय की फिल्म) प्रतिद्वंद्वी में एक कैरेक्टर कहता है कि “सिर्फ बम डालना ही नहीं है, अपना बम तुमको ही बनाना है।” तो क्रांति करने वाले जैसे क्रांति के लिए अपने आप शस्त्र बनाते हैं या पुलिस-स्टेशन पर हमला करके छीन लेते हैं, वैसे ही अपना मीडिया भी खुद बना लेना है या जनांदोलन के प्रभाव से मीडिया के ऊपर दबाव लाकर अपनी बातें रखने के लिए उसके ऊपर दबाव डालना है। जब दबाव बनता है, जैसे 2004 में जब दबाव बना तो हमारी ख़बरें दी गईं। जब दबाव नहीं बनता है, तो हमारी ख़बरें नहीं दी जाती हैं। जैसा मार्क्स ने भी कहा है कि केवल जल-जंगल-जमीन की मुक्ति नहीं, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को भी मुक्त करना है Judges are to be judged, prosecutors are to be prosecuted. वह होना है। उसके लिए अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को हमें मुक्त करना है। इसे करने के लिए वैकल्पिक मीडिया बनाना है, वैकल्पिक पीपुल्स मीडिया बनाना है, वैकल्पिक भाषा को बनाना है, वैकल्पिक संस्कृति को बनाना है। आज ‘वैकल्पिक’ नहीं हो सकता है, वो ‘पीपुल्स’ (जनता का) ही होना चाहिए। मगर उस पर आक्रमण हो रहा है। उसे इस आक्रमण से मुक्त करके हमें जनता के हित में करना है।

क्या तेलुगु, तमिल, मलयालम, बंगला जैसी भाषाई पत्रकारिता ज्यादा जनपक्षीय भूमिका निभाती है?

क्रांति की स्थिति बहुत आगे रही तो मजबूरन उसका पक्ष लेते हैं, वैसी नहीं रही तो पक्ष नहीं लेते। दूसरी तरफ़ जितनी अंग्रेजी, हिन्दी भाषाओं का निहित स्वार्थ है उतना निहित स्वार्थ नहीं रहे तो थोड़ा बचते हैं। समझिए, दैनिक भास्कर है। दैनिक भास्कर की छत्तीसगढ़ में बहुत सी कोयले की कंपनियाँ हैं तो उसका निहित स्वार्थ ज्यादा होता है। वहीं आंध्र प्रदेश का एक छोटा-मोटा न्यूज पेपर होता है, उतना निहित स्वार्थ नहीं होता है, तो रिपोर्ट नहीं होती है। यहीं आप छत्तीसगढ़ आंदोलन को देखिए। दंडकारण्य आंदोलन के बारे में भोपाल से आने वाले, अलग क्षेत्रों से आने वाले, रायपुर से आने वाले हिंदी पेपर्स में रिपोर्टिंग बहुत रिटॉर्टेड (तोड़ी-मरोड़ी गई) होती है, लेकिन हैदराबाद से आने वाला जब भद्राचलम से रिपोर्टिंग करता है, तो उतना ‘बायस्ड’ (पक्षपातपूर्ण) नहीं होता क्योंकि उसका उतना निहित स्वार्थ नहीं है, तो फ़र्क होता है। तमिल मीडिया वहाँ के ईलम के इश्यू को लेकर क्या रिपोर्टिंग करता है? एल.टी.टी.ई. के बारे में वह क्या रिपोर्टिंग करता है? केरल में यू.ए.पी.ए. लागू किया जा रहा है, वहाँ का मीडिया कोई रिपोर्टिंग नहीं करता है। तो वहाँ भी एक निहित स्वार्थ काम करता है और ज्यादातर पूरे मीडिया को कंट्रोल कर रही हैं मल्टीनेशनल कम्पनियाँ। यहाँ तक कि क्षेत्रीय अख़बार भी मल्टीनेशनल कंपनियों के दलाल बन गए हैं। एक भी अख़बार या चैनल ऐसा नहीं है जिसके ऊपर टाटा या अम्बानी का कंट्रोल न हो। नमस्ते तेलंगाना नाम का एक न्यूज पेपर है। उसका एक चैनल है, टी न्यूज चैनल। ये टी न्यूज चैनल, राज न्यूज से लिंक होता है, जी.टी.वी. से लिंक होता है, क्योंकि अलग से चल नहीं सकता। एक विशिष्टता होती है जो कि मल्टीनेशनल कम्पनी की ही होती है, यही समस्या है।

पोस्को, जैतापुर, कुंडनकुलम, तेलंगाना की ख़बरें इन दिनों राष्ट्रीय मीडिया की बड़ी ख़बर नहीं हैं। ख़बरें कौन रोकते हैं – सरकार या उद्योगपति?

दोनों ही। उद्योगपति के लिए सरकार रोकती है। उद्योगपति भी छोटे-मोटे तो हैं नहीं। उद्योगपति कॉरपोरेट हैं और ख़बरें उनके इंटरेस्ट में सरकार रोकती है। इंटरेस्ट उनका है।

अम्बानी परिवार के ख़िलाफ़ देश के किसी हिस्से में कोई ख़बर लीक नहीं हो सकती। आखिर क्यों?

क्योंकि कल ही अरुंधति रॉय कह रही थीं, “आप क्यों इतनी बहस कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी बनेगा या राहुल बनेगा? यह बहस क्यों? जो भी बने, बनाने वाला अम्बानी है, टाटा है।” सवाल यह है, देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कौन होते हैं? दिखने वाले कठपुतली हैं ये लोग। इनको चलाने वाले तो अलग हैं – अंबानी है, टाटा है, बात यह है। इसलिए अम्बानी के विरोध में कहीं ख़बर लीक नहीं हो सकती।

आप जनपक्षीय पत्रकारिता की दिशा में प्रेस-काउंसिल और काटजू जी की भूमिका से संतुष्ट हैं?

(हँसते हुए) नहीं हैं, क्योंकि खासकर हमारा अनुभव है कि जब ‘चेयरमैन ऑफ़ दि प्रेस काउंसिल’ होते हुए काटजू यहाँ आया था, हम कुडनकुलम में ‘फैक्ट फाइंडिग’ के लिए गए थे। वरलक्ष्मी (हमारी संस्था की सचिव) भी गई थी जो वहाँ गिरफ्तार कर ली गई। देश-भर के एक ऑल इंडिया फैक्ट फाइंडिंग, आर.डी.एफ. ने आयोजित किया। वहाँ क्रांति चलाने के लिए उड़ीसा, दिल्ली, राँची सहित अन्य जगहों से लोग आए थे। यहाँ से वरलक्ष्मी और तीन लोग गए जो वहाँ गिरफ्तार कर लिए गए। एक महीने के लिए जेल में रहे। मीडिया ने इनका फोटो लगाकर खूब प्रचार किया कि ‘ये सब माओवादी हैं। वरलक्ष्मी माओवादी है और वरलक्ष्मी का पति एक ‘अंडरग्राउंड’ माओवादी नेता है।’ जबकि सच्चाई यह है कि वरलक्ष्मी की शादी ही नहीं हुई है। तमिल न्यूज पेपर, तमिल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने खूब झूठा प्रचार किया। दैनिक ईनाडु है, जिसका सबसे बड़ा सरक्युलेशन रहता है। उसने भी ख़बर छापी। हमने प्रोटेस्ट किया, तो उसका कहना था कि ‘आप भी लिखिए, हम वह भी छापेंगे।’ आज कोई बड़ा विषय होता है, कल हमारा खंडन होता है और दूसरा न्यूज आता है। इसे लेकर हमने प्रेस-काउंसिल से शिकायत की। प्रेस-काउंसिल का चेयरमैन दो-तीन रोज के लिए यहाँ आया था। उसके एजेंडे में यह मुद्दा ही नहीं था। मैं उससे मिलने के लिए गया तो पता चला कि वह मुख्यमंत्री से मिलने गया है, तो मैं पुष्पराज के कहने के बाद प्रेस-काउंसिल के एक सदस्य से मिला। तो प्रेस-काउंसिल के सदस्य ने कहा कि ‘मुझे शिकायत ही नहीं मिली है। आप फिर से दीजिए।’ यह एक स्थिति है। दूसरी स्थिति यह है कि इतना बड़ा जनांदोलन चल रहा है, इतने छात्रों ने खुदकुशी कर ली है, तेलंगाना मुद्दे को लेकर हजारों लोग परेशान हैं लेकिन वह (काटजू) यहाँ आकर इसके विरोध में बयान देकर जाता है और ईनाडु के बारे में जो शिकायत आती है, वो नहीं लेता है। कहता है कि ‘मुझे सी.एम. ने डिनर पर बुलाया है।’ आपको तो रामोजी राव डिनर देता है, आपको तो मुख्यमंत्री डिनर देता है, तो आप कैसे शिकायत लीजिएगा? आप ही बोल रहे हैं कि ‘मैं नहीं जा सकता हूँ, मैं नहीं ले सकता हूँ।’ यह कैसा जनपक्ष होता है? हाँ, हमको लगता है कि जो सेक्युलर डेमोक्रेटिक इश्यूज हैं, उन पर उसका रवैया तो ठीक लगता है लेकिन समस्या यह है कि जब मुद्दा वर्ग का होता है तो हम कहीं भी न्याय की आशा नहीं कर सकते।

भारतीय मीडिया की वह भूमिका जिसने आपको निजी तौर पर बहुत दुखी किया? आप जनांदोलनों की वैकल्पिक मीडिया के बारे में क्या सोचते हैं?

जनांदोलन का मीडिया बन रहा है और बनाया भी जा रहा है। छोटी-छोटी डॉक्यूमेंट्री फिल्में बन रही हैं। हाल ही में संजय काक ने बहुत अच्छी फिल्म बनाई है ‘रेड आंट ड्रीम’ (माटी के लाल)। उन्होंने तीन मुद्दे लिए हैं। दंडकारण्य में क्या हो रहा है? जब अरुंधति रॉय गई थीं तो संजय काक भी गए। दंडकारण्य में कैसा जनतंत्र है? क्या प्रयोग किए जा रहे हैं? किन सपनों को हासिल करने के लिए वहाँ के लोग सोच रहे हैं? एक नियमगिरी आदिवासी ने क्या-क्या संघर्ष किए हैं? क्योंकि बाहर की दुनिया यह समझ रही है कि नियमगिरी एक स्पॉण्टेनियस (स्वत:स्फूर्त) आंदोलन है। वो (मीडिया) पूरा सच नहीं बता रहा है। वहाँ भी माओवादियों की भूमिका है। ज्यादा तो नहीं, मगर भूमिका है। तीसरा पंजाब को लेकर। भगत सिंह को लेकर आज तक क्रांति की क्या परंपरा है? क्या चल रहा है मल्टीनेशनल कम्पनियों में? इन तीनों को मिलाकर डॉक्यूमेंट्री बनाई है काक ने। हम इस फिल्म को इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी, हैदराबाद) में भी ले जाकर दिखाएंगे। तो एक वैकल्पिक, जनता के पक्ष में लेकर मीडिया आना चाहिए और इसके लिए छोटे-छोटे प्रयास होने चाहिए। ये हो रहे हैं और होंगे।

एन.जी.ओ. के कार्यों को मीडिया ने ‘विकासपरक पत्रकारिता’ का नाम दिया है। क्या आप एन.जी.ओ. की लीक से हो रही पत्रकारिता से संतुष्ट हैं?

कैसे संतुष्ट हो सकते हैं? क्योंकि उसका उद्देश्य यह है कि सारांश के तौर पर वह साम्राज्यवाद की सेवा कर रहा है। खासकर यह होता है कि क्रांति की बात को लेकर प्रचार होता है, तो क्रांति को ‘रिफॉर्म’ में खत्म करने के लिए एन.जी.ओ. आ रहा है, कॉन्सस (जागरूकता) में आ रहा है। मैंने हाल ही में एक फिल्म देखी थी, मिनुगुरुलु। इसे अमेरिका में रहने वाले एक एन.आर.आई. ने यहाँ आकर यह बनायी है। मुझे लगा कि इसे एक्शन एड सपोर्ट कर रहा है। थीम अच्छी है, बनाया भी बहुत अच्छा है। नेत्रहीन विद्यार्थियों का मुद्दा है। उनके होस्टल, उनके स्कूल, कितनी बुरी हालत में हैं! उनके लिए जो फंड मिलता है, उसे वहाँ के चलाने वाले खा जाते हैं और उनके लिए जो कमेटी है, कमेटी का चेयरमैन कैसे फंड को खा जाता है? फिल्म अच्छी बनी है। ‘अंधा होने से पहले वह अच्छा फोटोग्राफ़र था। बाद में एक एक्सीडेंट में वह अंधा हो गया। तो वो अपनी यादों के सहारे, अपने ज्ञान से, कैमरा लगाकर पूरी फिल्म बनाता रहता है, बहुत अच्छा! अगर क्रिएटिविटी देखी जाए तो as an art-piece, best art-piece. अब उसका पूरा-पूरा प्रयास होता है कि ये सब चीजें, नीचे जो हो रही हैं, उन्हें वह कलेक्टर को बताए। ये सब करके, कैमरा लगा के, और वह भी कलेक्टर के अटेंशन के लिए एक बड़े वाटर टैंक के ऊपर से कहता है कि ‘मैं खुदकुशी कर लूँगा।’ तो नीचे बहुत-से लोग आते हैं, पुलिस आती है, तो कलेक्टर भी आता है। तब उसने फिल्म बनाई। पूरा रिफॉर्म हो जाता है। यानी इससे क्या निकलता है देखने वालों को? जितना भी हो रहा है, भ्रष्टाचार हो या जो भी हो, कलेक्टर के नीचे एक सिस्टम है, उसी से हो रहा है। इसमें कलेक्टर नहीं है, इसमें पोलिटिकल सिस्टम नहीं है, इसमें दूसरे लोग नहीं हैं और ये रिफॉर्म करने वाला भी वही पालिटिकल सिस्टम है। वही रिफॉर्म करता है, ये फिल्म में है। जैसे ‘अंकुरम’ एक अच्छी जेन्यूइन फिल्म थी। फिल्म का एक पात्र झूठे मुठभेड़ में मारा गया, उसके बारे में जो बयान दिया गया, उस बयान को लेकर सरकार ने जाँच कराई और उसके लिए सजा भी दी। यह संदेश देने के लिए बहुत प्रभावशाली और बहुत विश्वसनीय फिल्म बनाई है। इसका उद्देश्य है रिफॉर्म की बात करना, वह कहीं सच्चाई में नहीं हो रहा है। आजाद के एन्काउंटर के बारे में सुप्रीम कोर्ट में गए तो बेंच ने कहा, “ये कैसे हो सकता है? रिपब्लिक अपने बच्चों को आप मार रहा है?” When we have petition the Supreme Court that was the first reaction of the Supreme Court. अन्त में क्या निकला है? सी.बी.आई. ने जाँच की, रिपोर्ट दी, क्या निकला है? दूसरी तरफ़ हमारा अनुभव है, कलेक्टर का अपहरण कर लिया, बहुत से डिमांड रखे, जनता के, आदिवासियों के। क्या नतीजा निकला? एक भी आदिवासी को नहीं छोड़ा, एक भी डिमांड पूरी नहीं की। समझिए, आप बताते हैं कि यह होने से बहुत रिफॉर्म आया है तो देखिए कि कहाँ आया है? सारे एन.जी.ओ. की कोशिश यह होती है कि क्रांति से रिफॉर्म में ले जाएँ, तो खासकर एन.जी.ओ. की भूमिका यह हो रही है कि लोगों की चेतना को वर्ग-संघर्ष की ओर न ले जाओ, वर्ग-संकट की ओर न ले जाओ, क्लास-कोलैबोरेशन (वर्ग सहभागिता) और एडजस्टमेंट (वर्ग सामंजस्य) में ले जाओ क्योंकि ये भी कॉरपोरेट स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट (संरचनात्मक सामंजस्य) करते हैं। एन.जी.ओ. स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट के लिए काम कर रहे हैं और इसीलिए मीडिया उनका बहुत प्रचार करता है।

