29 दिसंबर 2016

अफ़वाह, सोशल मीडिया और पोस्ट ट्रूथ का दौर

--    दिलीप ख़ान
सोशल मीडिया के दौर में ख़बरों और सूचनाओं की बमबारी ने हमें उस जगह ला खड़ा किया है जहां किसी भी ख़बर की अगर आपने पुष्टि करने की कोशिश नहीं की तो अफ़वाहों के शिकंजे में ख़ुद को आप जकड़ा पा सकते हैं। मामला सिर्फ़ सोशल मीडिया यूजर्स या आम लोगों तक सीमित नहीं है, अफ़वाह फैलाने के तंत्र के तौर पर जिस बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल हो रहा है उसकी ज़द में वो तमाम संस्थान हैं, जिन्हें आप ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ कहते हैं। जिनका काम है ख़बरों को आप तक पहुंचाना और ज़िम्मेदारी के साथ पहुंचाना। 

2000 के नोट जिसमें 'चिप' की बात कही गई

2016 में ऐसी कई ‘ख़बरें’ सोशल मीडिया से उछलकर टीवी और अख़बारों में टंग गईं जो पूरी तरह झूठ थीं। नोटबंदी के बाद जब 2000 रुपए का नोट छापा गया तो इसमें किसी ऐसी ‘चिप’ लगे रहने की अफ़वाह ज़ोरों से उड़ी, जोकि ‘ज़मीन के 200 मीटर अंदर भी नोट का लोकेशन बताने में क़ामयाब’ हो। हिंदी और अंग्रेज़ी के तमाम बड़े अख़बारों ने पहले पन्ने पर इसे छापा। इनमें टाइम्स ऑफ इंडिया से लेकर राजस्थान पत्रिका तक शामिल हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया पूरी दुनिया में अंग्रेज़ी का सबसे बड़ा अख़बार है। सबसे ज़्यादा पाठक इसे पढ़ते हैं, लेकिन बिना किसी पुष्टि के अख़बार ने पहले पन्ने पर एक ऐसा झूठ छापा जिसकी कोई बुनियाद नहीं थी। हद तो तब हो गई, जब उग्र दक्षिणपंथ के एजेंडे को लगातार देश में स्थापित करने की कोशिश करने वाले ज़ी न्यूज़ ने इस पर ख़बर दिखाई। चैनल के सबसे बड़े चेहरे सुधीर चौधरी ने इस पर लंबा शो किया और ‘चिप’ की ख़ासियत कई मिनटों तक दर्शकों को समझाते रहे।

जैसे ही इस ‘ख़बर’ को कथित राष्ट्रीय मीडिया में जगह मिली, इसके भीतर ‘अफ़वाह’ का तत्व झड़कर अलग हो गया और उसी प्लेटफॉर्म पर अब ये विश्वसनीय तरीके से फैलने लगी, जहां से इसकी उत्पत्ति हुई थी। यानी सोशल मीडिया पर फैले इस झूठ ने ‘मुख्यधारा के मीडिया’ में घुसकर ख़ुद को ‘तथ्य’ में तब्दील कर दिया और यही ‘तथ्य’ अब उस सोशल मीडिया पर सच के तौर पर नए सिरे से नमूदार हुआ। सरकार की सफ़ाई के बावजूद ख़बर के फ़ैलाव के चलते लोगों का चिप पर बना यक़ीन टूटा नहीं। करोड़ों लोगों को आज भी लगता है कि उस नोट में ‘चिप’ लगी है और सरकार गुप्त तरीके से खंडन कर उस चिप का आपातकालीन इस्तेमाल करने में जुटी है।

सुधीर चौधरी ने नोट में 'चिप' पर पूरा शो कर डाला

इस ख़बर के खंडन में भी तमाम ख़बरें मीडिया में आईं, लेकिन तब तक करोड़ों लोगों के पास ‘पहले पहुंच चुकी सूचना’ एक तरह से ‘तथ्य’ के तौर पर स्थापित हो चुकी थी। बतौर खंडन आई ख़बर भी एक तथ्य के तौर पर ही पहुंची। यानी अब एक ही मामले पर दो तथ्य थे। कौन सा तथ्य सही है और कौन सा नहीं, ये साबित करना दोनों पक्ष के लिए उतनी ही मशक्कत भरा काम बन गया। जो अफ़वाह को ‘तथ्य’ मानकर चल रहा है उसके लिए आपके द्वारा पेश की गई सच्चाई भी महज एक ‘तथ्य’ ही है और ये ज़रूरी नहीं कि आपके द्वारा पेश किए गए तथ्य से वो अपने ‘तथ्य’ को कट जाने दें। 


असल में सोशल मीडिया के बाद पोस्ट ट्रूथ के विमर्श के मूल में यही आपाधापी और सनकपन है, जहां शोध और आमफ़हम जानकारियों के वजन को बराबर की कमोडिटी मान लिया गया हैं। मान लेते हैं कि आपने बहुत रिसर्च किया, और किसी ने उसी मुद्दे पर कोई जानकारी WhatsApp पर पाई। आपने किसी विश्वसनीय अख़बार/पत्रिका/जर्नल में कोई लेख पढ़ा और किसी ने उसी मुद्दे पर किसी टीवी चैनल में कोई कार्यक्रम देख लिया। किसी ने अपने भरोसेमंद व्यक्ति के मुंह से वो ‘फैक्ट’ पा लिया, जिसके लिए आपने दिन-रात एक की हो। आपने पूरी तन्मयता और मेहनत के साथ किताब पढ़ी, और उसी मसले पर किसी व्यक्ति ने पसंदीदा लोगों के फ़ेसबुक स्टेटस पढ़ लिए। हो सकता है कि आपकी जानकारी और तथ्य उससे बहुत अलग, बहुत विशद और सत्य के ज़्यादा क़रीब हो, लेकिन जिसने whatsApp या फ़ेसबुक पर वो जानकारी पाई है, उसके लिए आपकी मेहनत का कोई मोल नहीं है। उसके लिए जो मायने रखता है वो ये कि आपके पास भी किसी मुद्दे पर कोई जानकारी है और उसके पास भी एक जानकारी है। बिल्कुल उलट जानकारी होने के बावजूद उसे ख़ुद के ‘तथ्य’ पर भरोसा है।