क्या भारत में ‘प्रो-एस्टेब्लिस्मेंट जर्नलिज्म’ के समानांतर ‘एंटी-एस्टैब्लिशमेंट जर्नलिज्म’ खड़ा हो पाया है?

अब ऐसा नहीं है कि मीडिया में ही एंटी-एस्टेब्लिशमेंट लोग हैं, मगर वह तो ‘dominated by, controlled by Pro-establishment’. अब अपनी-अपनी छोटी-छोटी पत्रिकाएँ निकालनी हैं, इसीलिए तो एक समय था कि कलकत्ते में ‘छोटी पत्रिकाओं का आंदोलन चला। पीपुल्स मीडिया का एक आंदोलन आना चाहिए तो उतने पैमाने पर नहीं हो सकता, फिर भी अलग-अलग क्षेत्रों में डि-सेंट्रेलाइज्ड (विकेंद्रीकृत) रूप में आना चाहिए। अभी कोशिश हो रही है, ये बंद नहीं होनी चाहिए, बल्कि और भी ज्यादा होनी चाहिए।

भारत के बहुल पेशेवर पत्रकारों और चंद गैर-पेशेवर पत्रकारों के लिए आपकी कोई अपील?

जाइए, वहाँ देखिएगा, जहाँ ग्रास-रूट पर संघर्ष हो रहा है। जाइए, देखिए, आपको जो लगे, वो रखिए। बिना गए, बिना देखे, जो आपको दिया गया है, वो मत बताइए। सच्चाई को बाहर लाइए। बस...।


24 जून 2013

वरवर राव से बातचीत का दूसरा भाग.


यूरोपियन मीडिया, लैटिन-अमेरिकी देशों की मीडिया या अन्य देशों की मीडिया जिसकी किसी भूमिका से आप बहुत प्रभावित हुए हों?

वैसे तो मैं मीडिया की भूमिका से प्रभावित नहीं हूँ मगर मीडिया में लिखने वाले कुछ लेखकों से जरूर प्रभावित हूँ। खासकर एदुआर्दो गालेआनो एक जर्नलिस्ट है, लैटिन अमेरिका में। ज्यादातर उसने ‘गडमेला के स्टेबल’ को लेकर बहुत कुछ लिखा है पर समग्रता से पूरे लैटिन अमेरिका में, जितने भी देशों में अमेरिकन साम्राज्य के विरोध में संघर्ष चल रहा है, उसके बारे में रिपोर्टिंग करने और किताबें लिखने के लिए एदुआर्दो गालेआनो से बेहतर और कोई नहीं है। आजकल जेम्स पेत्रास है जो खासकर भूमंडलीकरण के विरोध में लिख रहा है। वैसे देखें तो ज्यादातर लोग फ्रीलांस करने वाले इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट हैं, इन्हें हम मीडिया नहीं कह सकते। मगर वो अपने लेखन से ऐसी जगह पहुँच गए हैं कि वे जो भी लिखें तो मीडिया लेता है, रॉयल्टी देता है क्योंकि लोग पढ़ते हैं। उनका लेखन बिकता है। जेम्स पेत्रास लिखे तो बिकता है, एदुआर्दो गालेआनो लिखे तो बिकता है, चॉम्स्की लिखे तो बिकता है।

एक समय था जब बाजार सहमति का निर्माण कर रहा था, Manufacturing the consent, कन्सेंट को मेन्यूफेक्चर कर रहा था। पहले इतना प्रचार करते हैं कि आप एक खास ‘ब्रांड’ का टूथ-पेस्ट उपयोग करें मगर आपके दाँत वैसे सफेद नहीं हो सकते। पहले टूथ-पेस्ट खरीदने के लिए मानसिकता को बनाता है (माइंड सेट करता है), बाद में टूथ-पेस्ट को प्रोड्यूस करता है। यानी सहमति की उत्पत्ति होती है। यह स्थिति थी। आज यहाँ तक कि मेन्यूफेक्चरिंग डिसेंट भी मार्केट करता है। अब देखिए, तेलंगाना में एक समय हमारी न्यूज छापना अख़बार बेचने के लिए एक अच्छी चीज थी। खासकर टास्क के समय में (2004 में), फर्स्ट पेज पर हेडलाइन होती थी हमारी न्यूज। अब रामकृष्णा का इतना प्रचार हुआ टास्क के समय में, खासकर बंदूक रखे हुए जो फोटो हैं, हजारों फोटो छापे हैं हजारों न्यूज पेपर में, क्योंकि वह बिकता है। मीडिया के बारे में बात करना, एक तरह का रोजॉर्न ऑन द कन्ट्राडिक्शन्स। उसका मालिक होता है, उसका प्रॉपराइटर होता है, उसके लिए निहित स्वार्थ होता है, उसमें काम करने वाले होते हैं, खासकर जो ग्रास-रूट लेवल में स्ट्रिंगर्स से लेकर। मीडिया से जनता जो आशा करती है, वे उससे जानकार लोग होते हैं, होना चाहिए, नहीं होते हैं यह दूसरी बात है, होना चाहिए। उससे बहुत माने हुए लेखक आए हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है, वाल्टेयर मूवमेंट में पत्रकारों की जो भूमिका है। जब समझते हैं कि ‘हमारे लिए इंडस्ट्री, खासकर न्यूज पेपर में काम नहीं मिल सकता है’, तो बाहर जाकर लिखते हैं। इमरजेंसी में बहुत से पत्रकारों को भी अरेस्ट किया था। कुलदीप नैयर तो जेल में था क्योंकि इमरजेंसी का विरोध कर रहा था, बाद में उसने अपने अनुभवों को लिखा। वैसे तो बहुत से माने हुए यूरोपियन जर्नलिस्ट भी हैं, मगर मेरे ऊपर जो प्रभाव है, एदुआर्दो गालेआनो का है। ऐसे भी लैटिन अमेरिका के जितने भी लेखक हैं, वे पत्रकार भी हैं, जैसे मैं हूँ। (गाब्रिएल गार्सिया) मार्केस, एक तो उपन्यासकार थे और वो रिपोर्टिंग भी कर रहे थे। यूरोप में हेमिंग्वे, जो लेखक था, वह युद्ध की रिपोर्टिंग करता था। द्वितीय विश्व युद्ध में, he was the reporter. ऐसे लोगों का प्रभाव है, हेमिंग्वे का तो बहुत प्रभाव है।



नेपाल में जनता क्रांति कर रही थी और पड़ोसी देश भारत का मीडिया क्रांति को आतंकवाद कह रहा था। आपने तब भारत की मीडिया के बारे में क्या राय बनाई थी?

नेपाल की क्रांति जब तक क्रांति रही है, वहाँ और यहाँ भी क्रांति को आतंकवाद ही कहा गया है। मगर नेपाल में जब क्रांति संसदीय लोकतंत्र में शामिल हुई तब वहाँ और यहाँ की मीडिया उसकी बहुत प्रशंसा कर रही है। आपने बहुत अच्छा सवाल पूछा है। शायद एक सप्ताह पहले दिल्ली में प्रचंड आया था और द हिन्दू में दो दिनों तक सिलसिलेवार उसका साक्षात्कार आया और वह कहता है कि भारत-नेपाल का सम्बन्ध बहुत अच्छा होना चाहिए। भारत हमारी बहुत सहायता करता है। हम क्रांति छोड़कर 'प्लूरल डेमोक्रेसी' में आये हैं। हम में से जो लोग गए हैं उनसे क्रांति नहीं आ सकती, वे कुछ निश्चय कर सकते हैं मगर क्रांतिकारी नहीं हो सकते। हमें कहना है कि आज के प्रचंड और बाबूराम भट्टराई को लेकर सीताराम येचुरी हों या मनमोहन सिंह हों, बहुत प्रशंसा करते हैं क्योंकि इन लोगों ने क्रांति छोड़ दी है। ऐसा नहीं है कि नेपाल में क्रांति हो रही है तो यहाँ की क्रांति को आतंकवाद कहते हैं। क्रांति कहीं भी होती है तो इसे आतंकवाद ही कहते हैं। क्रांति नहीं हो रही है, क्रांति के नाम पर क्रांति का विरोध हो रहा हो तो बहुत प्रशंसा होती है। जो आज चल रहा है वो एक ‘continuation of corolism’ है। एक समय था जब ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार थी, आज मल्टीनेशनल कंपनी की सरकार है। ईस्ट इंडिया कंपनी के इंटरेस्ट में 1857 में संघर्ष हुआ था जब ईस्ट इंडिया कंपनी से कुछ नहीं हो सका तो उससे ब्रिटिश सरकार बनी जो कंपनी की हिफाजत करती थी। क्लाइव के बारे में, वारेन हेस्टिंग्स के बारे में उसके बयान को देखें तो कंपनी को कितना फायदा मिला है? कितना नुकसान किया है? इंग्लिश पार्लियामेंट में बहुत चर्चा चली है, उसके बारे में। आज की स्थिति में देखा जाए तो यह बहुत छोटी बात है।

आज बुश क्या काम कर रहा है? या दूसरे अमेरिकन प्रेसिडेंट जो रिटायर्ड हुए हैं, क्या कर रहे हैं? ये लोग बड़ी-बड़ी कंपनियों में लग गए हैं, कम्पनियाँ इनके इंटरेस्ट में चल रही है, जिसमें क्लिंटन भी शामिल है। क्लिंटन दवा-उद्योग में है तो कोई शस्त्र-उद्योग में। तो वो इंटरेस्ट में ही राजनीति में आते हैं। अब 1930-40 के जर्मनी की स्थिति देखिए। हिटलर चुनाव में जाने से पहले 'नेशनल सोशलिज्म' का स्लोगन लेकर चुनाव लड़ा था। उसने कहा था कि ‘मैं सरकार में आऊंगा तो 'नेशनल सोस्लिज्म' लाऊंगा।’ एक तो 'नेशनल' बोलकर सेंटीमेंट को अपील कर रहा था और 'सोशलिज्म' बोलकर रिवर्सिटी को अपील कर रहा था। हिटलर का मानना था कि जर्मन ही शासन कर सकते हैं। उसको यहूदियों से समस्या थी और ‘यहूदी को ख़त्म करो’ कहते हुए उसने लगभग 90 प्रतिशत यहूदियों को ख़त्म किया। दूसरी तरफ 'नेशनलिटी' के विषय में उसका कहना था कि जर्मन, आर्यन हैं और आर्यन ही पूरी दुनिया पर शासन कर सकते हैं। एक समय था, सिकंदर का मानना था कि ग्रीक राजा ही पूरी दुनिया को जीत सकता है। इसीलिए सिकंदर दुनिया को जीतने निकला था। वह सिविल सोसाइटी का समय था। यूरोप में तो एक कहावत भी है कि जो भी नेशनल स्टेट हैं इनमें से एक-एक को अपने बारे में एक अलग भावना होती है।

फ्रांस की जनता समझती है कि वो बहुत सभ्य हैं और जर्मनी के लोग असभ्य। किसी को गाली देनी है तो उसे 'जर्मन' बोलते हैं। जर्मन समझते हैं कि हम आर्यन हैं और हम सबसे ज्यादा सभ्य हैं। इसी प्रकार अंग्रेज लोगों का मानना है कि जो हैं सो हम ही हैं और पूरी दुनिया पर हमने ही शासन किया है। सबका यही रवैया है। अब संस्कृत में देखिए आप, ‘म्लेच्छ’ कहते हैं, ‘अनटचेबल’ जो यहाँ के दलित लोग होते हैं। ‘अनटचेबल’ यूरोप में भी होते हैं। ये जो माइंड सेट होता है, इसी माइंड सेट को अपील करके वो सरकार में आया। अपनी कंपनी का यह रूल लागू करने के लिए पार्लियामेंट में उसके लिए बहुत मुश्किल हो गई और काम नहीं बना तो तो पार्लियामेंट को जला कर कम्युनिस्टों के ऊपर इसका इल्जाम लगाया और दो कम्पनियों की हिफ़ाजत के लिए वहाँ फासिज्म लाया, इसी तरह द्वितीय विश्वयुद्ध आया। आज हम देखें तो पूरी दुनिया की स्थिति एक-जैसी हो गई है। एक तरफ़ तो क्राइसिस है उनके इम्पीरियलिज्म का, दूसरी तरफ़ उस क्राइसिस से बाहर आने के लिए फ़ासिज्म। पार्लियामेंट की स्थिति देखिए आप। पार्लियामेंट चलता ही नहीं और संविधान के तहत जितने भी कानून बनाए गए हैं, उसके दायरे में काम नहीं चल रहा है। सी.बी.आई. है, यह एक स्टेच्यूटरी बॉडी है। उसे जो जाँच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्त किया है, वह अपनी रिपोर्ट कानून मंत्री को बताता है।