नरेन्द्र मोदी को दुनिया के बेहतरीन प्रधानमंत्री क़रार देने की अफ़वाह तेज़ी से फैली

आपकी मेहनत और उसकी कोशिश का अंतिम नतीजा क्या है? दोनों के पास आख़िर में आया क्या? फैक्ट्स। आपका फैक्ट सही है और उनका ग़लत, ये साबित करने में आपका पसीना निकल जाएगा। सबको अपने-अपने फैक्ट्स पर भरोसा है। सबका अपना-अपना तथ्य है। पोस्ट ट्रूथ दौर में तथ्यों का उत्पादन और पुनरुत्पादन हो रहा है। सच के कई शेड्स बन गए हैं जिनमें कौन सा सच सही है ये तय कर पाना मुश्किल बना दिया गया है। 

सच को भी एक तथ्य माना गया है और अफ़वाह को भी एक 'तथ्य'। ऐसे में सच का कोई अलग मोल नहीं है। सच को झूठी सूचनाओं की बमबारी से ढंक देने की कोशिश दुनिया भर में जारी है। 2000 रुपए के नोट में ‘चिप’ की बात कोई इकलौता मामला नहीं है जिसे आप अपवाद करार दें। पिछले कुछ महीनों में आपने ये ख़बरें भी पढ़ी होंगी कि यूनेस्को ने नरेन्द्र मोदी को दुनिया का सबसे बेहतरीन प्रधानमंत्री क़रार दिया या फिर यूनेस्को ने ‘जन गण मन’ को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगाण बताया है। इसे आज भी करोड़ों लोग सच मानते हैं और ऐसी ‘ख़बरों’ के उत्पादन करने वालों का जो लक्ष्य था, उसे उतनी मज़बूती से लोग मुहर लगा रहे हैं जितनी किसी सांगठनिक-सांस्थानिक और महीनों की मेहनत से की गई पत्रकारिता पर। 

आपको लग सकता है कि मामले को जितना गंभीर बनाकर पेश किया जा रहा है उतना है नहीं, तो दुनिया भर में पिछले कुछ महीनों से चल रही ख़बरों पर नज़र दौड़ाइए और देखिए कि कितने बड़े-बड़े फ़ैसले ऐसी अफ़वाहों की बदौलत हो चुके हैं। कैथरीन विनर ने हाल ही में द गार्डियन में पोस्ट ट्रूथ के मुद्दे को समझाने के लिए ‘ब्रेग्जिट’ का उदाहरण दिया और बताया कि यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन को अलग करने के मामले में जो जनमत संग्रह हुआ, उसमें अफ़वाहों ने कैसे बड़ी भूमिका अदा की। अलग होने वालों के समर्थकों ने जिस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया था, वो था ‘यूरोपियन यूनियन से अलग होने पर हर ब्रिटिश परिवार को राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के तहत ख़र्च करने के लिए 12000 पाऊंड हर हफ्ते ज़्यादा मिलेंगे’। ब्रेग्जिट का नतीजा घोषित होते ही सारे प्रचारकों ने उसी दिन खुलकर माना कि इस दावे में सच्चाई नहीं है और ये महज प्रचार के उद्देश्य से किए गए थे। 

भारत में इसे आजकल हम और आप ‘जुमला’ नाम से जानते हैं। सोशल मीडिया ने जुमलों की शक्ति को बढ़ा दिया है और जुमले आजकल तथ्य के तौर पर स्थापित होने की पूरी कोशिश में है। झूठा साबित होने के बावजूद ऐसे 'तथ्यों' का उत्पादन नहीं रुक रहा। ये मान लिया गया है कि 'झूठे तथ्यों' में भी उतनी ही शक्ति है जितनी एक तथ्य में। सवाल ये है कि अफ़वाह को कितने आत्मविश्वास से भरोसेमंद बनाकर उसे लोगों के ज़ेहन में उतार दिया जा रहा है। 

अथॉरिटी पर सवाल न करने में यक़ीन रखने वाले लोग इस अफ़वाह के सबसे बड़े उपभोगकर्ता है और एक तरह से उत्पादकों के साथ उनकी मिलीभगत है और ये लोग ऐसी अफ़वाहों को 'एंप्लिफाई' करने में जुटे रहते हैं। चेतनाशून्य और क्रिटिकल दिमाग़ को एक तरफ़ भोथड़ा बनाने की कोशिश जारी है और दूसरी तरफ़ अफ़वाहों की खेती। दूसरे को चलाने के लिए पहला कदम बहुत ज़रूरी है।

(इसी मुद्दे पर कैथरीन विनर के लेख का अनुवाद के बाद ये लेख लिखा है। जल्द ही उस लेख को भी ब्लॉग पर लगाया जाएगा।)

2 टिप्‍पणियां:

  1. अफ़वाहो की स्वामी भक्ति ने समाज के पथ प्रदर्शक के अस्तित्व को नन्गा कर दिया है

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