आदिवासियों के बारे में देखिए। फिफ्थ शिड्यूल है, सिक्स्थ शेड्यूल है, अपने जल-जंगल-जमीन के लिए तो...उसके ऊपर उनका हक है। दूसरी तरफ़ जैसे नॉर्थ-ईस्ट स्टेट्स बने हैं। यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन में जल-जंगल-जमीन के ऊपर ही नहीं, इलाके की बात भी आई है। एक तरफ़ इंटरनेशनल लॉ और यहाँ के संविधान के तहत इतने हक हैं, दूसरी तरफ़ पूरे भारत में पूर्वी भारत से लेकर दक्षिण भारत तक सेंट्रल इंडिया में लाखों एकड़ जमीन आदिवासियों से छीन ली जा रही है, विस्थापन हो रहा है। बात क्रांति की नहीं है। संविधान कहाँ लागू हो रहा है? मौलिक अधिकार कहाँ लागू हो रहे हैं? संविधान की प्रस्तावना कहाँ लागू हो रही है? डायरेक्टिव पॉलिसीज को तो छोड़ दीजिए क्योंकि डायरेक्टिव पॉलिसीज में तो...अस्पृश्यता मिट जाना, हरेक को शिक्षा मिलना, समानता की बातें हैं। डायरेक्टिव बिल तो सरकार की तरफ से कोई बंधन नहीं है। ‘it is not binding on the part of Sarkar’, मगर एक आदर्श है। जो ‘bindingly’ सरकार के ऊपर जो धारा-56 है, वह भी नहीं लागू हो रही है। यानी जैसा संकट बढ़ता है, खासकर जो साम्राज्यवाद का संकट बढ़ता है, साम्राज्यवाद के प्रभाव में हैं सरकारें। जितने भी कानून बनाते हैं, जितने भी पार्लियामेंट-असेम्बली चलाते हैं, वे भी नहीं चल सकते। यानी उनका कानून ही उनके लिए शृंखला (बेड़ी) बन जाता है। उनका शासन ही उनके लिए शृंखला (बेड़ी) बन जाता है और उसको छोड़कर अपने असली रूप, जो फासिज्म का रूप होता है, वह दिखता है। इसमें और एक समझने वाली बात है कि यूरोप, जो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी की जन्म-भूमि है, खासकर इंग्लैंड और फ्रांस, वे देश भी द्वितीय विश्व युद्ध के समय संकट में आ गए। जर्मनी, इटली और जापान में पार्लियामेंट खत्म होकर फासिज्म-नाजिज्म लागू हुआ। तो तीसरी दुनिया के बारे में क्या समझ सकते हैं जहाँ संसदीय लोकतंत्र के लिए कोई जगह ही नहीं है। इसलिए कहते हैं कि संसदीय लोकतंत्र के लिए यहाँ जगह नहीं है, इसीलिए यहाँ जो लोकतंत्र आना है, वो नया लोकतंत्र ही हो सकता है जो क्रांति से होता है, शस्त्र-संघर्ष से होता है। आज वही चल रहा है भारत में।

अहिन्दी क्षेत्र की ख़बरें, राष्ट्रीय समाचार पत्र हिंदी क्षेत्र में नहीं पहुँचाते हैं। ऐसे में क्या राष्ट्रीय अखंडता प्रभावित होती है?

अब आज की स्थिति ऐसी आ गई है कि जिला संस्करण होते हैं। एक जिले की खबर दूसरे जिले में नहीं जाती है। अब हैदराबाद को ही लीजिए। एक दिलसुखनगर का संस्करण होता है, एक चिकटपल्ली का और एक उस्मानिया कैम्पस का संस्करण। दिलसुखनगर की ख़बरें आपके इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी) में ही रह जाती है। यानी न्यूज़ को कम्पार्टमेंटलाइज्ड कर दिया है और दमन को नेशनलाइज्ड कर दिया है। जनता क्या सोच रही है इसको कम्पार्टमेंटलाइज्ड कर दिया है और इस सोच को लेकर सरकार जो दमन चला रही है वह सेंट्रलाइज्ड रहे, कॉरपोरेटाइज्ड बना रहे। ख़ास कर आन्ध्र प्रदेश में 1974 से ईनाडु दैनिक शुरू हुआ है तभी से जिला संस्करण शुरू हुआ और न्यूज़ कम्पार्टमेंटलाइज्ड हुआ है।

हम वारंगल में रहते थे, बड़ा रेडिकल मूवमेंट था। उस रेडिकल मूवमेंट को लेकर जिला प्रशासन जो दमन चलाती थी वह खबर जिले के ही अखबार में आती थी। लेकिन अगर उसके ऊपर किसी कांग्रेसी नेता या एम.एल.ए. की प्रतिक्रिया आती तो पूरे आन्ध्र प्रदेश में खबर आती। तो बाहर वाले पूछते कि आपने यह क्या किया है? समझिये इफ्लू (इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी) में एक संघर्ष चल रहा है और कुलपति का पुतला फूँका गया। कुलपति सेन्ट्रल के ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट का है और उसका पुतला फूँका गया तो पूरी दिल्ली में खबर पहुँचती है। क्योंकि दिल्ली में उसी समय उसकी किताब का राष्ट्रपति उद्घाटन भी कर रहा होता है। लेकिन दिल्ली के इफ्लू में रहने वाले छात्रों पर पुलिस ने दमन किया तो यह जिला संस्करण में आता है। यह तो हो ही रहा है। देखिये न, अभी कितनी आत्महत्याएँ हुई हैं इफ्लू में। अब देखिए स्थितियाँ कितनी बदल गई हैं? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में राधाकृष्णन कुलपति बनाए गए थे। राष्ट्रीय आन्दोलन का समय था। विश्वविद्यालय के अन्दर और बाहर बहुत संघर्ष चल रहे थे। विश्वविद्यालय के अन्दर आर्मी भेजनी पड़ी थी। जब राधाकृष्णन को ले जाया गया तो उन्होंने कहा कि ‘जब तक सेना कैम्पस से बाहर नहीं आती, तब तक मैं अपना कुलपति पद नहीं संभालूँगा।’ तो प्रशासन को मानना पड़ा। पुलिस बाहर आई तो वे अन्दर गए और पद संभाला। अब उस वैल्यू सिस्टम की आज के वैल्यू सिस्टम से तुलना कीजिए। अब के कुलपति आते ही पुलिस को बुलाकर लाते हैं। हॉस्टल में स्टूडेंट की समस्या हुई है, एक मरा, दूसरा मरा! यह कौन हल करेगा? शिक्षक का क्या कर्तव्य है? मैं क्लास में पढ़ा रहा हूँ। 120 छात्र हैं, इन 120 छात्रों को पचास मिनट के लिए कंट्रोल करने का जो मेरा मोरल अथॉरिटी, मोरल रिस्पांसिबिलिटी होती है, क्या मैं ये पुलिस की सहायता से कर सकता हूँ? कैम्पस में कितने भी...यानी you lost your moral responsibility and the authority, and that’s …..लाठी बुला रहा है। यही हर जगह हो रहा है। 1982 से 1984 तक हमारे वारंगल के 12 कॉलेजों में रेडिकल मूवमेंट के कारण धारा-144 लगाई गई थी। मैं क्लास में पढ़ाता था तो खिड़की से बाहर बन्दूक दिखती था। मैंने एक जगह लिखा भी है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में जर्मनी में यह बात फैल रही थी कि अब जर्मनी, पेरिस नगर पर कब्ज़ा करेगा। इस पर एक अच्छी फिल्म भी 'लास्ट लेसन' आई है। फ्रेंच शिक्षक रोजाना सबक पढ़ाता कि कल से फ्रेंच भाषा नहीं पढ़ाई जाएगी क्योंकि जर्मन लोग आ जाएंगे। The last date for teaching वाली स्थिति हमारे यहाँ भी दो सालों तक रही थी। तो यह स्थिति आजकल हर जगह हो गई है। चाहे केंद्रीय विश्वविद्यालय हो, इफ्लू हो या उस्मानिया कैम्पस हो। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के बाहर पुलिस ने मुझको रोका कि कहाँ जा रहे हो और क्यों जा रहे हो? तब प्रो. वी. कृष्णा ने उनको मुझे अन्दर आने देने को कहा, तब जाकर मुझे अन्दर जाने दिया गया। यह कैसी स्थिति आ गई है? अब मीडिया को भी देखिए आप, ईनाडु के ऑफिस में प्रवेश नहीं कर सकते है! हर जगह दिखने वाला स्टेट कंट्रोल है और स्टेट के ऊपर कॉरपोरेट कंट्रोल है।

अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल को मीडिया ने भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का नायक घोषित किया। मीडिया की इस भूमिका को आप किस तरह देखते हैं?

अब देखिए, तो 11 अप्रैल, 2011 को जब पहली बार अन्ना ने आन्दोलन शुरू किया था तो उस दिन मैं एम.एल. पार्टी के क्रन्तिकारी नेतृत्वकर्ता वासुदेव राव का पहला मेमोरी लेक्चर दे रहा था। मैंने कहा था कि ये तो अन्नलू के विरोध में अन्ना को लाया है। अन्नलू नक्सल को कहते हैं जिसका मतलब होता है भाई। जंगलमहल से लेकर बारह राज्यों में जो माओवादी आन्दोलन आया है, उसे मनमोहन सिंह देश के लिए बहुत बड़ा खतरा समझता है।  तो अन्नलू के प्रभाव का क्या करे, तो अन्ना हजारे को लाया। अन्ना हजारे सरकार और मीडिया दोनों के द्वारा मिलकर खड़ा किया गया है। इसके पीछे की कहानी यह है कि एक तरफ बी.जे.पी. बाबा रामदेव को प्रमोट कर रही थी। अब आप यह भी देखिए कि देश में बाबा रामदेव के बहुत उद्योग हैं, बहुत-सी दुकानें हैं। अब उन दुकानों के विज्ञापन के लिए उसको एक आश्रम चाहिए, एक पॉलिटिक्स चाहिए। अब ये सब तो एक घेरे के तहत होता है न। राजा दुष्यंत का राज चलना है तो राज चलने के लिए एक आश्रम होता है, वहाँ ऋषि होते हैं और उन ऋषियों के लिए सैकड़ों एकड़ जमीन देते हैं, गायें देते हैं। तो वे उसके धर्म को पालते हैं। ये ब्राह्मण हैं, वे क्षत्रिय हैं। वैसे ही रामदेव का आश्रम है, हर तरीके की बहुत-सी दुकानें हैं। अब उसको चलाना है तो उसके लिए एक धर्मनीति और एक राजनीति जरूरी हो जाती है और बी.जे.पी. उसको एक वाइस प्रेसीडेंट कैंडीडेट के रूप में देखती है। एक रामदेव है, योग वगैरह भी सिखा रहा है, उसका प्रभाव हो रहा है जिसका मीडिया भी खूब प्रचार कर रहा है। सरकार ने सोचा हम किसको लाएँ? तो अन्ना को लाया गया। सेबेस्टियन जो कि हमारे CPDR (Committee for Protection of Democratic Rights) का प्रेसीडेंट है। वह हैदराबाद के एक डेमोक्रेटिक राइट्स मूवमेंट में कह रहा था कि (अन्ना हजारे) गाँव में लोगों को पीटता है, प्रतिरोध पर लिखित रूप से प्रतिबंध लगाता है। ये कैसे प्रतिबंध लगते हैं? कैसे लागू करते हैं? ये अस्पृश्यता को बनाए रखना चाहता है। ये वैसा ही धर्म चाहता है, जैसा गाँधी ने चलाया था। खैर, जो भी हो, वैसे दो-तीन गाँवों में सुधार करने वाला आदमी जब दिल्ली में बैठता है और मीडिया का इतना बड़ा रिस्पॉन्स मिलता है तो वह अपने आपको बहुत बड़ा समझता है। यह बंबई आया था, सैकड़ों-हजारों गाड़ियाँ आई थीं। तो यह समझा कि ‘ये सब मेरे लिए आए हैं।’ अरे, ये सब तुम्हारे लिए नहीं, अपने इंटरेस्ट के लिए आए हैं। बासागुडा मुठभेड़ के बाद हम दिल्ली में धरना पर थे। कोई भी मीडिया वाला हमारे पास नहीं आया। दूसरी तरफ अन्ना हजारे का आन्दोलन चल रहा था, पूरा मीडिया वहाँ जमा हुआ थी। लगभग पचास चैनल्स स्थापित किए थे उन्होंने! अब देखिये, मीडिया के लिए अन्ना हजारे में कोई आकर्षण नहीं है। तो अब केजरीवाल को लाए हैं, अब केजरीवाल को प्रमोट किया जा रहा है। हमारा जैसा अनुभव है कि आम आदमी के टोपी वाले ने अज्ञान की रक्षा की है। आने वाले समय में कैसे डेमोक्रेसी हो सकती है? यानी "one can do or undo" आज स्थिति यह है कि कॉरपोरेट कम्पनियाँ किसी को ऊपर उठा भी सकती हैं और किसी को गिरा भी सकती हैं। अब अन्ना हजारे हो या जो भी हो। समझना यह है कि संकट क्या है? राजनीतिक अर्थशास्त्र का संकट क्या है? संसदीय लोकतंत्र का संकट क्या है? इसको ख़त्म करने के लिए अलग-अलग प्रयोग कर रहे हैं। एक तरफ दमन का दौर चल रहा है तो दूसरी तरफ ये नीति कभी शासक के लिए स्टिकेन कैरेक्टर का होता है। स्टिकी होता है और उसके साथ कैरेक्टर भी होता है। दमन तो चलता रहता है, शासन का दबाव भी बढ़ता रहता है। कभी-कभी इतिहास का भी इस्तेमाल होता है, वह चाहे अन्ना हजारे का हो या अरविन्द केजरीवाल का या फिर आम आदमी का हो। ‘आम आदमी’ भी आज कोई आम आदमी नहीं है। आम आदमी ग्रास रूट लेवल के सेंस में है।    

बुद्धिजीवियों का एक वर्ग मानता है कि मीडिया भारत में माओवादियों को बहुत कवरेज देता है?


कहाँ दे रहा है सही कवरेज? जब चाहा तब बहुत कवरेज दिया। मेरा अनुभव कहता है कि एक साल पहले मुझे अंग्रेजी इलेक्ट्रोनिक मीडिया वाले NEWS6  हो, NDTV हो, HEAD LINES  हो या TIMES NOW  हो, महीने में चार-पाँच बार बुलाते थे। TIMES NOW  हम नहीं जाते थे,  इन्कार करते थे। एक तरफ से सभी बुलाते थे, बहस होती थी। अब तो मीडिया में कवरेज ही नहीं है। उन्होंने जब चाहा तब किया। ये भी इसलिए कि सरकार इसका प्रचार करके उसके ऊपर दमन लाने के लिए या बुद्धिजीवियों के ऊपर जो इसका प्रभाव है उसको ख़त्म करने के लिए। इनको भी बुलाएँगे उनकी राय जानने के लिए और दूसरे लोगों से उसका खंडन भी करवाएँगे। मुद्दे के अंग-अंग का खंडन करते हैं और हमें यह बताना चाहते हैं कि कोई इसका जवाब नहीं दे सका है। मगर इसमें ये असफल हुए हैं। जब असफल हो गए तो साइलेंस किलिंग शुरू किया है। मीडिया आज कोई भी बड़ा विस्फोट हो या एनकाउण्टर हो, बाहर आने नहीं देती है।

वरवर राव से बातचीत.

भाग-१ 

विश्व मीडिया में भारतीय मीडिया की जनोन्मुखता.

वरवर राव मूलतः तेलगू के कवि हैं. उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. दुनिया के क्रांतिकारी लेखकों में वरवर राव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. ‘जन आंदोलन और मीडिया की भूमिका पर केन्द्रित यह साक्षात्कार सितारे हिन्द,गोपाल कुमार और आरळे श्रीकांत की बातचीत पर आधारित है. सभी हिन्दी एवं भारत अध्ययन विभाग अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं. इस पूरी बातचीत को क्रमवार दख़ल की दुनिया पर बयां पत्रिका से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है.

फोटो- दख़ल की दुनिया
वर्तमान समय में खासकर तीसरी दुनिया में जो जनान्दोलन चल रहे हैं, उनके बारे में मीडिया बता रहा है। यहाँ यह जनांदोलन के पक्ष में ही होता है। खासकर इराक के ऊपर अमेरिकी हमले के समय हो या आज तक। अल-जजीरा जो कि जनांदोलन के पक्ष में है उसे एक तरह से वैकल्पिक और पीपुल्स मीडिया कह सकते हैं। ‘द गार्जियन’ अख़बार का प्रकाशन चाहे अमेरिका से हो, चाहे लंदन से, वह थोड़ा-थोड़ा निष्पक्ष होता है लेकिन अगर वर्ग-संघर्ष की बात हो तो शायद उनकी पक्षधरता शासक-वर्ग के साथ ही होती है। जैसे बी.बी.सी. को भी निष्पक्ष माना जाता है मगर आजकल बी.बी.सी. भी वर्ग-संघर्ष की समस्या होने पर उतना निष्पक्ष नहीं रह पाता है। इंग्लैंड का ‘रूल्स ऑफ लॉ’ केवल इंग्लिश लोगों के लिए ही चलता है, आयरिश क्रांतिकारियों के लिए नहीं। फ्रांस कई क्रांतियों का केंद्र रहा है। अल्जीरिया उसका उपनिवेश था जहाँ फ्रांस ने अपने विरोध में चल रहे संघर्ष का दमन किया। 1968 में द गाल ने ज्यां पॉल सार्त्र और सीमोन द बउवार जैसे बुद्धिजीवियों के रहते हुए भी छात्रों के आन्दोलन को कुचल दिया।

आज स्थिति यह है कि इस्लाम को मानने वाले जितने भी देश हैं, जैसे- अफ़गानिस्तान, इराक, ईरान, सीरिया, फिलिस्तीन आदि। इन देशों में जब भी साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष होता है तो वहाँ विश्व-मीडिया की भूमिका निष्पक्ष नहीं होती है। विश्व-मीडिया ने एक मानसिकता भी बना रखी है कि इन देशों की संस्कृति ही पिछड़ी है। मीडिया हमेशा से ही यह प्रचार करती रही है कि इन देशों के लोग ‘कॉन्फ्लिक्ट्स सिविलियन्स’ हैं। आज विश्व-मीडिया हो या भारत की मीडिया, यह हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है। मीडिया शुरुआत से ही एक उद्योग रही है और समय के साथ ही यह एक ‘मोर ऑफ द मोनोपोलस इंडस्ट्री का माउथ पीस’ रह गई है। 1955 के आंध्रा चुनाव के समय के तेलुगु अख़बार का संदर्भ देना यहाँ उचित ही रहेगा क्योंकि उसमें मीडिया के बारे में कहा गया है कि “This is the product of capitalism and that’s why all the stories which one is published also are fictitious. It itself is a poison’s daughter.” क्योंकि एक पूँजीपति ही अख़बार शुरू करता है तो वह आपको या लेखकों को ‘लोकतांत्रिक क्रिया-कलापों’ के लिए कितनी जगह देगा? वह उतनी ही जगह देगा जहाँ तक उसकी स्वार्थ-सिद्धि का अतिक्रमण न हो। एक उद्योगपति या ‘मास्टर ऑफ फैक्ट्री’ उसमें काम करने वाले मजदूरों को कितनी आजादी देगा? जैसा कि मार्क्स ने कहा है “आज काम करने के लिए रोटी, कल के मजदूर को पैदा करने के लिए भी रोटी, उससे ज्यादा क्या? और आजादी भी उतनी ही कि कल आकर वह फैक्ट्री में काम कर सके, जी सके।” उतनी ही आजादी आपको भी दे सकता है। हम यह भी देखते हैं कि एक फैक्ट्री-मालिक दूसरों, खासकर कम्युनिस्ट लोगों द्वारा ट्रेड यूनियन नहीं बनाए जाने पर खुद एक ट्रेड यूनियन बनाता है। तो जिस प्रकार एक पूँजीपति अपने लाभ का अतिक्रमण न होने तक ही आजादी देता है, वैसी ही आजादी अख़बारों में भी होती है। इस प्रकार अख़बार में एकाधिकार की प्रबलता दिखाई देती है।

हमारे भारत में देखा जाए तो अख़बार जूट मिलों के प्रचार के लिए शुरू हुआ था। देश-भर में अनेक जूट मिलों के मालिक गोयनका ने अपने जूट मिलों के प्रचार के लिए ‘इंडियन एक्सप्रेस’ नामक अख़बार की शुरुआत की जिसके बाद में बहुत-से संस्करण निकले। लगभग सौ साल पहले तेलुगु में काशीनाथुनि नागेश्वर राव ने बंबई से ‘आंध्र पत्रिका’ नामक अख़बार निकाला जिसका राष्ट्रीय आंदोलन में काफ़ी योगदान रहा। हम इसे तेलुगु मीडिया और तेलुगु साहित्य के लिए ‘देशोद्धारक’ मानते हैं। अब इसी नाम से प्रेस क्लब और प्रकाशन भी चल रहा है। इस पत्रिका में तेलुगु के जाने-माने लेखक लगातार लिखते आए हैं। 1920 से 1960 तक का लगभग विश्व-क्लासिक इसमें अनूदित होकर आया है। हम अपने बचपन से ही इस पत्रिका को पढ़ते आए हैं। इसके बारे में सौ साल पहले ही एक लेखक ने कहा था कि इसे ‘अमृतांजन’ के प्रचार के लिए शुरू किया गया। ‘अमृतांजन’ बनाने वाली एक कंपनी बंबई में है। इसमें एक व्यंग भी है कि अख़बार पढ़ते हुए सिरदर्द होता है, इसीलिए ‘अमृतांजन’ पीता है। इसमें पोलिटिकल इकोनॉमी यह है कि ‘अमृतांजन’ के प्रचार के लिए यह अख़बार शुरू किया गया।

आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आया है जिसमें कुछ गंभीर बातें भी होती हैं। मैंने एक बार उन्हें लिखा था समझो, बहुत अच्छे टेस्ट की फिल्में दिखाने वाले चैनल हैं। वे सत्यजीत रे की फिल्में दिखाते हैं या श्याम बेनेगल की लेकिन ये विज्ञापन के लिए अच्छी फिल्में दिखाते हैं। इसका उद्देश्य क्या है? हमें ऐसा लगता है कि वह एक अच्छी फिल्में बनाने वाला या दिखाने वाला चैनल है मगर ये फिल्मी चैनल अपने विज्ञापन दिखाने के लिए है और हमारी अभिरुचि सिनेमा देखने में। डिस्कवरी ऑफ इंडिया इसका उदाहरण है। नेशनल ज्योग्राफ़िक चैनल हो या डिस्कवरी चैनल, बहुत रोचक होते हैं। मगर ये चैनल हमे भूगोल पढ़ाने के लिए तो शुरू नहीं हुए हैं! अब इसलिए कि मीडिया को लाने के लिए पहली सीमा यह है कि इंडस्ट्री, वह भी मोनोपोली इंडस्ट्री, अपने प्रचार के लिए कोई भी अख़बार शुरू करती है। अब उसकी पोलिटिकल इकोनॉमी भी देखिए तो जाहिर होता है, बहुत से लोगों ने लिखा भी है कि आठ-दस पेज के अख़बार निकालने के लिए आज की स्थिति में 16 या 20 रुपए का खर्च आता है और चार-पांच रुपये में इसे बेचा जाता है। फिर ये दस रुपयों का जो नुकसान हो रहा है, वह कहाँ से पूरा हो रहा है? इसके लिए सरकार या प्राइवेट कंपनियाँ विज्ञापन देती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान टाइम्स देखिए। एक समय में टाइम्स ऑफ इंडिया के सोलह पब्लिकेशन होते थे। हम पढ़ते-लिखते थे क्योंकि अच्छी पत्रिका होती थी और ये निष्पक्ष लिखते थे। एक तरफ़ विज्ञापन, एक तरफ़ आलेख और समाचार और ‘फुली अल्टरनेटिव’, हिन्दुस्तान टाइम्स में देखिए। अब आपको एयरपोर्ट पर टिकट खरीदते समय टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान में पूरे विज्ञापन मिलेंगे। ये कहाँ से लेते हैं आप?

हमारा नाइट वाचमैन मर गया था, उसके ऊपर मैंने कविता लिखी है। उसके बारे में मैंने रुचि ली थी। वह दस दिनों में एक बार आकर देखता। “क्या है?” “ये पेपर है।” “यह सब!” दस दिन में एक पेपर बनता है! उसके मन में आया कि अंग्रेजी पेपर लेना है। अंग्रेजी पेपर इतना मोटा रहता है कि दस दिन में एक बनता है। अब यह देखिए कि कॉमन माइंड का कॉमन सेंस भी इतना रहता है कि इससे तो ज्यादा पैसा बनता है, इसीलिए इतना लेता है। यह बात मैंने कविता में भी लिखी है। जैसा कॉमन माइंड का स्टैंड ज्यूडिसियरी के लिए भी होता है। उसके बारे में कॉमन माइंड कहते हैं कि जो हारता है, वो कोर्ट में रोता है और जो जीतता है, वो घर आकर रोता है। वैसा ही मीडिया और अख़बार के बारे में भी एक कॉमन माइंड के लिए ठीक है। ‘अरे, ये तो कहानी लिखते हैं’, ‘और इतना मोटा पेपर क्या हो सकता है?’, यह फुली एडवरटाइजमेंट है, यह जन-सामान्य की भी समझ होती है। अब हमारे जिन लोगों का स्टेट्स बढ़ गया है उनका कहना है कि अब पेपर लेते ही इसलिए हैं कि कौन-से मॉल में कौन-सी चीज चीप मिलेगी? पेपर आते ही वो यही देखते हैं और खरीदने जाते हैं। हमारी तरह गंभीर और अर्थपूर्ण राजनीतिक ख़बर पढ़ने के लिए नहीं। आज आप देखिए, खासकर अंग्रेजी में द हिन्दू छोड़कर कोई भी अख़बार, न्यूज़ के लिए पढ़ने लायक होता है? वो भी जहाँ एकेडमिक डेवलपमेंट पॉलिसी की बात होती है। समझिए, कुडनकुलम हुआ है कल, कुडनकुलम के मुद्दे में मीडिया और सुप्रीम कोर्ट से लेकर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी तक सब इसे एक डेवलपमेंट प्रोग्राम समझते हैं और समर्थन देते हैं। इसे पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन प्राप्त है। आज की स्थिति में एक भी ऐसा अख़बार नहीं है जो इस तथाकथित विकासात्मक नीति और भूमंडलीकरण-नीति का समर्थन नहीं करता हो। नहीं तो मनमोहन सिंह की बुनियाद ही क्या है? मनमोहन सिंह की बुनियाद ही एक मिडिल क्लास इंटलेक्चुअल की बुनियाद पर बनी हुई है। कश्मीर का प्रसंग है, मैं परसों दिल्ली जाकर आया। एक सौ पचास लोग कश्मीर रैली से दिल्ली आए थे। उसमें दस हजार मिसिंग केसेज के लोग थे। जिनको फाँसी हुई है या जिन्हें आजीवन जेल हुआ है। मकबूल भट्ट की माँ थीं। एक और व्यक्ति जिसे आजीवन जेल की सजा हुई है, उसकी दो-तीन साल की बच्ची थी। अफ़जल गुरु की ‘डेड बॉडी’ की डिमांड थी। अच्छा, हमारा माइंड सेट भी देखिए आप! सरबजीत सिंह पाकिस्तान में मर जाता है। शायद उन्होंने मारा है। उसको फाँसी देना और बात है और मारना दूसरी बात! तो इसपर गुस्सा आता है हमारे लोगों को। इसी तरह की राय हम बनाकर रखते हैं देश-भक्ति के बारे में। आज की स्थिति में दूसरे देश पर आक्रमण करना ही देश-भक्ति है। राजकपूर ने एक फिल्म बनाई थी, ‘परदेशी’। फिल्म का नायक रूस जाकर आता है। फिल्म में एक देशी लड़की होती है, नरगिस। नायक उसको समझाता रहता है कि रूस में बहुत बर्फ़ गिरती है। आज हम हैदराबाद में रहकर मई महीने में कैसा महसूस करते हैं? नायिका पूछती है, ‘क्या होता है बरफ़?’ नायक के समझाने पर उसे समझ में आता है तो वह हँसती है। “अच्छा, ऐसा होता है बरफ़!” बोलने के बाद वह पूछती है, “तुम इतनी क्यों तारीफ़ कर रहे हो रूस की?” रूस की जनता बहुत प्रेम से देखती है रूस को, हम जैसे भारत को देखते हैं। देश-भक्ति ऐसी होती है। अपने देश के लिए जितना गुमान हमको होता है, उनके देश के लिए उतना गुमान उन लोगों को होता है। इसको हमें मानना है, यह देश-भक्ति है। हमें यह मानना चाहिए कि पाकिस्तान की जनता को पाकिस्तान के प्रति प्रेम है। परस्पर द्वेष नहीं होना चाहिए। तो खैर, उन्होंने मार डाला। एक तो फाँसी होने के कारण, दूसरा मार डालने के कारण बहुत गुस्सा आया। इतने गुस्से के बावजूद पाकिस्तान सरकार ने, जिसे हम लोकतंत्र नहीं मानते, उसने हमें डेड बॉडी दी, उनके परिवार वालों को दी। आपने क्या किया है अफ़जल गुरु के बारे में? आप लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं, (डेड बॉडी दे देते तो) क्या होता? आसमान तो नहीं गिरता उधर? सरबजीत की डेड बॉडी दे दी तो क्या हुआ? कश्मीर में क्या होता? हमें यह कहना है कि सरकार जो स्टैंड लेती है, मीडिया भी वही स्टैंड लेता है। पाकिस्तान की जेल में क्या हो रहा है, इतनी जाँच करने वाले मीडिया-बुद्धिजीवी क्या यह बताते हैं कि भारत की जेलें कैसी हैं? क्या किसी ने कभी जाँच की है? हम कमेटी फॉर द रिलीज ऑफ पोलिटिकल प्रिजनर्स की तरफ़ से देखें। कश्मीर से आए लोग अफजल गुरु की ‘डेड बॉडी’ माँग रहे हैं। यासीन मलिक तो फ्लाइट से आया था, उसे इन्क्वायरी करके फ्लाइट से वापस श्रीनगर भेज दिया और जो लोग बस से आए उन्हें एक टेंट हाउस में सी.आर.पी.एफ. ने रखा, उनको आने नहीं दिया और उन्हें जन्तर-मन्तर जाते समय गिरफ्तार किया। उनके समर्थन में हम प्रेस क्लब में कॉन्फ्रेंस करना चाहते थे तो प्रेस-कॉन्फ्रेंस रद्द करके वहाँ संघ परिवार के लोग आ गए। अब मीडिया जो आपसे पूछ रहा है, उसे लेकर आप समझ सकते हैं। यह हमारा अनुभव है। अब लोगों को गिरफ्तार करने के विरोध में असहमति प्रकट करने के लिए दस हजार रुपये बाँधकर, जो कि प्रेस क्लब का नियम है, हम प्रेस-कॉन्फ्रेंस करने गए। हमारे जाते ही दरवाजा बन्द कर दिया गया। अन्दर मीडिया वाले थे और बाहर दिल्ली पुलिस। एक तरफ़ बजरंग दल वाले, अलग-अलग संघ-परिवार के लोग और टोपी लगाए ‘आम आदमी’ के लोग नारे लगा रहे थे और हर एक हाथ में यासीन मलिक का फोटो लिए, ‘बलात्कारी यासीन मलिक’ बोलकर नारे लगा रहे थे। इसीलिए मैंने उनको ‘वन्दे मातरम पार्टी’, ‘भारत माता की जय पार्टी’ और ‘आम आदमी पार्टी’ कहा। तो वे नारे लगा रहे थे और हम अंदर गए। अंदर कहा गया कि प्रेस-कॉन्फ्रेंस तो रद्द कर दिया गया है। आप कैसे रद्द कर सकते हैं? आपके नियम के मुताबिक हमने रुपए दे दिए हैं। ये कैसा लोकतंत्र है?’ यही लोकतंत्र है? अरे, Media is supposed to be fourth pillar of the democracy. ओ! यही लोकतंत्र है। यह सच भी है क्योंकि लोकतंत्र के एक-एक स्तंभ का क्या हो रहा है, यह दिखाई दे रहा है। विधि- व्यवस्था की क्या हालत हो रही है? इसे कैसे अमल में लाया जा रहा है? न्याय-तंत्र की क्या हालत हो रही है? सबमें कितने घोटाले चल रहे हैं, दिखाई दे रहे हैं। आंध्रा में पाँच जज जेल में हैं। ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ठीक लोग हैं। यह बात आज से नहीं, जब भोपाल गैस ‘ट्रेजेडी’ हुई थी तो संबंधित कम्पनी में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के शेयर्स थे। वह कम्पनी एवरेडी बैटरी बनाने वाली एक मल्टीनेशनल कम्पनी है। ऐसा कौन-सा कॉरपोरेट सेक्टर है जहाँ जजों के शेयर्स न हों, राजनीतिज्ञों के शेयर्स न हों या ब्यूरोक्रेट्स के शेयर्स न हों? तभी तो मल्टीनेशनल कम्पनियाँ चैम्पियन बन गई हैं। 1984 का समय था। कहा गया कि ‘जिन लोगों के कम्पनी में शेयर्स नहीं हैं, वे जाँच में शामिल हो सकते हैं।’ तीन लोग यह कहकर पीछे हट गए कि ‘हमारे शेयर्स हैं।’ न्याय-तंत्र के साथ-साथ मीडिया की भी यही हालत हो गई है। यदि मीडिया के बारे में देखें तो खासकर वे लोग जो बड़े-बड़े एंकर्स हैं, कैसे पॉलिटीसियन्स और ब्यूरोक्रेट्स से संबंध रख कर, पैसे बना रहे हैं, सारी बातें बाहर आ रही है। मीडिया में खास बात यह है कि इसमें निहित स्वार्थ बहुत ज्यादा हो गया है। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के अख़बार बेनेट कोलमेन कम्पनी के इंटरेस्ट के लिए चलते हैं। इसीलिए अरिंदम गोस्वामी इतनी बाउंसिंग बातें करता है। एक तरफ़ कोबाद गाँधी को दिखाया जाता है, भगत सिंह जिंदाबाद, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए। भगत सिंह के नारे लगाने वालों, इन्कलाब के नारे लगाने वालों को मीडिया आतंकवादी और राष्ट्र-विरोधी कहता है। हाँ, परसों उन्होंने मुझे भी कहा, ‘हम (प्रेस क्लब को) एंटी-नेशनलिस्ट को नहीं देते हैं।’ अरे, एंटी-नेशनलिस्ट तो एक जिद है, जिसे आप क्वालिफाई करते हो। लेकिन न्यूज पेपर, जिसे सरकार इनसर्जेंसी कहती है, वो इनसर्जेंट्स का भी इंटरव्यू लेता है। जा-जाकर प्रभाकरण का इंटरव्यू लिया है, जंगल में जा-जाकर गणपति का इंटरव्यू लिया है। आप खुद जा-जाकर सरकार जिन्हें इनसर्जेंट कहती है, उनका इंटरव्यू लेते हैं, हम आकर प्रेस-क्लब में कॉन्फ्रेंस करना चाहें तो हमको एंटी-नेशनल कहते हैं। मीडिया को राष्ट्रवादी या राष्ट्र-विरोधी नहीं होना चाहिए। Ever who are anti-national? You are supposed to unwed the press-conference. How they anti-nationals think? ऐसी स्थिति मीडिया की है। इसका कारण मीडिया की एक सीमा है और वह सीमा यह है कि मोनोपोलिस्ट्स का, कॉरपोरेट सेक्टर के निहित स्वार्थ को सर्व करने के लिए मीडिया आज है।

12 जून 2013

हम हरियाली की तरह बार-बार उगे हैं

रेयाज़ उल हक़

जब राज्य...अपराधी-राजनीतिज्ञों और व्यापारियों के गिरोह का रक्षक और समर्थक हो जाए. जब यह सब आकस्मिक घटना न होकर एक सोची समझी नीति और पूर्वाग्रह के तहत हो रहा हो. तब जनता के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता इसके सिवाय कि वह इस प्रकार के राज्य को उखाड़ फेंकने की बातें करे. ऐसी असामान्य परिस्थितियों में हिंसा अपरिहार्य और न्यायसंगत है.
-आनंद तेलतुंबड़े

सारी हस्तियों का मानना था कि गोलियां; लोकतंत्र, भाषण की स्वतंत्रता, शांति और उन सभी प्यारी-प्यारी चीजों पर चलाई गई थीं, जिनका नाम लेने का अवसर वो कभी हाथ से नहीं जाने देते थे. हत्यारे की तलाश जारी थी.
-ओरहान पामुक

शीर्षक के वाक्य को अली सरदार जाफरी ने मौलाना रूमी की शायरी से लेकर अपनी नज़्म ‘मेरा सफर’ में दर्ज किया था. यह हरियाली सिर्फ घास और पौधों पर लागू नही होती, संघर्ष के जीवन में यह हर वक्त की बुदबुदाहट होती है. उम्मीद इस पंक्ति का बुनियादी अहसास है.

p-dakhalkiduniya
हम जिस राज्य में रहते हैं, उसकी विचारधारा हमें यकीन दिलाने की कोशिश करती है कि भविष्य खत्म हो चुका है और सारी उम्मीदें सूदखोर के पैसों, मासिक किस्तों और सट्टा बाजार में गिरवी रखी जा चुकी हैं. उनके लिए उम्मीद कुछ पलों की खुशी भर है जिसकी अवधि किसी फाइव स्टार मॉल में की गई शॉपिंग के अनुपात में घटती-बढ़ती है. इसने उम्मीद को गिनी जा सकने वाली निर्जीव संख्याओं में बदल दिया है, जिसे आप कैश ऑन डिलीवरी के जरिए घर बैठे भी हासिल कर सकते हैं- इस्तेमाल करके फेंक दिए जाने वाले पैकेज में गिफ्ट वाउचरों के साथ. और यहीं, इस विचारधारा का भविष्यहीन, नाउम्मीदी से भरा खोखलापन जाहिर हो जाता है. इसके हिमायती और पैरोकार लोग इसे बचाने की कोशिशें करते हैं. इन कोशिशों में वे लोगों के कत्ल और हत्याओं को पहाड़े की तरह गिनते हैं.

लेकिन उम्मीदों की इस आभासी दुनिया से परे उम्मीदों की एक सच्ची दुनिया भी है. देहातों, शहरों, कस्बों, जंगलों और पहाड़ों में फैली हुई उस विशाल आबादी की दुनिया, जहां मूल्यों और विश्वासों की एक अलग ही व्यवस्था है. हालांकि इतिहास से लेकर अब तक उनकी उम्मीदों पर हमलों की कम कोशिशें नहीं हुई हैं लेकिन जनता का यह हिस्सा जानता है कि उसे अपनी उम्मीदों की हिफाजत कैसे करनी है. उम्मीद: वे जानते हैं कि स्वर्ग की सारी कल्पनाएं इसी उम्मीद को जिंदा और महफूज रखने के खयाल से बुनी गई हैं. दुनिया भर का लेखन, दुनिया भर के गीत, फिल्में, कहानियां, कविताएं, नाटक, किताबें, मजाक, चुटकुले...उम्मीदों को बचाए रखने की इंसानी जद्दोजहद का हिस्सा हैं.

बावजूद इसके कि आर्थिक विकास दर से जनता का कत्लेआम किया जा रहा है, जनता की उम्मीदें कायम हैं. यह उम्मीद ही है, जो जनता को अपराजेय बनाती है. 1857 में जो जनता कुचल दी गई थी (उसने ब्रिटिश साम्राज्य को तब तक की सबसे बड़ी पराजय से परिचित कराया था और उसकी सबसे महत्वपूर्ण औपनिवेशिक राजधानी पर कब्जा कर लिया था. नेतृत्वकारी ताकतों की कमजोरी ने जनता को इस विजय के निर्णायक प्रभावों से वंचित कर दिया, ब्रिटिश राज के पलट कर किए गए हमले में कई हजार लोग मारे गए), जिसके जंगलों और पहाड़ों को ढाई सदियों से शिकारगाहों में तब्दील कर दिया गया है. आदिवासी जहां पैदा हुए उस जमीन और संसाधनों का वे अपने गुजर बसर के लिए इस्तेमाल करते थे. इसके लिए उन्हें किसी से इजाजत लेने या खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती थी. औपनिवेशिक शासन ने पहली बार इन इलाकों और संसाधनों को अपने कब्जे में करने की कोशिश की. आदिवासियों ने इन कोशिशों का मुंहतोड़ जवाब दिया और ब्रिटिश कभी कामयाब नहीं हो पाए. उनकी विरासत को अपनें कंधों पर उठाए भारतीय शासक वर्ग उनकी कोशिशों को आगे बढ़ा रहा है, लेकिन आदिवासी जनता ने भी अपनी संघर्षों की विरासत को छोड़ा नहीं है. 1947 से लेकर आज तक, लगातार फासीवादी हमलों में जिस जनता का कत्लेआम किया गया (हैदराबाद रियासत को भारतीय राज्य में मिलाने के नाम पर बीस हजार से अधिक मुसलमानों का कत्ल भारतीय राज्य की सेना ने किया, दोषियों और सजा के बारे में भूल जाइए, कभी इस अपराध को कबूल तक नहीं किया गया, यह इस लोकतंत्र के स्थापित होने से भी पहले की एक मिसाल है. उसके बाद की मिसालें भी आप कमोबेश जानते हैं) उस जनता ने हार नहीं मानी है. वह 20 रुपए रोज से कम पर गुजर करती है, उसका एक बड़ा हिस्सा भुखमरी का शिकार है (करीब 20 करोड़ लोग, भोजन के अतिरिक्त भंडार वाले देश में भोजन की असुरक्षा के बीच जीते हैं. योजना आयोग की मानव विकास रिपोर्ट भारत को एक स्थायी भुखमरी वाले देश के रूप में चिह्नित करती है. लेकिन अगर आप यहां रोज 20 रुपए खर्च कर सकते हैं तो आप गरीब नहीं माने जाएंगे. इतने में आप फुटपाथ पर तीन रोटियां और एक साधारण सी सब्जी खा सकते हैं) बीमारियों और बदतरीन जीवन स्थितियों ने उसे तोड़ रखा है (भारत दुनिया का सबसे निजीकृत स्वास्थ्य सेवाओं वाला देश है, जहां की आबादी के खर्चों में दूसरा सबसे बड़ा खर्च उसके इलाज पर होता है. लेकिन तब भी इलाज मिल जाएगा और खर्च करने पर भी आप अच्छा और भरोसेमंद इलाज पा सकेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. मलेरिया, टीबी और दूसरी ऐसी अनगिनत बीमारियां यहां अब भी महामारियों की तरह मौजूद हैं, जिनका अस्तित्व दुनिया के दूसरे हिस्सों में खत्म माना जा चुका है). लेकिन उसने अपनी उम्मीदों को बीमार नहीं होने दिया है.

तब इस बात का क्या मतलब है कि निराशा में हाथ मलते हुए पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, पुराने कार्यकर्ता और अनेक दूसरे लोग यह कहते सुने जा सकते हैं कि दुनिया दिन ब दिन नाउम्मीदी से भरती जा रही है. तब इस तथ्य को हम कैसे देखते हैं कि अकेले भारत में पिछले 20 वर्षों में ढाई लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है.

तथ्य कभी कभी निराश कर सकते हैं लेकिन मिसालें उम्मीदों से भरी हुई हैं. मई के इस आखिरी हफ्ते में, जब गर्मी तेज होती जा रही है और बारिश का मौसम शुरू होने में महीने भर की देर है, किसानों ने धान के बीजों की साफ-सफाई शुरू कर दी है. सब्सिडी वाले खाद और बीजों से महरूम कर दिए जाने के बावजूद, सिंचाई के सस्ते और सार्वजनिक साधनों को गैरभरोसेमंद बना दिए जाने के बावजूद और अपनी जमीन पर खेती करने की उनकी अब तक पूरी न हो पाई हसरतों के बावजूद, वे पहली बारिश पड़ते ही खेतों में बीज डालेंगे. उसी विदर्भ में, जिसका पर्याय पिछले कुछ वर्षों से किसानों की खुदकुशियां बन गई हैं, कपास की फसलें हर साल उगाई जा रही हैं. क्या इनमें कहीं निराशा के बीज दिखते हैं? कहीं कोई नाउम्मीदी? बीजापुर के वे आदिवासी भी जिनका कत्ल राज्य की सेनाओं (और कभी कभी सलवा जुडूम) द्वारा पिछले माह और उससे पहले पिछले बरस और उससे भी पहले के कई बरसों में किए जाते रहे, वे फिर से अपने जीवन में उम्मीदों के बीज बोने के लिए जमा हो रहे हैं. 

अगर ऐसा है, तो शायद इस निराशा का रिश्ता जीने और सोचने के तौर तरीके से नहीं है और न ही यह जीवन के मूल्यों से जुड़ी हुई है. इसका संबंध उस रिश्ते से है जो जीने और सोचने के हर तौर तरीके को तय करता है. पारिवारिक रिश्ते नहीं- वे तो उस व्यापक रिश्ते के दयनीय शिकार भर हैं. वह रिश्ता जो जीने, खाने, काम करने, रहने, पढ़ने, लिखने और उत्पादन करने के दौरान बनता है. सामाजिक और राजनीतिक रिश्ता. सत्ता का रिश्ता. उसे व्यवस्था कहा जाता है, हालांकि हम अपने अनुभवों से जानते हैं कि शब्दों से उनकी सारी उम्मीदें छीन कर किस कदर उन्हें बेजान कर दिया गया है. आबादी के बड़े हिस्से के लिए वे उल्टे मतलब देने लगी हैं. यह व्यवस्था है, जिसने जीवन को अव्यवस्थित कर दिया है. जो लोगों में निराशा भरती है, उन्हें नाउम्मीदी की तरफ धकेलती है. इस निराशा की जड़ें नॉर्थ और साउथ ब्लॉकों में घूमने वाले वर्ल्ड बैंक के अधिकारियों और अंबानियों-टाटाओं के एजेंटों की अटैचियों तक में फैली हुई हैं. संसद की कार्यवाहियों में दायर हैं इस निराशा की वजहें. इसीलिए उम्मीद की हर कोशिश संसद, टाटाओं-अंबानियों और वर्ल्ड बैंक के खिलाफ गुस्से और नफरत से ही शुरू होती है.

आप जहां भी जाएं, इस व्यवस्था के जड़ हो चुके, सड़ रहे हिस्सों से रू ब रू होंगे. शादियों में बजने वाले फूहड़ गीतों से लेकर संसद की फूहड़ कार्रवाइयों तक एक हिंसक नाउम्मीदी, ठहराव और निराशा पसरी हुई है. चीजों की कीमतें बढ़ाई जा रही हैं. सब्सिडियों को हमेशा के लिए बंद किया जा रहा है. रोजगार खत्म किए जा रहे हैं और बेरोजगारी की दर हर साल बढ़ रही है (2012 में यह 9.3 प्रतिशत थी, इस साल 9.4 फीसदी है जबकि आबादी 1.37 फीसदी की रफ्तार से ही बढ़ रही है. यह साफ है कि आबादी के बढ़ने का बेरोजगारी से कोई सीधा संबंध नहीं है). अगर आप अगले साल भी मौजूदा जीवन स्तर को, जो पहले से ही बेहद दयनीय है, बनाए रखना चाहते हैं तो आपको अपनी आमदनी की दर को शायद अनिल अंबानी के मुनाफे की दर से ऊपर ले जाना होगा. राज्य युद्ध स्तर पर यह तय कर रहा है कि रियायतें खत्म की जाएं, कि जमीनें छीन ली जाएं और बड़े बांधों के जरिए लोगों विस्थापित किया जाए, कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को मंजूरी देकर किसानों और फेरीवालों को तबाह कर दिया जाए. शिक्षा को बड़ी कंपनियों और कारोबारियों के हाथों बंधक बना कर दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, मुस्लिमों और दूसरे वंचित तबकों के जनवादी अधिकारों को खारिज कर दिया जाए. और यह सब राज्य की दखलंदाजी को कम करने के नाम पर किया जा रहा है. शब्दों ने अपने मतलब उलट लिए हैं.

ऐसा लग सकता है कि शब्दों ने अपने मतलब उलट लिए हैं. जैसे कि लोकतंत्र का मतलब फासीवाद हो गया है. विकास का मतलब तबाही और विस्थापन. सशक्तीकरण लोगों से उनके अधिकार और संसाधनों को छीने जाने की ही दूसरा नाम है. सम्मान, अपमान का एक बेहद घिनौना रूप है. राष्ट्रीय सुरक्षा जनता को असुरक्षित बनाने का राजकीय अभियान है और विकास तथा तरक्की जनता के खिलाफ एक और युद्ध को दिए गए अच्छे लगने वाले संबोधन हैं. शांति अभियान नाम उस हत्यारे फासीवादी गिरोह को दिया जाता है, जिस पर एस्सार और टाटा जैसी कंपनियों के लिए आदिवासियों से जमीनें छीनने की जिम्मेदारी है. इस गिरोह के हत्यारे अभियानों में 644 तबाह गांवों, तीन लाख से अधिक उजड़े हुए आदिवासियों, हत्याओं और बलात्कारों के सैकड़ों मामलों को मिला कर जो दर बनती है, उसे राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि की प्रस्तावित दर कहा जाता है. जब तक अदालत इस अभियान को रोकने के आदेश जारी करती, जनता का हथियारबंद संघर्ष इस अभियान को धूल में मिला चुका था. अदालती व्यवस्था के जनविरोधी होने का अंदाजा इस कदर लगाया जा सकता है कि अपराधों को दर्ज करते हुए भी वो इन अपराधों के लिए उसके कर्ताधर्ताओं के खिलाफ एक केस तक दर्ज नहीं करा सकी. फिर भी शब्दों के अर्थों की उलट दी गई दुनिया में जनता की कार्रवाई आतंकवाद कहलाई और अदालती फैसला इंसाफ कहलाया. जिसे इंसाफ की जरूरत है और जिसका इंसाफ पर एकाधिकार रखने का दावा है, उनके बीच का फासला युगों में ही मापा जा सकता है. यह फासला किसी तरक्की या पिछड़ेपन से जुड़ा हुआ नहीं है. इसका अर्थ मूल्यों और मकसद के उस दो अलग-अलग निजामों से है, जिसका ये दोनों प्रतिनिधित्व करते हैं. लेकिन जनता इस फासले को मिटा रही है. वह इंसाफ और अदालतों में फर्क नहीं करती. उसने अपना इंसाफ हासिल करने के लिए अपनी अदालतों का सिलसिला शुरू किया है. जनता की इन अदालतों को हिंसक और बर्बर कह कर उन्हें अपमानित किया जाता है. लेकिन क्या इंसाफ अहिंसक हो सकता है?

इंसाफ एक हिंसक संभावना है, क्योंकि यह अनिश्चित भविष्य के अनिश्चित नतीजों पर निर्भर नहीं करता. यह एक ठोस मांग है, एक ठोस उम्मीद जिसे पीड़ित छू सके, देख सके, महसूस कर सके. इसकी बुनियादी शर्त है कार्रवाई और वह भी सामूहिक कार्रवाई. क्योंकि समूह या समुदाय ही इस इंसाफ के गवाह बनते हैं और उसे भविष्य के लिए दर्ज करते हैं.

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लेकिन समुदाय की सक्रियता कैसी होगी अगर वह भूख और बीमारियों के अपार विस्तार में रोटियों और इलाज के लिए तरसते हुए दम तोड़ते अपने परिजनों को देखने को मजबूर होता है? जब उससे सिंचाई के बिना सूखती फसलों और छीनी जा रही जमीन के आगे हाथ बांधे खड़े रहने की अपेक्षा की जाती है? जब उससे कहा जाता है कि वो सूदखोरों और जमीन के मालिकों के, कारखानेदारों के, पुलिस और फौज के बंधुआ मजदूरों की तरह जीने और सोचने के तरीके को अपना ले? जब मेहनत से कमाई गई थोड़ी सी रकम को उसे ब्याज, पुलिस के हफ्ते, डॉक्टरों की फीस और पुजारियों की रस्मों के नाम पर लुटा देना पड़े? या फिर दलितों की जली हुई बस्तियों में इंसाफ का चेहरा कैसा होगा? (धर्मापुरी में पिछले साल नवंबर में दलितों के 160 घर जला दिए गए. हरियाणा और देश के दूसरे हिस्सों में लगभग रोज ही ऐसी छोटी-बड़ी घटनाएं होती हैं). गिरफ्तार किए जा रहे, जेलों में बंद और हिरासत में मारे जा रहे मुसलमान युवकों के लिए इंसाफ का चेहरा कैसा होगा? जनसंहारों में मारे जा रहे अल्पसंख्यकों के लिए? क्या अपमान और गुलामी से गुजरे हजारों सालों के लिए इंसाफ का मतलब थोड़ा सा और अपमान होगा? थोड़ी सी और गुलामी? और बलात्कार की शिकार हुई एक महिला के लिए और उस बच्चे के लिए जिसकी उंगलियां चार बरस की उम्र में काट की जाएं? बासागुड़ा के पिताओं के लिए जिनके बच्चे धरती की सतह से इस तरह मिटा दिए गए मानो उनका जन्म लेना ही अपराध था? या फिर कश्मीर की वादियों के लिए? उत्तर-पूर्व के गांवों के लिए? नहीं. यह हिंसक होगा ही. पुरानी पीड़ाएं जब आंखों में उतरती हैं तो मध्यवर्गीय नैतिकताएं दरकिनार हो जाती हैं. 

इस देश के आदिवासी पिछले ढाई सौ बरसों से इसी इंसाफ के लिए लड़ रहे हैं. नारायणपटना में पोस्को के खिलाफ, झारखंड में गांवों को उजाड़े जाने के खिलाफ, महाराष्ट्र के दलित उत्पीड़न के खिलाफ, कुडनकुलम के निवासी परमाणु रिएक्टर के खिलाफ, कश्मीर और मणिपुर, असम, नागालैंड के लोग अपनी आजादी के लिए.

देश और दुनिया भर में हर जगह लोग इस सवाल से रू ब रू हैं...कि क्या उम्मीद हमेशा के लिए खत्म कर दी जाएगी? कि क्या बिना उम्मीद के भविष्य की कल्पना की जा सकती है? कि खुद भविष्य कैसा होगा? वे हिंसा या अहिंसा के मुद्दे को अपने रास्ते में नहीं आने देते, क्योंकि यह उनके लिए कोई मुद्दा नहीं है. उनका सवाल सीधा है: क्या एक ऐसा भविष्य मुमकिन है जिसमें जिंदगी बराबरी, इज्जत और इंसाफ के साथ जी जा सके? उनका सबकुछ इसके जवाब पर निर्भर करता है और इसके रास्ते में आने वाली हर रुकावट को वे पूरी निर्ममता से खारिज कर देते हैं.

उनका सवाल जितना सीधा है, जवाब भी उतना ही सरल. और उतना ही सच्चा, ठोस. वे एक नई दुनिया बना रहे हैं. वे पुरानी शासन व्यवस्थाओं को तबाह कर रहे हैं. भयानक दमन और घोर अभावों में जीते हुए भी वे अपनी इस दुनिया का ताना-बाना खुद खड़ा कर रहे हैं- वे जमीनें बांट रहे हैं, वे बीज बो रहे हैं, मिलकर खेतों को जोत रहे हैं, नहरें बना रहे हैं, तालाबों की खुदाई कर रहे हैं. उनकी अपनी सरकार है, सरकार के अपने विभाग हैं, अदालतें हैं, हिफाजत के लिए समितियां हैं, दस्ते हैं, सेना है. उनके अपने सांस्कृतिक संगठन हैं, गीत हैं, नाटक हैं, पत्रिकाएं हैं. वे अपने जालिमों को उनकी गंध और धमक से पहचानते हैं. वे जानते हैं कि उस पर कब और कहां और कैसे हमला करना है. उनका हमला अचूक है और इंसाफ सुनिश्चित. वे शब्दों को उनके असली मायने लौटा रहे हैं. मुखौटों वाली दुनिया के लिए उनके खुरदरे और सख्त हाथ असली चेहरे गढ़ रहे हैं.

लेकिन मुखौटों वाली दुनिया चीख उठती है कि ‘वे लोकतंत्र पर हमला कर रहे हैं,’ मगर वे ऐसी किसी चीज पर हमला कैसे कर सकते हैं जो है ही नहीं. लोकतंत्र का मतलब चुनावी अभियान, वोट, चुनावी पार्टियां, संस्थान और इमारतें भर नहीं हैं. लोकतंत्र फैसलों के निर्माण को उत्पीड़ित जनता की इच्छा और उसके हितों के मातहत ले आने की राजनीतिक कार्रवाई है. व्यापक जनता की बदहाली, विस्थापन, भुखमरी, जनसंहार और दूसरी सारी समस्याएं अप्रत्याशित और अनचाही नहीं है. वे मौजूदा व्यवस्था की योजनाबद्ध नीतियों के ऐसे नतीजे हैं, जिनके बारे में शुरुआती दिनों से ही चेतावनी दी जाती रही है. इसलिए अगर व्यापक जनता इस व्यवस्था को लोकतंत्र मानने से इन्कार करती है और उसके मुंह पर उसी की शैली में पलटवार करती है तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं है. वह जानती है कि मौजूदा लोकतंत्र मुट्ठी भर ऊपरी तबके और प्रभुत्वशाली जातियों की तानाशाही है. जनता को हक है कि वह इस तानाशाही को चकनाचूर कर दे और लोकतंत्र को उसका असली रूप लौटा दे.

इन तानाशाहियों को छुपाने के लिए पारदर्शिता और सुशासन के मुखौटे इस्तेमाल में लाए जाते हैं. लेकिन मुखौटे चेहरों को छुपा सकते हैं, चरित्र को नहीं. आप इस तानाशाही को हर जगह महसूस कर सकते हैं-सूखती हुई नदियों से लेकर परती पड़ी जमीन के टुकड़ों तक और फर्जी मुठभेड़ों से लेकर भरी हुई जेलों तक, अपनी बारीक और भ्रम में डाल देनेवाली तानाशाहियां छुपे हुए रूप में काम करती हैं. ताकत, एकाधिकार और मुनाफा- दुनिया की सारी तानाशाहियों के स्रोत हैं.

इसीलिए, जनता जब इन तानाशाहियों के हजार हाथों में से एक को कुचलती है तो सत्ता और उसके हिमायतियों के गलियारों से शोर उठता है: ‘क्या लोकतंत्र में हिंसा जायज है?’ ‘ये बर्बर और असभ्य लोग अहिंसक लोगों पर हमले कर रहे हैं.’

इसीलिए, अब जब कुछ लोग ये उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकार को वे जंगल में सेना भेजने पर राजी कर लेंगे और कुछ दूसरे लोग कोसते हुए कह रहे हैं ऐसे हमले करके संघर्षरत आदिवासी जंगल में सेना और दमन को न्योता दे रहे हैं, बस्तर के आदिवासी इन ऐलानों और मन ही मन लगाए गए हिसाबों से परे, अपने पर थोप दिए गए ढाई सौ वर्षों पुराने युद्ध के अगले कदम की तैयारी कर रहे हैं. वे जानते हैं कि उनकी लड़ाई महज सरकारों से नहीं, साम्राज्यों से है. वे यह भी जानते हैं कि जिस वक्त साम्राज्यों ने उनके जीने के तरीकों को गैरकानूनी बना दिया है, तो इस कानून को ध्वस्त करके ही वे अपने जीने के तरीकों को बनाए रख सकते हैं और उसका आगे विकास कर सकते हैं.

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एक छोटी सी मिसाल: 2009 में जब लालगढ़ में आदिवासियों के संगठित संघर्ष के दौरान सीआरपीएफ को इलाके के अपने कैंप खाली करने थे तो स्थानीय लोगों ने इस प्रस्ताव को सिरे से ही खारिज कर दिया कि उन कैंपों को स्कूल या अस्पताल में बदल दिया जाए. उनका कहना था कि ‘ब्रिटिश’ लोगों से जुड़ी किसी भी चीज का वे अपने जीवन में इस्तेमाल नहीं करेंगे.

ब्रिटिश! वे 2009 में सीआरपीएफ की बात कर रहे थे. उन्होंने शब्दों को उनके पांवों पर खड़ा कर दिया था. और अब वे दुनिया को उसके पैरों पर खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए उनमें कोई भ्रम नहीं है. वे जानते हैं कि अगर इन्हें नइंसाफियों और शोषण के सिलसिले को उलट देना है तो उन्हें राजनीतिक ताकत के सवाल को हल करना होगा. उन्हें अपने संघर्ष और एकजुटता से, न कि समझौतों के जरिए, यह ताकत हासिल करनी होगी. बिना इसके दूसरी सारी कोशिशें और उपलब्धियां नाकाम बना दी जाएंगी. वे इस बात को जानते हैं कि राज्य शासक वर्ग के हाथों में जनता के उत्पीड़न का औजार है और अगर उन्हें उत्पीड़ित जनता को इस उत्पीड़न से मुक्त करना है तो इस शासक वर्ग को बेदखल करना होगा. उन्हें इसको लेकर भी कोई भ्रम नहीं है कि इस कार्रवाई का दमनकारी होना उसी अनुपात में लाजिमी है जिस अनुपात में मौजूदा शासक वर्ग दमनकारी है. फर्क बस यह होगा कि जनता की तरफ से दमन का निशाना प्रतिक्रियावादी ताकतें और ऊपर के कुछ फीसदी प्रभुत्वशाली लोग होंगे.

इसलिए जनता अपनी हिंसा और हथियारों की जिम्मेदारी इस या उस सरकार पर नहीं डालती. वह राज्य की ऐतिहासिक उत्पत्ति और भूमिका को सामने रखती है. वह इसकी तरफ इशारा करती है कि राज्य दमनकारी होता ही है. अगर उस राज्य पर अधिकार करना है तो उसके दमन से लड़ने में सक्षम होना जरूरी है. इसीलिए ऐसे वर्ग संघर्ष की कल्पना करना नामुमकिन है, जिसमें जनता ताकत का इस्तेमाल नहीं करे.

लेकिन मध्यवर्ग हिंसा को ऐसे देखता है मानो यह कोई दूर की पराई चीज हो. मानो इसका हमारे समाज और इसकी सत्ता संरचना से कोई रिश्ता ही न हो. मानो किसी दूसरे ग्रह के निवासियों ने हमारी दो अंकों की वृद्धि दर से जलते हुए हमें शाप दे दिया हो (जो अब मुंह के बल नीचे आ रही है). सदियों से जाति की अमानवीय व्यवस्था के रूप में चली आ रही आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक हिंसा को भूल जाने का अभिनय करता है. वह स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ निरंतर हो रही हिंसा को भी भूल जाता है. वह भूल जाता है कि हिंसा को उत्पीड़ित जनता के संघर्षों ने नहीं, बल्कि उत्पीड़कों की व्यवस्था ने पैदा किया है. वह पूछता है कि आखिर एक ऐसे देश में लोगों के हाथ में रॉकेट लॉंचर और बारूदी सुरंगों का क्या काम जहां सब्सिडियां तक घर बैठे बैंक खाते में जमा करा दी जाती हों और तेंडुलकर के शतकों को गिनना लगभग नामुमकिन सा हो चला हो. क्या यह बहुत पुरानी बात है जब खुद इसी मध्यवर्ग ने भ्रष्टाचार और बलात्कारों के खिलाफ एक शांतिपूर्ण विरोध करते हुए दिखा नहीं दिया था कि शांति अभी भी इस देश के मूल्यों के बाजार से बाहर नहीं हुई है?

भारत का मध्यवर्ग- आबादी का 20 फीसदी हिस्सा- अभी गुलाबी सपनों पर सवार तबका है. वैश्वीकरण ने इस तबके के लिए अनपेक्षित फायदों और सुविधाओं के दरवाजे खोले हैं. लेकिन इसने कीमत भी भरपूर वसूली है: अनिश्चितता और असुरक्षित भविष्य इस तबके के सबसे बड़े दु:स्वप्न हैं. इनका यह डर इंडिया गेट पर प्रदर्शनों में उजागर होता है, जहां अब देश की 75-80 फीसदी आबादी को प्रदर्शन की इजाजत नहीं है. इस तबके की मजबूरियां इसे उत्पीड़ित जनता के संघर्षों के साथ ले आती हैं, लेकिन वह इसमें भी अपनी महानता बोध के साथ ही आता है. वह मांगों और दलीलों की एक फेहरिश्त पेश करता है, जिसे संघर्षों को मानना ही होगा. वह इस तरह व्यवहार करता है कि मानो उसने हिमायत करके कोई एहसान कर दिया हो और अब इस एहसान का बदला चुकाने की बारी संघर्ष कर रही उत्पीड़ित जनता की है.

लेकिन उत्पीड़ित जनता के हित दूसरे हैं और मकसद भी. वह इस फेहरिश्त को मान नहीं सकती. इसलिए मध्यवर्ग उसकी हर जुझारू उपलब्धि पर कई कदम पीछे हटते हुए अपना सीना पीटता है: अब सरकार का दमन और बढ़ जाएगा. अब सेना और वायुसेना उतारे जाएंगे. ये लोग जानबूझकर दमन को बुलावा दे रहे हैं.

मानो सेना और राज्य के दूसरे सशस्त्र बलों का अस्तित्व ही जनता के दमन के लिए नही हो. मानो राज्य की ताकत जनता के प्रतिरोध का दमन करने के लिए ही नहीं बनी हो. मानो जनता की कार्रवाइयों के बिना राज्य उत्पीड़न और नाइंसाफियों से मुंह मोड़ लेगा. जमीनी सच्चाइयों को समझे बिना ऐसी बातें करने पर राज्य की दलीलें ही मजबूत होती हैं. जनता इस शोर-शराबे से प्रभावित नहीं होती. उसे पता है कि राज्य का होना भर ही दमनकारी है. वह राज्य पर कब्जा करके ही दमन के इस सिलसिले को उलट सकती है और इससे निजात पा सकती है, चुप बैठे रह कर नहीं. उसे पता है कि मौजूदा व्यवस्था सलवा जुडूम की नाइंसाफियों का इंसाफ नहीं कर सकती थी. वह सिर्फ 2002 के गुजरात और 1984 के दिल्ली की ही नहीं ऐसे ही कई वर्षों और महीनों की पीड़ित रही है, वह लगातार इस राज्य के दमन को देखती और सहती है. उसे पता है कि दमन और उत्पीड़न दुखद लगने वाले शब्द भर नहीं हैं. कि वे कितने ठोस हैं और उनकी ताकत क्या है. इसलिए वह कुछेक कानूनों और अदालती फैसलों का इंतजार नहीं करती, क्योंकि इस राज्य द्वारा बनाए गए अनगिनत कानूनों के बावजूद दलितों और आदिवासियों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं खत्म नहीं हुई हैं, बल्कि वे बढ़ती जा रही हैं. अपने अनुभव से उसने देखा है कि जब जब जनता अपनी पूरी ताकत से जुल्म से लड़ी है, जालिमों को हार माननी पड़ी है.

और इसीलिए उम्मीद और इंसाफ हिंसक संभावनाएं हैं और इन्हें टाला नहीं जा सकता. और इसीलिए मौजूदा व्यवस्था उम्मीद और इंसाफ से डरती है. वह दुनिया के सबसे बड़े सैन्य बल के जरिए, ताकतवर मीडिया और रीढ़विहीन साहित्य के जरिए इस उम्मीद को कुचलना चाहती है. लेकिन खेतों, खलिहानों, घाटियों, गांवों और जंगलों में उम्मीद की फसल उग रही है.

इसी जून महीने में जब धूप सबसे तेज होती है और मिट्टी में जरा भी नमी नहीं होती, किसान खेतों को जोत कर छोड़ देते हैं. इससे फसलों को नुकसान पहुंचाने वाली पतवारों की जड़ें मिट्टी में ऊपर आ जाती हैं और झुलसा देने वाली धूप उनको बीजों समेत सुखा डालती है.

यह पतवारों के खिलाफ किसानों का दीर्घकालीन युद्ध है. वे जानते हैं कि दुश्मन पर कब हमला करना है और कब नहीं. यह मानने की कोई वजह नहीं है चेरुकुरी राजकुमार आजाद की इस बात का कि ‘दुश्मन पर हम तब हमला करेंगे जब हम चाहेंगे, तब नहीं जब वो चाहेगा’ किसानों के इस तौर-तरीके से कोई रिश्ता नहीं है.

बस कुछ वक्त बाद ही, अभी सूखी और सपाट दिख रही धरती पर फसलों का सिलसिला एक बार फिर शुरू होगा. जिन फसलों को पतवारों ने तबाह करना चाहा, मौसमों ने जिनसे मुंह मोड़ लिए, जिन पर कीड़ों और जानवरों का खतरा हमेशा मंडराता रहा, उन्हीं के बीज धरती को एक बार फिर हरियाली से भर देंगे.

इस बार उनके रास्ते में जो आएगा, उसे पतवारों के अंजाम को याद रखना चाहिए.

11 जून 2013

झूठ, अर्धसत्य. अर्धतथ्य का पुलिंदा है शुभ्रांसु की किताब: गुड्सा उसेंडी

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में दरभा घाटी की कार्रवाई के बाद से लगातार बहस चल रही है, शुभ्रांसु चौधरी ने बी.बी.सी. पर एक आलेख के माध्यम से बहस को एक नया मोड़ दिया था. कुछ ही महीने पहले शुभ्रांसु की पुस्तक ‘लेट्स कॉल हिम वासु’ पेंग्विन से हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित हुई, जो कई विवादित तथ्यों से भरी रही, पर किसी प्रतिबंधित पार्टी पर लिखे गए तथ्यों की जाँच आम पाठक के लिए तो मुश्किल ही होती है. उनके द्वारा लिखे गए आलेख और इस पुस्तक के संदर्भ में माओवादी पार्टी ने एक प्रेस नोट जारी किया है. मेल द्वारा प्राप्त इस प्रेस नोट को बगैर कैंची का इश्तेमाल किए यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है: मॉडरेटर

5 जून 2013
शुभ्रांशु चौधरी की टिप्पणियां माओवादी संघर्ष को नीचा दिखाने के प्रयासों का हिस्सा ही हैं!
25 मई को छत्तीसगढ़ के झीरमघाटी के पास पीएलजीए द्वारा किए गए हमले के बाद, जिसमें महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल समेत कुछ अन्य लोग मारे गए थे, पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी ने बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक था - ‘मास्टर के हाथ नक्सलियों की कमान?’, जिसे कई अन्य मीडिया संस्थाओं ने भी प्रकाशित व प्रसारित किया। इसमें उन्होंने इस हमले से हमारी पार्टी की दण्डकारण्य इकाई के नेतृत्व में हुए परिवर्तन को जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि कामरेड कोसा की जगह पर कामरेड रामन्ना के सचिव चुने जाने पर अब हिंसात्मक कार्रवाइयों पर ज्यादा जोर दिया जाएगा। अपने इस मनगढ़ंत विश्लेषण को सही ठहराने के लिए उन्होंने आगे यह लिखा कि ‘रामन्ना कोसा जैसे नेताओं को पसंद नहीं करते हैं’। हमारी दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी मानती है कि ये सब कोरी बकवास के अलावा कुछ नहीं हैं। इस संदर्भ में कामरेड रामन्ना के साथ हुई अपनी कथित बातचीत का हवाला देते हुए उन्होंने कई आपत्तिजनक बातें लिखीं। हमारी कमेटी शुभ्रांशु की इन भद्दी टिप्पणियों की कड़ी निंदा करती है।
शोषणकारी राजसत्ता हमारी पार्टी के नेतृत्व में जारी क्रांतिकारी आंदोलन का सफाया करने के लिए आज एक भारी दमनात्मक युद्ध चला रही है, जिसका एक महत्वपूर्ण अंग है मनोवैज्ञानिक युद्ध। इसके तहत मीडिया के जरिए और कई अन्य साधनों से झूठों, मनगढ़ंत कहानियों और अफवाहों को फैलाया जा रहा है। इसमें नेतृत्व को खासतौर पर निशाना बनाया जा रहा है। नेतृत्व के बीच मतभेद व मनमुटाव होने का दुष्प्रचार भी बड़े पैमाने पर किया जा रहा है ताकि जनता को गुमराह किया जा सके। हमें लगता है कि जाने या अनजाने में शुभ्रांशु चौधरी भी इसका हिस्सा बन गए हैं।
उसके बाद 1 जून को बीबीसी रेडियो के साप्ताहिक कार्यक्रम ‘इंडिया बोल’ में भाग लेते हुए शुभ्रांशु ने हमारे आंदोलन के संदर्भ में कुछ और टिप्पणियां कीं। उनका कहना है कि माओवादियों का राजनीतिक लक्ष्य और उनके नेतृत्व में लड़ रहे आदिवासियों के मुद्दे दोनों अलग-अलग हैं। बकौल उनके, ‘‘कुछ लोग माओवाद के नाम पर दुनिया में राजनीति को बदलना चाहते हैं। और अधिक लोग... जिनको आप आदिवासी कहते हैं, जिनको हम पैदल सेना कहते हैं, वे उनके साथ इसलिए जुड़ते हैं क्योंकि आज की इस व्यवस्था से उनको न्याय नहीं मिलता है... माओवादी लाल किले में लाल झण्डा फहराना चाहते हैं। माओवादियों की लड़ाई जंगल और जमीन की लड़ाई नहीं है।... वे इस दुनिया में समाजवाद और उसके बाद साम्यवाद लाना चाहते हैं....’’ आदि-आदि।
गौरतलब है कि शुभ्रांशु चौधरी ने माओवादी आंदोलन के बारे में हाल ही मे एक किताब लिखी है जिसका नाम ‘लेट्ज़ काल हिम वासु’ - हिंदी में ‘उसका नाम वासु नहीं’ है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि अपनी किताब में माओवादियों के साथ सात साल संपर्क रखने का दावा करने वाले शुभ्रांशु ने हमारे आंदोलन को गहराई से समझने की कभी गंभीर कोशिश की ही नहीं। उन्होंने वर्ग संघर्ष के बुनियादी नियमों तक को समझने की कोशिश नहीं की। आदिवासियों के तमाम संघर्ष, चाहे वे माओवादियों के नेतृत्व में चलें या उसके बगैर, राजसत्ता के खिलाफ जारी वर्ग संघर्ष का हिस्सा ही हैं। इसमें दो राय नहीं कि लम्बे परिप्रेक्ष्य से या अंतिम तौर पर भाकपा (माओेवादी) का मकसद राज्यसत्ता को छीन लेना है जिसके बगैर हम अपने देश के लोगों को साम्राज्यवाद, सामंतवाद और दलाल नौकरशाह बुर्जुआ की जकड़ से मुक्ति नहीं दिला सकते, यानी मौजूदा अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को नहीं बदल सकते। और कम्युनिस्टों ने, यहां तक कि कार्ल मार्क्स ने भी, सशस्त्र क्रांति के जरिए राजसत्ता पर कब्जा करने और समाजवाद व साम्यवाद की स्थापना करने का महज ‘सपना’ नहीं देखा था। वह मजदूर वर्ग समेत तमाम शोषित वर्गों की समस्याओं तथा समाज की आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों और तमाम वर्ग संघर्षों के समग्र और वैज्ञानिक विश्लेषण का निचोड़ है। मौजूदा राजसत्ता को उखाड़ फेंककर मजदूर-किसानों की एकता के आधार पर चार वर्गों के संयुक्त मोर्चा - जिसमें मध्यम और निम्न पूंजीपति वर्ग भी शामिल हैं - द्वारा राजसत्ता पर कब्जा करने की राजनीतिक रणनीति भारतीय समाज के ठोस और समग्र विश्लेषण के आधार पर तैयार हुई है, न कि चंद लोगों की दिमागी कल्पनाओं से। यह हमारी पार्टी का फौरी कार्यक्रम है जिसे हम नई जनवादी क्रांति कहते हैं।
भारत के अर्द्धसामंती और अर्द्धउपनिवेशी समाज में मजदूरों, किसानों, कर्मचारियों, छोटे व मध्यम पूंजीपतियों आदि शोषित वर्गों तथा आदिवासियों, दलितों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि उत्पीड़ित तबकों की तमाम बुनियादी समस्याओं का स्थाई समाधान तभी हो सकता है जब इस व्यवस्था को जड़ से बदला जाएगा और शोषित वर्गों की जनवादी राजसत्ता स्थापित की जाएगी। और इस क्रांतिकारी प्रक्रिया की हमारी पार्टी अगुवाई कर रही है।
इसी लक्ष्य से हमारी पार्टी भाकपा (माओेवादी) पिछले कई दशकों से तमाम शोषित जनता को संगठित कर रही है जिसमें आदिवासी एक मुख्य हिस्सा हैं। जनता के हित ही पार्टी के हित हैं। जल-जंगल-जमीन समेत जनता की रोजमर्रा की सारी समस्याओं को लेकर वह जन संघर्षों का निर्माण कर रही है और शोषित जनता को विभिन्न जन संगठनों में गोलबंद कर रही है। इतिहास पर नजर डालें तो विश्व में अब तक हुई कोई भी क्रांति जनता के रोजमर्रा के मुद्दों से अछूती नहीं रही। बल्कि जनता की आकांक्षाओं और जरूरतों की सही अभिव्यक्ति के रूप में ही क्रांतियां सफल हो पाईं। 1917 की रूसी क्रांति ‘शांति और रोटी’ के नारे से सफल हुई थी। उसी तरह भारत में भी जल-जंगल-जमीन का मुद्दा कृषि क्रांति का हिस्सा है जो नई जनवादी क्रांति की धुरी है। लेकिन माओवादी आंदोलन में शामिल आदिवासियों और आंदोलन के नेतृत्व के बीच शुभ्रांशु कृत्रिम तरीके से विभाजन करके उनके लक्ष्यों को अलग-अलग दिखाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। माओवादी आंदोलन में भागीदार आदिवासियों को ‘पैदल सेना’ की संज्ञा देना भी उनकी तंग मानसिकता का ही परिचायक है।
शुभ्रांशु यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आदिवासियों ने किन्हीं दूसरों के ‘राजनीतिक लक्ष्य’ के तहत नहीं, बल्कि अपनी मुक्ति के लिए यह लड़ाई लड़ रहे हैं। देश के इतिहास में आज तक जहां कहीं भी आदिवासियों के संघर्ष या विद्रोह हुए, उनका सम्बन्ध किसी न किसी रूप में जल-जंगल-जमीन से जुड़ा ही रहा। और जल-जंगल-जमीन के मुद्दे का सीधा सम्बन्ध राजसत्ता से है। औपनिवेशिक दौर मेें आदिवासियों ने, जिनको शुभ्रांशु ‘पैदल सेना’ कहकर पुकार रहे हैं, अंग्रेजों के खिलाफ दर्जनों बार विद्रोह किया था। लेकिन अगर कोई यह कहेगा कि उन आदिवासियों के मुद्दे अलग थे और भारत की आजादी का लक्ष्य अलग था, उस पर हंसा ही जा सकता है। दरअसल आदिवासियों को लेकर शुभ्रांशु का नजरिया ही बुरी तरह गड़बड़ है। शुभ्रांशु आदिवासियों के मुद्दों की बात तो कर रहे हैं, लेकिन उन्हें पता ही नहीं कि उनका हल कैसे हो सकता है। वे इस सच्चाई को समझ ही नहीं पा रहे हैं कि आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन पर अधिकार या शुभ्रांशु के मुताबिक ‘न्याय’ तब तक नहीं मिलने वाला है जब तक कि राजसत्ता पर सामंतशाहों और दलाल पूंजीपतियों का कब्जा रहेगा जिन्हें साम्राज्यवादियों का समर्थन प्राप्त है। आज देश भर में, खासकर आदिवासी इलाकों में खदानों, बड़े बांधों, भारी उद्योगों, एक्सप्रेस हाइवे, अभयारण्य और सैन्य छावनियों के निर्माण की परियोजनाओं से करोड़ों लोगों का विस्थापन किया जा रहा है। इस कार्पोरेट लूटखसोट, जिसने उन्हें जीवन-मरण के संघर्ष में धकेल दिया, के साथ मौजूदा व्यवस्था और उसके द्वारा लागू नवउदार नीतियों के सम्बन्ध को भी वे समझ नहीं पा रहे हैं। या फिर शायद वे इस भ्रम में होंगे कि मौजूदा शोषणकारी और पीड़ादायक व्यवस्था को बरकरार रखते हुए ही कुछेक ‘बैंड-एइड सोल्यूशन्स’ के जरिए लोगों के मुद्दों का हल किया जा सकता है या किया जाना चाहिए।
आज दण्डकारण्य में, देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी अगर माओवादी आंदोलन में संगठित हो गए हैं, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें हमारी पार्टी द्वारा शुरू से ही राजसत्ता छीनने के लक्ष्य से प्रेरित किया गया था। शुरू से ही उनके तमाम संघर्षों मेें केन्द्र बिंदु के तौर पर राजसत्ता का सवाल ही रहा। आज यहां क्रांतिकारी जनताना सरकार का निर्माण भी हुआ है जोकि जनता की जनवादी राजसत्ता का भ्रूण रूप है। भले ही उनमें से बहुतेरे ने रायपुर, दिल्ली जैसे शहरों को नहीं देखा हो, जैसा कि शुभ्रांशु ने अपनी किताब में कई बार अप्रसन्नता भरे अंदाज में कहा, लेकिन इतना तो समझ ही गए हैं कि पिछले पैंसठ सालों में दिल्ली और रायपुर ने उनके साथ क्या किया था और उन्हें क्या दिया था। और लाल क़िले पर लाल झण्डा फहराना भी सिर्फ भाकपा (माओवादी) का सपना नहीं है जैसा कि शुभ्रांशु कह रहे हैं। यह भारत के तमाम शोषित, उत्पीड़ित व मेहनतकश जन समुदायों का दशकों पुराना सपना है क्योंकि उन्हें पता है कि तभी उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ इज्जत के साथ जीने के अधिकार की गारंटी मिल सकती है।
चलते-चलते उनकी उपरोक्त किताब पर हमारी कमेटी संक्षेप में कुछ टिप्पणियां करना चाहती है। यह किताब ढेर सारे झूठों, बहुत से अर्द्ध सत्यों और थोड़े-बहुत तथ्यों का पुलिंदा भर है। तथ्यों को भी उन्होंने काफी हद तक तोड़-मरोड़कर ही पेश किया। उसमें दिए गए कई अंश सफेद झूठ तो हैं ही, खासकर डाक्टर बिनायक सेन प्रकरण पर, जीत और मुक्ति के साथ हमारी पार्टी के कथित सम्बन्धों के बारे में और एस्सार कम्पनी से पैसा लेने के मामले में - इन तीन मुद्दों पर उन्होंने जो कुछ लिखा उसका हमारी कमेटी कड़े शब्दों में खण्डन करती है। हमें लगता है कि इस तरह वही आदमी लिख सकता है जो जनवादी और क्रांतिकारी आंदोलनों को और उन आंदोलनों के शुभचिंतकों को नुकसान पहुंचाना चाहता हो; जो उन आंदोलनों का दमन कर रही राजसत्ता के पक्ष में खड़े रहना चाहता हो।
 (गुड्सा उसेण्डी)
प्रवक्ता
दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)